गायब हो रहे गया के तालाब

रामसागर तालाब में पसरी गन्दगी
रामसागर तालाब में पसरी गन्दगी


ऐतिहासिक व धार्मिकों मान्यताओं से भरपूर गया शहर जितना पुराना है, उतने ही पुराने यहाँ के तालाब भी हैं। कभी गया को तालाबों का शहर भी कहा जाता था, लेकिन बीते छह से सात दशकों में गया के आधा दर्जन से अधिक तालाबों का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो चुका है।

जहाँ कभी तालाब थे, वहाँ आज कंक्रीट के जंगल गुलजार हैं। इन्हीं में से एक नूतन नगर भी है। इसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ पहले विशाल तालाब हुआ करता था। यहाँ अब एक छोटा- सा तालाब बचा है जिसे बिसार तालाब कहा जाता है। बिसार तालाब से आगे बढ़ने पर दिग्धी तालाब आता है। बताया जाता है कि दिग्धी तालाब जुड़वा था, जिसके एक हिस्से को भरकर कमिश्नरी दफ्तर बना दिया गया। इस तालाब का एक हिस्सा अब भी बचा हुआ है, लेकिन इसकी साफ-सफाई नहीं होती है, जिस कारण वहाँ गन्दगी का अम्बार लगा रहता है।

शहर के रामसागर तालाब के अहाते में मवेशियों को बाँधा जाता है। यह तालाब भी खस्ताहाल है।

गया क्षेत्र में तालाबों को लेकर सन 1916 के नक्शे के अलावा कोई प्रामाणिक दस्तावेज नहीं है, इसलिये इनकी संख्या को लेकर ठीक-ठीक कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन ब्रिटिश शासनकाल में इनकी संख्या का अनुमान लगाया गया था। इस अनुमान के अनुसार गया क्षेत्र में करीब 50 तालाब थे। वहीं, गया जिले में तालाबों की संख्या 200 से अधिक थी। लेकिन, इनमें से करीब 50 तालाबों को भर दिया गया है।

गया शहर के तालाबों की बात करें, तो दिग्धी तालाब के एक हिस्से के अलावा कोइली पोखर, मिर्जा गालिब कॉलेज के पीछे स्थित तालाब और आजाद पार्क के तालाब को खत्म कर दिया गया है। बाइपास में एक बड़ा जलाशय हुआ करता था, जिसका अतिक्रमण कर कई दुकानें और मकान बना दिये गए हैं। बाकी हिस्से में गन्दगी पसरी रहती है।

यहाँ कुछ जलाशयों को कुंड, कुछ को सरोवर और कुछ को तालाब कहा जाता है। कुंड, सरोवर और तालाब कहने के पीछे क्या मान्यता रही होगी, यह किसी को नहीं पता।

सूर्यकुंडअलबत्ता, अधिकांश तालाबों के पास एक मन्दिर जरूर है, जो इनके धार्मिक महत्त्व को दर्शाता है। मसलन विष्णुपद मन्दिर के निकट स्थित सूर्यकुंड तालाब के पास सूर्य मन्दिर है, तो रुक्मिणी तालाब के पास भी शिवालय बने हुए हैं। रुक्मिणी तालाब के पास ही गदालोल वेदी भी है। इसके बारे में पौराणिक कथा है कि हेति दैत्य को मारकर भगवान विष्णु ने यहीं पर अपनी गदा को धोया था। इसी वजह से गदालोल तीर्थ बना।

मगध और खासकर गया में पानी को लेकर लम्बे समय से काम कर रहे रवींद्र पाठक कहते हैं, ‘गया क्षेत्र के 7 तालाबों का नामोनिशान मिट चुका है जबकि कम-से-कम 8 तालाब ऐसे हैं, जिनकी स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। सम्प्रति महज 18 तालाबों का ही इस्तेमाल हो रहा है। जिन 7 तालाबों का अस्तित्व खत्म हुआ है, उनमें से 3 तालाब तो बेहद बड़े थे।’

