ग्लोबल वार्मिंग और लापरवाह वैश्विक रवैया

12 Mar 2011
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अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के एक दल ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि सभी क्षेत्रों खासकर तटीय शहरों, खेतों, जलीय इलाकों और समूचे पर्यावरण तंत्र पर वैश्विक तापमान वृद्धि का प्रभाव पड़ेगा। वर्ष 2060 तक तापमान की यह वृद्धि 4 डिग्री सेल्सियस तक हो सकती है। इससे खाद्य संकट बढ़ जाएगा और तटीय इलाकों को भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ेगा। कुछ इलाके डूब भी जाएंगे। धरती के गरमाने से एशिया के समुद्र तटीय देशों के सामने अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। नेचर जियोसाइंस के ताजा अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हिंद महासागर का तट स्तर पहले की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ रहा है।

सागरीय तट स्तर में सामान्यत: एक साल में तीन मिलीमीटर तक की बढ़ोतरी होती है, लेकिन हिंद महासागर का तट स्तर इससे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों ने 1960 से लेकर अब तक के आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करने और कंप्यूटराइज्ड मॉडल पर इसे परखने के बाद यह निष्कर्ष निकाला। हिंद महासागर पृथ्वी का तीसरा बड़ा जल भाग है, जो पृथ्वी की कुल 20 फीसदी जल राशि को अपने में समाए हुए है। अन्य महासागरों की तुलना में इसके तट स्तर में तेजी से वृद्धि की दो मुख्य वजहें बताई गई हैं। इसके अंडाकार क्षेत्र को जलराशि के स्तर में वृद्धि का एक स्वाभाविक कारण माना जा रहा है, जबकि ग्रीन हाउस गैसों के कारण बढऩे वाले तापमान को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, ग्रीन हाउस गैसों के कारण इस महानगरीय पुल के तापमान में पिछले 50 साल के मुकाबले 0.5 डिग्री सेल्सियस यानी 1 डिग्री फेरनहाइट का इजाफा दर्ज किया गया है।

सागरीय जल के तापमान में वृद्धि से वायुमंडलीय धाराओं पर सीधा असर पड़ता है, जो महासागर के तट स्तर को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी है। रिपोर्ट में स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि हिंद महासागर से घिरे भूखंड पर इसके तट स्तर में वृद्धि के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है। इंडोनेशिया, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे निचले इलाके बेहद प्रभावित हो सकते हैं। यही नहीं, इन क्षेत्रों में मानसून पर भी विपरीत असर पडऩे की आशंका जताई जा रही है। मौसम में बदलाव के कारण इस क्षेत्र को आने वाले समय में भीषण बाढ़ और सूखे जैसे हालातों का सामना करना पड़ सकता है। ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से पृथ्वी के दोनों ध्रुवों और पर्वत मालाओं पर बिछी हिम चादर तेजी से पिघलने लगी है। पर्वतों पर जमी यह बर्फ सूर्य किरणों को वापस अंतरिक्ष भेजकर हमारी पृथ्वी को ठंडा रखती है। कई किलोमीटर मोटी और लाखों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली इस हिम चादर के पिघलने से महासागरों के जल स्तर का कई फिट ऊंचा उठ जाने का अर्थ होगा दुनिया की आधी से अधिक आबादी को शरण देने वाले तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा पैदा हो जाना।

उत्तरी ध्रुव के पास आर्कटिक क्षेत्र के हिमचादर की मोटाई साठ दशक के मुकाबले 40 फीसदी कम हो चुकी है। धरती के गरमाने से ग्रीनलैंड के पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगी है। ग्रीनलैंड जैकोबशॉन इस्ब्रे ग्लेशियर का सात वर्ग किलोमीटर का हिस्सा 6 और 7 जुलाई के बीच रातोंरात टूट गया। इसके टूटने से जितनी बर्फ का नुकसान हुआ, वह न्यूयार्क के मैनहट्टन द्वीप के आठवें हिस्से के बराबर थी। नासा के अनुसार इस ग्लेशियर को उत्तरी गोलार्द्ध के समुद्रीय जल स्तर में वृद्धि का विशेष कारण माना जाता है। इस बर्फीले टापू के टूटने की घटना से फिलहाल कोई संकट अभी नहीं दिखाई दे रहा है, लेकिन जब हम इसमें भयावह भविष्य का चेहरा देखते हैं तो प्रलय की आंशका से मन कांप उठता है। समुद्र का जल स्तर सात मीटर तक बढ़ सकता है। इससे ग्रीनलैंड सहित दुनिया के कई देश और द्वीप जलमग्न हो जाएंगे।

