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गेहूँ में सिंचाई समय पर करें

राजीव कुमार


गो.ब.पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पन्तनगर,


हमारे देश में गेहूँ की कम पैदावार के अनेक कारण हैं जिनमें से प्रमुख कारण सिंचाई का न होना या गलत समय पर गलत ढंग से सिंचाई करना है। भारत में लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्रफल में सिंचित गेहूँ की खेती की जाती है जो भारत के समस्त सिंचित क्षेत्रफल का 24 प्रतिशत है। अधिक उपज लेने के लिए और विशेष रूप से बौनी किस्मों के लिए सिंचाई का विशेष महत्व है क्योंकि बौनी किस्में ज्यादा खाद पानी देने पर भी पुरानी लंबी किस्मों की भांति गिरती नहीं है।

पौधों को उचित वृद्धि व विकास के लिए पानी आवश्यक है। पानी भूमि में पोषक तत्वों को घुलनशील बनाता है तथा पोषक तत्वों के अवशोषण तथा पौधों के हरे हिस्से में उन्हें पहुँचाने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त भूमि की तैयारी, लवण निक्षालन तथा पाले से बचाव के लिए भी पानी आवश्यक है। इसलिए जरूरत के अनुसार सिंचाई करना आवश्यक है। इसके विपरीत जहां नहरों का पानी उपलब्ध है वही किसान मिट्टी की किस्म पानी की आवश्यकता व मात्रा को ध्यान में रखते हुए खेत में अधिक पानी भर देते है। अधिकतर धान वाली भूमि में (जिनकी जलधारणा क्षमता अधिक होती है) खेत में पानी भरना फसल के लिए हानिकारक होता हैं। छोटा अवस्था में अधिक पानी भरने पर फसल की बढ़वार रूक जाती है, पौधें पीले पड़ जाते है और अन्त में सूख जाते है। बालियां निकलने के बाद अधिक पानी भरने से फसल के गिरने व सड़ने का भय रहता है। बीच की अवस्थाओं में पानी जमा होने का फसल की बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। इस प्रकार उचित समय पर उचित मात्रा में सिंचाई करना बहुत ही महत्वपूर्ण है।

कितनी सिंचाई


गेहूँ की फसल में सिंचाई की संख्या तथा समय जाडों की वर्षा पर निर्भर करता है। फिर भी अच्छी फसल लेने के लिए लगभग 40 से0मी0 पानी की आवश्यकता होती है जो जाड़ों की वर्षा भूमि में उपलब्ध पानी तथा सिंचाई से पूरी होती है। गेहूँ की इस पूर्ति के लिए साधारणत: लगभग 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पडती है लकिन रेतीली भूमि में 6-8 सिंचाई की जा सकती है। मटियार भूमि (भारी मिट्टी) में 3-4 सिंचाई ही काफी होती है।

सिंचाई का उचित समय


गेहूँ की सिंचाई कब की जाय, यह मिट्टी में जल की मात्रा, पौधों की जल की आवश्यकता तथा जलवायु पर निर्भर करता है।

मिट्टी में जल की मात्रा


मिट्टी में उपलब्ध जल पौधों के काम आता है। मिट्टी में जल की मात्रा के आधार पर सिंचाई करने के लिए सरल तथा वैज्ञानिक विधियां भी अपनाई जा सकती है। पृष्ठ तानवमापी (टेन्सीयोमीटर) तथा जिप्सम ब्लाक से परोक्ष रूम से भूमि में नमी की मात्रा का पता लगाया जा सकता है। पृष्ठ तनावमापी से इस बात का पता लगता है कि भूमि जल की मिट्टी के कणों से कितने बल से जुड़ा है। यह बल ऋणात्मक बल या तनाव कहलाता है। ज्यों- ज्यों भूमि में पानी की मात्रा घटती है, तनाव बढ़ता है। सतह से 30 से0मी0 गहराई में पृष्ठ तनाव तथा गेहूँ की पैदावार में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने में यह पाया गया है। गेहूँ की अधिकतम पैदावार तनाव पृष्ठ के 0.5 'बार' पहुंचने पर सिंचाई करने से मिलती है। इस प्रकार गेहूँ में सिंचाई पृष्ठ तनाव के 0.5 'बार' करनी चाहिए।