यहाँ के तालाबों के इतिहास के बारे में बहुत कम लिखा गया है, लेकिन धार्मिक महत्त्व के तालाबों को देखने पर लगता है, कि ये काफी पहले बने होंगे। वैतरणी तालाब को इसके एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। वैतरणी तालाब गया स्टेशन से बाईपास जाने वाली सड़क के किनारे स्थित है। तालाब के चारों तरफ घेराबन्दी की गई है। तालाब के पास ही एक बोर्ड लगा हुआ। बोर्ड पर लिखा है –

वैतरणी तालाब के पास लगा बोर्डदेवनद्यां वैतरिष्या स्नातः स्वर्ग नेयत्पितृन। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं वैतरिष्यां तु नारद। एक वंशति कुलान् तारयेन्नात्र संशयः।।
(वायु पुराण पु.ग.म.अ.आठ)

(देव नदी वैतरणी में स्नान करने से पितरों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। सनत कुमार कहते हैं, हे नारद मैं बार-बार सत्य कहता हूँ। वैतरणी में स्नान तर्पण करने से इक्कीस कुल तर जाते हैं।)

वैतरणी तालाबपश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के तालाबों पर व्यापक तौर पर शोध करने वाले पर्यावरणविद डॉ. मोहित रे कहते हैं, ‘पुराने तालाबों का अपना इतिहास होता है। इस इतिहास को उद्घाटित कर दस्तावेज तैयार किया जाना चाहिए।’ उन्होंने कोलकाता के तालाबों के इतिहास व वर्तमान पर एक शोधपरक किताब लिखी है। वह कहते हैं, ‘सरोवर, कुंड और तालाब में कोई अन्तर नहीं होता है। हाँ, सरोवर कहने से यह पता चलता है कि उसका निर्माण राजा-महाराजाओं ने कराया होगा। वहीं, जब किसी तालाब को कुंड कहा जाता है, तो वह उसके धार्मिक महत्त्व को दर्शाता है।’

किसी भी शहर में तालाब बनाने के पीछे वहाँ की भौगोलिक संरचना का योगदान होता है, इसलिये अलग-अलग शहरों में तालाब बनाने की अलग-अलग वजहें होती हैं। कोलकाता में तालाब का निर्माण मत्स्य पालन और स्थानीय लोगों के पेयजल की समस्या के समाधान के लिये हुआ था। उसी तरह गया में तालाब खोदे जाने की अपनी वजहें हैं। इन वजहों का खुलासा करते हुए रवींद्र पाठक बताते हैं, ‘मुख्य रूप से तीन वजहों से तालाब बना करते हैं। पहली वजह है बसी हुई आबादी के लिये साल भर पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कराना। दूसरी वजह होती है शहर में कृत्रिम ढाल पैदा करना। कृत्रिम ढाल पैदा करने के लिये कई बार तालाब खोदे जाते हैं और उसकी मिट्टी पर आबादी बस जाती है। गया के कई तालाबों के पास ऊँई पर बसी आबादी से यह पता चल जाता है। तालाब बनाने के पीछे तीसरी वजह होती है बाढ़ के समय शहर की ओर आने वाले पानी को स्टोर करना।’ उन्होंने कहा कि गया में तीनों ही वजहों से तालाब बनाए गए हैं और तालाबों को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है।पहाड़ के किनारे स्थित रुक्मिणी तालाबकई तालाब पहाड़ की तलहटी में बनाए गए, ताकि बारिश का पानी पहाड़ से ढलकर तालाब में आ जाये। रुक्मिणी ऐसा ही तालाब है।

तालाब जब बनाए गए थे, तब इसके पर्यावरण पक्ष के बारे में लोगों को शायद ही पता होगा और आज भी पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों को छोड़ दें, तो अधिकांश लोगों को पता नहीं कि तालाब कार्बन को सोखकर पर्यावरण को स्वच्छ बनाते हैं।

इंटरेशनल रिसर्च जर्नल ‘करेंट वर्ल्ड एनवायरमेंट’ में छपे एक शोध के अनुसार तालाब व जलाशय जल संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये जीवमण्डल की वैश्विक प्रक्रिया और जैवविविधता को बनाए रखने में भी कारगर होते हैं। शोध में कहा गया है कि 500 वर्गमीटर का तालाब एक साल में 1000 किलोग्राम कार्बन सोख सकता है। यही नहीं, जलाशय सतही पानी से नाइट्रोजन जैसी गन्दगी निकालने में भी मददगार हैं और तापमान तथा आर्द्रता को भी नियंत्रित रखते हैं।

