गहराई से समझने होंगे नए प्रतिपूरक वन कानून के मायने

2 Sep 2016
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बीते महीने एक महत्त्वपूर्ण कानून संसद के दोनों सदनों में पारित होकर कानून की शक्ल में आ गया है। चिन्ता जताई जा रही है कि बिना किसी बहस-मुबाहिसे या मीडिया की सुर्खियों में आये चुपचाप आया यह कानून हमारे पूर्ववर्ती वन कानूनों (औपनिवेशिक जंगल कानूनों) का ही तो विस्तार नहीं है। दूसरे कहीं यह वनवासियों को हकालने और बेशकीमती जंगलों को उद्योगों और कारपोरेट को देने की मंशा से तो नहीं है।

पिछले वन कानूनों से इतर एक नया कानून देश में बिना किसी बड़ी बहस या चर्चा के बन चुका है। इसकी बड़ी बात है इसकी अस्पष्टता। अपनी इसी अस्पष्टता की वजह से इसके पूर्वानुमान का आकलन भी फिलहाल ठीक ढंग से नहीं किया जा पा रहा है, फिर भी इतना तो है कि जिस हड़बड़ी में यह जो कानून बनाया गया है, वह कई तरह के गम्भीर सवाल खड़े करता है।

कहा जा रहा है कि इससे देश में तेजी से वन रकबा बढ़ेगा। इसके लिये बजट की भी कोई दिक्कत नहीं है, कानून बनने से पहले ही इसका भारी-भरकम बजट सरकार के पास रखा है लेकिन इसे अमल करने में ही इसकी सफलता भी अन्तर्निहित है। यदि इसे अकेले सरकारी विभागों के जिम्में ही किया गया (फिलहाल जैसा लग रहा है), तो राशि खर्च तो हो जाएगी लेकिन जंगल कितना बढ़ेगा। यह सब जानते हैं।

बीते महीने एक महत्त्वपूर्ण कानून संसद के दोनों सदनों में पारित होकर कानून की शक्ल में आ गया है। चिन्ता जताई जा रही है कि बिना किसी बहस-मुबाहिसे या मीडिया की सुर्खियों में आये चुपचाप आया यह कानून हमारे पूर्ववर्ती वन कानूनों (औपनिवेशिक जंगल कानूनों) का ही तो विस्तार नहीं है। दूसरे कहीं यह वनवासियों को हकालने और बेशकीमती जंगलों को उद्योगों और कारपोरेट को देने की मंशा से तो नहीं है।

पर्यावरणविद इस पर तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं लेकिन सरकार की तरफ से अब तक इसका रोडमैप या कोई फ्रेमवर्क निकल कर नहीं आ सका है। यही चिन्ता की मूल वजह है।

30 जुलाई 16 को राज्यसभा में पारित होने से पहले लोकसभा इसे पारित कर चुकी है। इसके सम्भावित खतरों से रूबरू होने से पहले इस नए वन कानून प्रतिपूरक वनीकरण विधेयक 2015 को समझना होगा।

1980 का वन संरक्षण अधिनियम केन्द्र सरकार को यह अधिकार देता है कि देश में कहीं भी वन क्षेत्र में गैर वनीकरण कामों के लिये अनुमति दे या नहीं। इसके तहत केन्द्र सरकार अनुमति देने के लिये काम करने वाली एजेंसी से सम्बन्धित वनभूमि क्षेत्र की फिलहाल कीमत का तथा अनुपातिक रूप से उतनी ही किसी अन्य भूमि पर पौधरोपण के लिये राशि जमा कराना जरूरी है।

इससे 2006 से अब तक निजी और अन्य संस्थाओं ने वन क्षेत्र में काम के बदले मिली राशि से सरकार के पास 41 हजार करोड़ रुपए यानी करीब 6.2 अरब डालर इकट्ठा हो चुका है। इसके पीछे मूल भावना है कि उजड़े वन की प्रतिपूर्ति हो सके। उतना ही वन रकबा फिर से तैयार हो सके। उधर 2006 का वन कानून पहली बार जंगलों में और उसके आसपास रहने वाले लोगों के पारम्परिक अधिकारों को लागू करता है। लेकिन ताजा कानून में इन लोगों के पारम्परिक अधिकारों के बारे में फिलहाल कुछ भी स्पष्ट नहीं है।

बीते अनुभवों से साफ है कि जहाँ जंगलों के विकास में स्थानीय आदिवासी समुदायों या वनों के आसपास रहने वाले अन्य समाज के लोगों का सहयोग या सहभागिता से काम किया गया है, वहाँ काम ज्यादा अच्छी तरह से और सार्थक परिणाम देने वाले हुए हैं। अकेले सरकारी महकमें के जिम्मेदारी में काम नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसमें ग्राम पंचायतों की भी भूमिका स्पष्ट नहीं है।

