गाँवों को क्या चाहिए


‘आज दो, अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो’ का नारा हर गाँव में गूँज रहा था। मगर देढ़ दशक बाद राज्य के गाँव बदहाली की कहानी कह रहे हैं। यह तस्वीर आखिर कैसे बदलेगी?

उत्तराखंड के गाँवउत्तराखंड राज्य वर्ष 2000 में अस्तित्व में आया था। राज्य निर्माण के लिये शहादतें हुईं। स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिये जैसी आवाजें उठती हैं, वैसी ही आवाजें उत्तराखंड राज्य पाने के लिये उठी थीं। छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक सबने एक ही स्वर में आवाजें दीं, ‘आज दो, अभी दो उत्तराखंड राज्य दो।’ दूर दराज की घाटियों, हर घर, हर गाँव में अलग राज्य के सपने संजोए गए। इस लड़ाई का प्रदर्शन का जिम्मा राज्य की महिलाओं के सिर था, इसलिये इस आंदोलन ने देश-दुनिया का अपनी ओर ध्यान खींचा। विगत 15 वर्षों की स्वायत्ता ने हर एक राजनीतिक दल को बारी-बारी से पारी दी है। पर आमजन और गाँव के हित में आज तक कुछ खास नहीं आ सका। प्रश्न यह है कि राज्य बनने के बाद गाँवों के चेहरे कितने बदले। बढ़ती हुई झुर्रियों ने यह तो बता दिया है कि उनके हिस्से का उत्तराखंड उन्हें आज तक नहीं मिल सका है। अस्कोट हो या आराकोट या फिर धारचूला हो या तुनि, सब जगह निराशा के चिन्ह साफ दिखाई पड़ते हैं।

हमने 25 सितंबर को साहिया से ‘गाँव बचाओ यात्रा’ शुरु की थी, जो 21 दिन के सफर में 818 गाँवों से होते हुए और 2600 किमी. का सफर तय कर 25 अक्टूबर को देहरादून पहुंची। यात्रा के दौरान एक बात सब जगह नजर आई, वह है गाँवों की दयनीय दशा। शिक्षा एंव स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं। कृषि भूमि घटती जा रही है। पानी की किल्लत है। आज भी कई गाँव सड़कों से बहुत दूर हैं। जहां सड़कें हैं भी तो बदहाल हैं। सड़कों और पुलों की दशा सरकारी दावों की पोल खोलती है।

पलायन के कारण गाँव वीरान हो रहे हैं। राज्य बनने के बाद औसतन 40 फीसदी पलायन हो चुका है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार जितना पलायन आजादी के बाद से उत्तराखंड राज्य बनने तक नहीं हुआ था, उससे कहीं ज्यादा राज्य गठन के पश्चात डेढ़ दशक में हुआ है। वर्ष 2000 से अब तक तीन हजार गाँव खाली हो चुके हैं। यही हालत हमें ‘गाँव बचाओ यात्रा’ के दौरान देखने को मिले।

दशोली विकासखंड के ग्राम सल्ला जो सड़क मार्ग से तीन किमी की दूरी पर है, उस गाँव में आज 36 परिवारों में से चार परिवार ही बचे हैं।

उनमें से भी एक परिवार में सिर्फ एक बुढ़िया है। पर्याप्त और उपजाऊ जमीन तो है, मगर सिंचाई व्यवस्था नहीं है। छात्रों की कम संख्या के कारण प्राइमरी स्कूल बंद हो चुका है। ऐसा ही हाल सड़क के किनारे बसे रामपुर गाँव का है, जहां से अब 46 परिवार पलायन कर चुके हैं।

जनपद चमोली के पाखी गाँव में बहुत सम्पन्न लोग रहते थे, पर आज वहाँ भी पलायन की मार है। विकासखंड जोशीमठ के गरुड़गंगा, धरग्वाड़ से 60 फीसदी पलायन हो चुका है। कुमाऊं मंडल के द्वाराहाट ब्लॉक के नैनोली गाँव में पहले 50 परिवार रहते थे, अब सात परिवार रह गए हैं। यहाँ अब सड़क का सर्वे हो रहा है, जब गाँव वीरान हो गया है।