उल्लेखनीय है कि भौगोलिक संरचना के कारण गया शहर का तापमान बिहार के दूसरे शहरों की अपेक्षा अधिक होता है और बारिश भी बहुत अधिक नहीं होती है। इस लिहाज से भी देखें, तो गया के लिये तालाब बहुत जरूरी हैं, लेकिन लोगों को इसकी फिक्र नहीं है। यहाँ के तालाबों को मिटाने की कोशिश लगातार हो रही है। स्थानीय लोग बताते हैं कि पिछले दिनों मानपुर में एक पोखर को भरने की कोशिश की गई थी, लेकिन लोगों के विरोध के कारण पोखर बच गया।

कठोतर तालाब की जगह बना कचरे का पहाड़​ऐसा नहीं है कि गया के तालाबों को भरने का काम पिछले 5-4 दशकों में शुरू हुआ है। इसका इतिहास बहुत पुराना है और इसकी गवाही गया स्टेशन से कुछ ही दूर बारी रोड में स्थित कठोतर तालाब देता है। स्टेशन के आसपास किसी से भी आप पूछेंगे कि कठोतर तालाब कहाँ है, तो वह आपको हाथ के इशारे से रास्ता बता देगा। अगर आप कभी नहीं गए हैं, तो आपको यही लगेगा कि कठोतर तालाब सचमुच में पानी से लबालब भरा हुआ तालाब ही होगा, लेकिन आपको झटका तब लगेगा, जब आप तालाब के करीब पहुँचेंगे। कठोतर तालाब जहाँ हुआ करता था, वहाँ अभी गैरेज है। पास ही कूड़े का अम्बार लगा रहता है और आसपास कबाड़ की दुकानें गुलजार हैं। सड़क किनारे दवा की दुकान चलाने वाले एक बुजुर्ग कहते हैं, ‘मैंने जब से होश सम्भाला है, तब से कठोतर तालाब का नाम ही सुना है, कभी तालाब को देखा नहीं।’ पास ही सब्जी बेचने वाले एक अधेड़ ने भी इसकी तस्दीक की और कहा कि जब नाम है तो कभी तालाब जरूर रहा होगा, लेकिन उनके होश सम्भालने तक तालाब खत्म हो चुका था।

बुजुर्ग की बातों से जाहिर होता है कि लम्बे समय से यहाँ के तालाब मुसलसल भरे जा रहे हैं। तालाबों को भरने की कई वजहें रहीं, जिनमें गाँवों से गया शहर की तरफ आबादी का पलायन और जनसंख्या में इजाफा भी शामिल हैं। लोग अपनी सहूलियत के लिये तालाबों को भरने लगे, लेकिन किसी ने इसका विरोध नहीं किया। यहाँ तक कि गया नगर निगम ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। इसका परिणाम है कि आज आधा दर्जन से अधिक तालाब खत्म हो गए हैं।

पीआईएल (जनहित याचिका) एक्टिविस्ट और एनजीओ प्रतिज्ञा के संस्थापक ब्रजनंदन पाठक कहते हैं, ‘मेरा खयाल है कि देश की आजादी के बाद से ही गया के तालाबों को खत्म किया जाने लगा। ग्रामीण इलाकों में जब नक्सलवाद बढ़ा, तो लोग गया शहर की तरफ आने लगे और जहाँ खाली जगह मिली, वहीं ठिकाना बना लिया। जगह नहीं मिली, तो तालाबों को ही पाट दिया। इस पूरे मामले में सरकार व स्थानीय प्रशासन की तरफ से खूब ढिलाई बरती गई।’ उन्होंने कहा, ‘तालाब पाटने का काम अब भी जारी है। हाँ, जिन तालाबों के साथ धार्मिक मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं, वे अब भी बचे हुए हैं।’