पृथ्वी की कुल बर्फ का 91 प्रतिशत हिस्सा अपने पास रखने वाला अंटार्कटिक हिम क्षेत्र पिछले पांच सालों में 3,000 वर्ग किलोमीटर सिकुड़ गया है। धुर्वों से दूर महासागरों में भी तैरते विराट हिमखंड पतले होकर टूट रहे हैं। अंटार्कटिका के अलावा भी ग्लोबल वार्मिग के खतरे प्रकट हो रहे हैं। किलिमंजारों पर्वत की बर्फीली चोटियों का 90 सालों में 75 प्रतिशत पिघलना और गंगोत्री ग्लेशियर का आठ मीटर पीछे खिसकना इसी बात के लक्षण हैं। वर्ष 1972 के बाद से बेनेजुएला स्थित छह हिमनदियों में चार का गायब हो जाना कोई मामूली घटना नहीं है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। पहले यह तापमान 15.20 डिग्री सेंटीग्रेड था और अब यह 15.32 डिग्री सेंटीग्रेड है। अनुमान लगाया गया है कि हर वर्ष में 0.3 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ा है। अब यह वृद्धि 0.3 से 0.7 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो सकती है। इस हिसाब से अगले 40 वर्षो में पृथ्वी का तापमान 2.7 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा। तापमान की इस वृद्धि से दुनिया के अधिकांश हिस्से तबाह हो जाएंगे। कुल मिलाकर सामूहिक प्रयासों से ही इस खतरे पर नियंत्रण संभव है।

भारत, बांग्लादेश सहित एशिया के सात देशों के सामने जलवायु परिवर्तन का खतरा पैदा हो गया है। राष्ट्रसंघ से जुड़े वैज्ञानिकों ने दुनिया को चेताया है कि ग्लोबल वार्मिग की मौजूदा रफ्तार इक्कीसवीं सदी के आखिर में हमें प्रलय के नजारे दिखा सकती है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार बाइसवीं सदी के शुरू होने तक हमारी पृथ्वी के तापमान में लगभग छह डिग्री वृद्धि हो जाएगी और उससे प्राकृतिक संतुलन इस कदर बिगड़ जाएगा कि उसे सुधारना असंभव हो जाएगा। धरती के गरमाने और उसकी जलवायु में परिवर्तन के ही कारण आज अफ्रीका महाद्वीप का एक बहुत बड़ा भाग अकाल की चपेट में है। भारत के राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में समुद्र के तटवर्ती नगरों में आई भीषण बाढ़ बदलते मौसम का कहर है।

सूरत सहित दक्षिणी गुजरात ने ऐसी भीषण बाढ़ कभी देखी नहीं थी। भारत और बांग्लादेश के समुद्र तटीय क्षेत्रों में समुद्री तूफान आने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षो से ही शुरू हो चुका है। अब इसमें अधिक तेजी से वृद्धि हो रही है। इससे भारत के भी कई समुद्रतटीय नगरों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। सूरत में आई विनाशकारी बाढ़ इस खतरे की चेतावनी है कि हमारे दूसरे समुद्र तटीय नगर भी खतरे में हैं। मुंबई भी भारी वर्षा का कहर पिछले दो सालों से झेल रही है। आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र सुरक्षित नहीं हैं।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2030 तक भारत में गर्मियों में 1 डिग्री सेंटीग्रेड और सर्दियों में 3.4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की वृद्धि हो सकती है। तापमान में सबसे अधिक वृद्धि उत्तरी भारत में होने की आशंका है। समुद्र तटीय तापमान में विशेष वृद्धि नहीं होगी। तापमान बढऩे से पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल के तटवर्ती क्षेत्रों के समुद्र के तल में वृद्धि होगी। इससे समुद्र का खारा पानी जमीन में घुस जाएगा और उन स्थानों पर की मिट्टी अनुपजाऊ हो जाएगी और बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। भारत के उत्तर पूर्व और दक्षिणी प्रायद्वीप में गर्मियों में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होगी। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में मानसून की वर्षा में कमी आएगी। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जहां तक भारत का सवाल है तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जलवायु परिवर्तन से निपटने की आठ सूत्रीय कार्य योजना की घोषणा पहले ही कर चुके हैं। इस योजना के तहत ऊर्जा की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए अक्षय स्रोतों का उपयोग किया जाएगा। अमेरिका के साथ उसके परमाणु करार का जलवायु परिवर्तन से गहरा ताल्लुक है। परमाणु ऊर्जा के प्रदूषण रहित होने के कारण भारत ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
 

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