जलवायु


कई क्षेत्रों में फसल द्वारा वाष्पीकरण व वाष्पोत्सर्जन क्रिया द्वारा जल का ह्रास वहां सूर्य के प्रकाश की मात्रा तापमान, अपेक्षित आर्द्रता तथा जलवायु की गति पर निर्भर करता है। फसल द्वारा उपयोग किये गये जल तथा उस अवधि में वाष्पन के बीच एक खास सम्बन्ध है। परीक्षणों में पाया गया है कि गेहूँ में सिंचाई इस तरह की जानी चाहिए कि सिंचाई द्वारा दिया गया पानी कुल वाष्पन का (उस अवधि में) 90 प्रतिशत हो। इसे यों भी कहा जा सकता है कि 6.0 से0मी0 पानी सिंचाई से तब देना चाहिए जबकि वाष्पन 6.7 से0मी0 हो जाय। गेहूँ की सभी अवस्थाओं में एक यही आधार लिया जा सकता है। वाष्पन एक सरल व सस्ते उपकरण द्वारा नापा जा सकता है जिसे पैन वाष्पन मापी कहते है। यदि पहली सिंचाई मुख्य जड़ विकास की प्रारम्भ की अवस्था में दे दें तो उसके बाद की सिंचाई या वाष्पन के अनुसार सफलतापूर्वक कर सकते है।

गेहूँ की अवस्था के आधार पर सिंचाई


गेहूँ के पौधे के जीवन चक्र की कुछ ऐसी अवस्थाएं होती है जिनको हम अच्छी तरह पहचान सकते है और यदि इन अवस्थाओं पर सिंचाई करें तो गेहूँ में पानी का उचित प्रबन्ध हो जाता है। गेहूँ की ऐसी अवस्थाएं निम्नलिखित है जिनमें सिंचाई करनी चाहिए।

अवस्था


मुख्य जड़ बनाते समय

20-25 दिन

कल्लों के विकास के समय

40-45 दिन

तने में गाँठ पड़ते समय

65-70 दिन

फूल आते समय

90-95 दिन

दानों में दूध पड़ते समय

105-110 दिन

दाना सख्त होते समय

120-125 दिन



उचित मात्रा में पानी उपलब्ध होने पर उपयुक्त सभी अवस्थाओं मे सिंचाई करनी चाहिए क्योंकि पौधों की बढ़वार के लिए प्रत्येक अवस्था में पानी की आवश्यकता पड़ती है। कुछ ऐसे क्षेत्र होते है जहां पानी पूरी सिंचाई के लिए उपलब्ध नही होता है। ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई विशेष अवस्था में करें। परीक्षणों से यह पता चला है कि पौधों के जीवन चक्र मे कुछ ऐसी अवस्थाएं होती है जबकि पानी की कमी के कारण उन्हें सर्वाधिक हानि पहुँचती है। यह अवस्थाएं सिंचाई की दृष्टि से क्रान्तिक अवस्थाएं कहलाती है। गेहूँ की फसल में मुख्य जड़ के विकास तथा फूल आने का समय सिंचाई की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सीमित सुविधाएं प्राप्त है, वहां पानी का उपयोग सिंचाई के लिए निम्नलिखित तरीके से करना चाहिए। इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि केवल क्रान्तिक अवस्थाओं में ही सिंचाई करने से इष्टतम उपज प्राप्त की जा सकती है।