बाईपास के इस जलाशय के हिस्से को भरकर मकान और दुकानें बना दी गई हैंतालाबों पर शहरीकरण के हमले से गया शहर में पीने के पानी की समस्या गहराने लगी है। गर्मी के दिनों में कई इलाकों में पेयजल की किल्लत बढ़ जाया करती है। तालाब पाट दिये जाने से भूजल रिचार्ज नहीं हो पा रहा है, जिससे जलस्तर दिनोंदिन नीचे जा रहा है। 50 के दशक में जिन इलाकों के कुएँ में 10 फीट नीचे पानी मिलता था और वहाँ 100 फीट से भी अधिक नीचे से पानी निकालना पड़ रहा है। मगध विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री विभाग के प्रोफेसर रंजीत कुमार वर्मा कहते हैं, ‘एपी कॉलोनी के कुओं से सन 1958 में 10 फीट नीचे से पानी निकलता था। सन 1982 में जलस्तर 30 फीट नीचे चला गया और अभी 140 फीट नीचे से पानी निकालना पड़ता है। काली बाड़ी क्षेत्र में भी यही हालत है। यहाँ कुछ साल पहले तक 10 फीट नीचे से पानी निकलता था, लेकिन अभी जलस्तर 60 फीट नीचे चला गया है।’

मिट्टी के ढाँचे के बारे में वह विस्तार से बताते हैं, ‘मिट्टी के ढाँचे को अगर देखें, तो इसमें दो परतें होती हैं और इन दो परतों के बीच में खाली जगह होती है। इस खाली जगह में जल के अणु और ऑक्सीजन होते हैं। जल के अणु और ऑक्सीजन दोनों परतों को एक दूसरे के सम्पर्क में आने से रोके रखते हैं।’ प्रो. वर्मा कहते हैं, ‘जब आप भूजल को रिचार्ज नहीं करते हैं और पानी निकालते रहते हैं, तो दोनों परतों के बीच में मौजूद पानी बाहर निकल जाता है। इससे दोनों परतें एक दूसरे से मिल जाती हैं और चूँकि रिचार्ज नहीं हो पाता है, तो कुछ समय बाद मिट्टी पत्थर में तब्दील हो जाती है।’

उन्होंने कहा कि जलस्तर को बनाए रखने के लिये तालाबों को सँवारना और संरक्षित करना होगा। साथ ही पहाड़ों को भी बचाए रखने की जरूरत है, क्योंकि पहाड़ में पानी को रेस्टोर करने की अकूत क्षमता होती है। जलाशयों को संरक्षित करने के लिये बिहार सरकार को मौजूदा कानून में बदलाव कर कड़े प्रावधान लाने की जरूरत है।

अपनी बदहाली पर रोता दिग्धी तालाबतालाबों के संरक्षण के सवाल पर गया नगर निगम के डिप्टी मेयर मोहन श्रीवास्तव कहते हैं, ‘गया शहर के बचे हुए तालाबों को संरक्षित करने के लिये गया नगर निगम की ओर से हर सम्भव कदम उठाया जाएगा। तालाबों को पानी को साफ रखने के लिये नियमित तौर पर सफाई अभियान चलाया जाएगा और लोगों को जागरूक किया जाएगा कि वे तालाबों को गन्दा न करें।’

हालांकि, राज्य के शहरी विकास विभाग की तरफ से गया शहर के विकास के लिये जो विस्तृत प्लान तैयार किया गया है, उसका मजमून इस ओर इशारा करता है कि तालाब सरकार की प्राथमिकता में हैं ही नहीं।

प्लान में वाटर बॉडीज को पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने के उपायों में शामिल किया गया है। प्लान में लिखा गया है कि पेयजल के लिये जलाशयों को संरक्षित किया जाएगा। प्लान के अनुसार वर्ष 2030 तक शहर के लोगों को पेयजल मुहैया कराने पर 137.15 करोड़ रुपए खर्च किये जाएँगे। इस रकम में से तालाबों पर कितना खर्च होगा, इस बारे में रिपोर्ट में कोई जिक्र नहीं है।

कमिश्नरी दफ्तर दिग्धी तालाब के एक हिस्से को पाटकर बनाया गया है
 

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