गंगा-दशहरा

बाप ने बहल बनावाई थी
सैलानी सैर हेतु
(बैलगाड़ी भूसा-खाद-
लकड़ी ढोने में व्यस्त)
रंग-बिरंगी सुतलियों से
बिनी खटोलिया के
चारों ओर टनटनातीं
रशना-सी घंटियाँ,
बैलों की मरोड़ पूँछ
टिटकार करते ही
अंग-अंग लहराते
दचकों के दोला में।
बीघापुर स्टेशन से
उसी में बिठाकर तुम्हें
विदा करा लाया था।
माँ ने हर्षाश्रुओं से
परछन-बौछारों बीच
छिपटाया छोह-भरे
सलमा-सितारों में
आवृत कलानिधि को।
गृह-मग-आँगन में
उतरीं जब गुड़िया-सी
चाँदनी भी तुम्हें छूकर
छिटकी थी एक बार
पिछली दहलीज तक
पैठ गई थी लकीर
कुंकुमी शरारों की।
गंगा-दशहरा से
पूर्णिमा तक
उमड़ पड़ा था मेला
नवब्याही साधों का,
रथों में बिठाकर
भगा ले जाने की
क्वाँरी रोमांचकता
सार्थक-सी लगती थी।
सौ-सौ प्रदर्शनियों से
कहीं अधिक मोहक था
मेला महाबीरन का,
भीरन-अभीरन में
बरगद के पत्तों में
पुए औ’ बताशे बाँध
झूल-झूल रहटों में
फूल बन जाती थीं
गंध की सवारियाँ।
दौड़ बैलगाड़ियों की
खेतों को फलाँगती,
बल्लियों उछालतीं,
कलोलें नए बछड़ों की
दूरागत घंटियों की
घनघनाहट
खन खन खन
धूल के बवंडरों में
सरमग उभारतीं,
झाऊ-झुरमुटों के पार
धार गंगा की स्फटिक शुभ्र
सैकत विस्तारों को
समुल्लसित कर जाती।
हर हर गंगे, हर हर
गंगे की धुन अजस्त्र
तरबूजों-खरबूजों
ककड़ी के खेतों में
जलतरंग-सी बजती।
हम दोनों गाँठ बाँध
पैठ जैते धारा में
धसकते कगारों से
तलवे गुदगुदा उठते
जल में चिर अंतर्हित
विद्युत तरंगों की
सनसनी-सी दौड़ जाती
रगों में कुछ गरम-गरम
बहता प्रतीत होता
चंदन औ’ चोवा से तिलक काढ़
गंगावासी, फट्टे पर ढेरियाता
नाजों की किसमों को।
लय्या के लड्डू औ’
गुड़ में पगी मोमफली
पेड़ों और बरफियों को
होड़ में हराती-सी,
पिपिहरी बजातीं,
सरकंडों की फिरकनी ले
गली-गली चहचहाती
पंछियों की टोलियाँ,
संध्या को थके-माँदे
लौटते जब घर अपने
पौढ़ जाते धरती पर
ओढ़ लेते आसमान
झिलमिल-सी चकाचौंध
नक्षत्री चादर की
चारों ओर छा जाती
भास्वर हो उठती
सलज्ज
बेकलसी विभावरी।

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