यह सवाल भी उठाना लाजमी है कि क्या नए कानून से हरित क्षेत्र बढ़ सकेगा तो ताजे कानून में केन्द्र सरकार की मंशा उपलब्ध 41 हजार करोड़ रुपए की लागत से देश के हालिया वनक्षेत्र भूमि 21.34 फीसदी को बढ़ाकर 33 फीसदी तक करना है। इस राशि के उपयोग के लिये सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र को अधिकरण बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन नए प्रावधानों में फिलहाल तो यह काम वन विभाग अमले के पास ही फिर से जाता नजर आ रहा है।

सरकारी ढर्रे में कैसे काम किया जाता है, सब जानते हैं। ऐसे में करीब साढ़े 11 फीसदी वनभूमि बढ़ाना काफी बड़ी चुनौती है। यदि ऐसा हो सका तो भारत कार्बन उत्सर्जन को कम कर 2.5 अरब टन करने का लक्ष्य भी हासिल हो सकेगा।

इस कानून पर बात करना इसलिये भी जरूरी है कि इस भारी-भरकम राशि के सदुपयोग तथा इससे किये गए कामों की गुणवत्ता परखने के लिये एक पारदर्शी निगरानी तंत्र की जरूरत है। सिर्फ वन अमले के सुपुर्द करने से काम नहीं चलेगा। इस कानून के जरिए हमें वन और उनसे जुड़े तमाम मुद्दों पर भी विचार करने और कई मायनों में इसे बेहतर बनाए जाने की जरूरत है। यह पर्यावरणीय हित के साथ भ्रष्टाचार हटाने और जंगलों से वन अमले की स्थानीय आदिवासियों और अन्य लोगों के साथ कथित ज्यादतियों को रोकने के लिये भी जरूरी है।

इस तरह के कानून बना देने से स्थितियाँ नहीं बदलतीं इसके लिये स्थानीय स्तर पर जनभागीदारी भी जरूरी होती है। इसके बिना वानिकी जैसे काम की सफलता में सन्देह है।

प्रतिपूरक वानिकी का अर्थ ही है जितनी वन भूमि दी गई है, उसी के बराबर गैर वानिकी जमीन पर नए जंगलों का विकास। नए कानून में सिर्फ सरकार कैसे वैकल्पिक जमीन पर जंगल खड़े कर सकती है, जबकि इसमें वनों में रहने वाले स्थानीय लोगों की सहभागिता भी कहीं रेखांकित नहीं की गई है।

जबकि वे सदियों से इन जंगलों के वास्तविक निवासी और सच्चे अर्थों में इसके रखवाले भी हैं। साथ ही जन सहभागिता नहीं होने से अधिकारियों पर सामाजिक अंकेक्षण और स्थानीय पर्यावरण की समझ के साथ किन पौधों का रोपण वहाँ की स्थितियों के हिसाब से उपयुक्त होंगे, इसका पता भी नहीं चल सकेगा। यहाँ तक कि इससे पंचायतीराज भी नजरअन्दाज हो जाएगा।

हालांकि पर्यावरण के जानकार इसे लेकर कई तरह की आशंका जता रहे हैं। पर्यावरण के जानकार मानते हैं कि इस कानून में स्पष्टता नहीं होने से इसकी सफलता में सन्देह है। पर्यावरण कानून पर बनी एक उच्च स्तरीय समिति ने पाया है कि 1951 से 2014 के बीच वन कवर की गुणवत्ता कम हुई है और इसकी वजहों में से एक है प्रतिपूरक वनीकरण वृक्षारोपण की खराब गुणवत्ता।

आँकड़े बताते हैं कि 1980 से पर्यावरण मंत्रालय ने वन भूमि की 12.9 लाख हेक्टेयर जमीन को अन्य कार्यों के लिये डायवर्जन की मंजूरी दी। जबकि 2013 की कैग (भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक) रिपोर्ट बताती है कि मंत्रालय वैकल्पिक जमीन पर वन खड़ा करने में असफल रहा है। 1,03,381.91 हेक्टेयर गैर वानिकी जमीन के बदले 2006 से 12 तक 6 सालों मे मात्र 27 फीसदी 28,086 हेक्टेयर जमीन ही सरकार ने उपलब्ध कराई है। इसमें भी महज 7,280.84 हेक्टेयर में ही जंगलों का विकास किया जा सका है।

इसमें यह भी स्पष्ट नहीं है कि सरकार यह जमीन कहाँ से उपलब्ध कराएगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि लोगों से उनकी जमीनें छीनकर उन्हें इससे दूर किया जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। अब तक के जो उदाहरण हैं, वे नाकाफी ही रहे हैं। जिस तादाद में वनों का नुकसान किया गया है, उसकी भरपाई सिर्फ कागजों तक ही सीमित है।

इसलिये जमीन पर इस कानून के उतरने के पहले इस पर व्यापक बहस होना चाहिए और इसकी आशंकाओं का समुचित निदान किया जाना जरूरी है ताकि आदिवासियों और उनके जंगल महफूज रह सकें।

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