• यदि पानी केवल एक सिंचाई के लिए उपलब्ध है तो यह सिंचाई मुख्य जड़ के विकास की अवस्था में कर देनी चाहिए जो बौनी किस्मों में बोआई के 20-25 दिन बाद आती है।
• यदि पानी दो सिंचाइयों के लिए उपलब्ध है तो पहली सिंचाई मुख्य जड़ के विकास के समय तथा दूसरी फूल आते समय करनी चाहिए।
• यदि पानी तीन सिंचाइयों के लिए उपलब्ध है तो पहली सिंचाई मुख्य जड़ के विकास के समय, दूसरी सिंचाई तने में गाँठ बनते समय तथा तीसरी दाने में दूध बनते समय करनी चाहिए।
• यदि चार सिंचाइयों की सुविधा है तो सिंचाई मुख्य जड़ बनते समय, तने में गाँठें बनते समय, बाली निकलते समय तथा दानों में दूध बनते समय करनी चाहिए।

गेहूँ में सबसे ज्यादा नुकसान मुख्य जड़ बनते समय सिंचाई न करने से होता है। गेहूँ में विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई न करने से पैदावार पर कितना प्रभाव पडता है यह सारणी-1 से स्पष्ट है।

सिंचाई की गहराई


साधारणत: यह देखा गया है कि जिन क्षेत्रों में सिंचाई के लिए रहट आदि का प्रयोग करते है, उनमें पानी की कमी के कारण इतना कम पानी लग पाता है के जड़ों की पूरी गहराई तक पानी नहीं पहुंच पाता, इसलिए फसल की उपज में भारी कमी हो जाती है। इसके विपरीत नहरी क्षेत्रों में तथा सरकारी नलकूपों द्वारा सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में किसान आवश्यकता से अधिक गहरी सिंचाई करते हैं क्योंकि अगली सिंचाई को कब उपलब्ध होगी यह निश्चित नहीं होता। आवश्यकता से अधिक पानी फसल के लिए प्रत्यक्ष रूप से हानिकारक है तथा पोषक तत्वों को भूमि में जड़ क्षेत्र से अधिक गहराई में बहा ले जाता है।

बलुई भूमि में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है और मटियार में अधिक, क्योंकि बलुई भूमि को पानी रोकने की क्षमता मटियार भूमि की अपेक्षा कम होती है। यदि सिंचाई अधिक उपज के अंतर पर की जाय तो सिंचाई की गहराई अधिक होनी चाहिए। जिन क्षेत्रों में पानी का स्तर भूमि की सतह के समीप हो तो उन क्षेत्रों में कम संख्या में सिंचाई की आवश्यकता होगी क्योंकि बाद की अवस्थाओं में भूमि के इस जल स्तर से कुछ पानी पौधों की जड़ों का उपलब्ध हो जाता है। औसतन 6 से 7 से0मी0 पानी प्रत्येक सिंचाई में देना चाहिए।

सिंचाई की विधि


गेहूँ में प्राय: पृष्ठीय सिंचाई की जाती है। इसके लिए निम्नलिखित विधियाँ अपनाई जाती है:

नकवार सिंचाई: इस विधि से सिंचाई करने के लिए खेतों की काफी लंबी व कम चौडी पट्टियों में बांट लिया जाता है। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जिनमें भूमि की ढाल प्राय: 1.0 प्रतिशत से कम हो तथा पानी का बहाव अधिक हो। यों नकवार सिंचाई के लिए आदर्श ढाल 0.2 से 0.3 प्रतिशत माना गया है। गेहूँ में पट्टियों की चौड़ाई 8 से 10 मीटर व लंबाई 50 से 200 मीटर तक हो सकती है।

क्यारियों में सिंचाई: इस विधि से सिंचाई के लिए खेत को छोटी-छोटी आयताकार क्यारियों में बांट लिया जाता है। प्रत्येक क्यारी नाली से जुड़ी होती है। भूमि का ढाल 1.0 प्रतिशत से अधिक तथा पानी का बहाव कम होने पर इसका प्रयोग होता है।

अन्य स्रोतों से:




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बाहरी कड़ियाँ:
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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia):




संदर्भ:
http://agropedia.iitk.ac.in