राज्य बनने के बाद ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के स्तर में सुधार व बढ़ोतरी की उम्मीदें थी, मगर आज राज्य में 1800 स्कूल बंद होने की कगार पर हैं। पांडुवाखाल में बच्चों को छठवीं के बाद शिक्षा के लिये सात किमी से अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है। स्कूलों में पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं है, बच्चे अपने साथ पानी के बर्तन भर के ले जाते हैं। निशनैली गाँव में स्कूल है, छात्र भी हैं, पर शिक्षक नहीं हैं। गैरसैण में बिना जनसहमति के पीजी कॉलेज 13 किमी दूर बना दिया गया, जहां तक की यातायात की कोई उचित व्यवस्था नहीं हैं। नयार नदी जो कि महाविद्यालय और गैरसैंण नगर पंचायत के बीच बहती है, उस पर कोई पुल नहीं है। बरसात में नयार नदी का जलस्तर बढ़ने से छात्रों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। यही हाल व्यावसायिक शिक्षा का भी है। अस्कोट, गोपेश्वर में घिंघराण, कर्णप्रयाग आईआईटी में पर्याप्त अनुदेशक/इंस्ट्रक्टर नहीं हैं, यही हाल प्रदेश के सभी औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान और पॉलिटेक्निक का भी है। कहीं-कहीं तो व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिये प्रयोगशाला व कार्यशाला 15 सालों में नहीं बन पाई है।

राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बद से बदतर हो चुकी है। एक तो डॉक्टर पहाड़ों पर जाने को राजी नहीं हैं, ऊपर से सरकार आज तक कोई ठोस नीति तैयार नहीं कर सकी है। पीपलकोठी स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में एलोपैथिक डॉक्टर की पिछले चार वर्षों से नियु्क्ति नहीं हुई है। गैरसैंण में पीपीपी मोड पर चल रहे चिकित्सालय में एक ही डॉक्टर है। लोहाघाट स्वास्थ्य केंद्र को पीपीपी मोड पर दिए जाने से स्थानीय लोगों में रोष है। स्वास्थ्य केंद्र रेफरल केंद्र बनके रह गए हैं।

प्राकृतिक आपदा से प्रभावित जनपदों में कई स्थानों पर आज भी पुलों का निर्माण नहीं हो सका है. बच्चों और ग्रामीणों की जान जोखिम में डालकर ट्रालियों से नदी को पार करना पड़ता है। इससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। कई जगहों पर गर्भवती महिलाओं को प्रसूती सेवाएं उपलब्ध कराने में मुश्किलें आ रही हैं।

नेशनल पार्क बायोस्फियर रिजर्व एवं अभ्यारण क्षेत्रों के 174 से अधिक वन ग्रामों में आज तक बिजली की सुविधा नहीं हैं। पाड़ा, इराणी (चमोली), ढूमक्क, मैथान (गैरसैण), खंसक घाटी के कुछ गाँव जौलजीवी से पिथौरागढ़ की ओर नेपाल सीमा से लगे क्षेत्र में आज तक विद्युत आपूर्ति व्यवस्था नहीं हो सकी है। जबकि कई क्षेत्रों में बिजली के खंभे एवं तार तो लगे हैं, पर बिजली नहीं है। यहाँ रहने वाले अनेक लोगों को अभी तक मतदान का अधिकार तक नहीं मिल सका है। राशन कार्ड तक नहीं बना है। यहाँ बाघ, गुलदार, भालू के हमले और बंदरों और अन्य जानवरों द्वारा खेती को नुकसान पहुँचाने का खतरा बना रहता है।

राज्य बनने के बाद से 7000 हेक्टेयर भूमि घट चुकी है, और इसमें पर्वतीय क्षेत्रों का हिस्सा ज्यादा है। यात्रा के दौरान देखने में आया की बागेश्वर, चिन्यालीसौड़, जखोली, गौचर, लंगासु, बटला, मायापुर, बंड क्षेत्र, सिमली, गैरसैंण, द्वाराहाट, सोमेश्वर, बसौली, बिनसर के आसपास के क्षेत्र, मुनाकोट, गुरना, मानेश्वर, मरोड़ाखाल, चम्पावत, अमोड़ी, बेलखेत, बस्तिया, खटीमा, टनकपुर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, ऐठानी, ऐंचोली, अस्कोट, हेल्पिया, ओगला, चमियाला, घनसाली, मयाली, तिलवाड़ा, नगरासु, मजखाली, कोसी, कटारमल, कठपुड़िया, थल, चौकड़ी, डीडीहाट, चमोली आदि में कृषि भूमि घटती जा रही है। प्रदेश में हो रहे खनन और क्रेशर उद्योग में अधिकतर राज्य के, सरकार के, गुर्गे शामिल हैं, 32 स्टोन क्रेशरों जिनका विस्तार पूरे उत्तराखंड में है, 70 प्रतिशत से अधिक क्रेशर में सीधे-सीेधे स्थानीय विधायकों का कमीशन जुड़ा है।

एक बड़ा सवाल जो गावों में खड़ा हो चुका है कि हमने ये उत्तराखंड राज्य किसके लिये मांगा था। क्या इस प्रश्न पर विचार करने का यही मौका नहीं है?

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