गंगा का आखिरी गर्जन ?

31 Jan 2010
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विशाल बांध, दरकते पहाड़ और ढहते गांव. भारत की सबसे ताकतवर और उतनी ही पूजनीय नदी गंगा को उसके उद्गम के पास ही बांधकर उसे मानवनिर्मित सुरंगों में भेजा जा रहा है. क्या ऐसा करके महाविनाश को तो दावत नहीं दी जा रही? तुषा मित्तल की रिपोर्ट.

बरसात के मौसम में रात के वक्त भागीरथी घाटी में घुप्प अंधेरा नजर आता है. इसमें सुनाई देती है हिमालय की ढलानों से टकराने वाली तूफानी हवा और घनघोर बारिश के थपेड़ों की आवाज. और ऐसे में अगर आप भागीरथी के किनारे बसी किसी जगह पर हों तो नदी की भयानक गर्जना हर दूसरी आवाज को बौना कर देती है.

मगर दिन निकलने के साथ दृश्य भी बदलने लगता है और आवाजें भी. पहाडों को खोखला करती ड्रिलिंग मशीनों की कर्कश ध्वनि, पीले हेलमेट, कंक्रीट, खोखली सुरंगों में सांय-सांय बहती हवा और ऐसा बहुत कुछ जो बताता है कि यहां मनुष्य प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई लड़ रहा है. नदियों को बांधने की वो लड़ाई जिसका मकसद देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा करना है.

भारत में 4,500 बड़े बांध हैं. हाल-फिलहाल तक उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच इनमें से सिर्फ एक यानी मनेरी भाली-1 हुआ करता था. मगर अब 125 किलोमीटर लंबे इस इलाके में पांच बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण अलग-अलग चरणों में है. अगर सब कुछ निर्धारित योजना के मुताबिक चला तो भागीरथी यानी गंगा को अपना वो रास्ता छोड़ना होगा जिस पर वह युगों-युगों से बहती आ रही है. 125 किलोमीटर की इस दूरी में उसे अधिकांश जगहों पर सुरंगों से होकर बहना होगा. गंगा के बारे में कहा जाता है कि वो मुक्तिदायनी है मगर विडंबना देखिए कि वही गंगा अपने ही जन्मस्थल में कैद होकर रह जाएगी.

भागीरथी घाटी में जो हो रहा है उसे अच्छी तरह से समझने के लिए आपको अपनी यात्रा विवादास्पद टिहरी बांध से शुरू करनी होगी जिससे जुलाई 2006 में विद्युत उत्पादन शुरू हुआ था. बांध से बनी झील की लंबाई करीब 60 किलोमीटर है और इसका पानी नीला और जड़ नजर आता है. गंगा की वह पुरानी जीवंतता फिर से वहीं पर नजर आती है जहां ये झील खत्म होती है. मगर यहां भी गंगा की जिंदगी थोड़े ही दिन की मेहमान है.

टिहरी से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धरासू नाम की जगह मनेरी भाली जलविद्युत परियोजना का द्वितीय चरण है. यहां जनवरी 2008 से विद्युत उत्पादन शुरू हो चुका है. चूंकि 304 मेगावॉट बिजली बनाने के लिए पानी का टरबाइन पर एक निश्चित ऊंचाई से गिरना जरूरी है इसलिए इस ऊंचाई को हासिल करने के लिए गंगा को 24 किलोमीटर लंबी एक सुरंग से होकर गुजारा जाता है जो उत्तरकाशी से शुरू होती है. यानी 24 किलोमीटर की इस लंबाई में नदी का अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है.

इस क्षेत्र में परियोजनाएं कुछ इसी तर्ज पर बन रही हैं. एक परियोजना की पूंछ जहां पर खत्म होती है वहां से दूसरी परियोजना का मुंह शुरू हो जाता है. यानी नदी एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि जब ये सारी परियोजनाएं पूरी हों जाएंगी तो इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही होगी.

ये बात अलग है कि मनेरी भाली द्वितीय चरण वर्तमान में अपनी निर्धारित क्षमता से काफी कम यानी सिर्फ 102 मेगावॉट बिजली का ही उत्पादन कर रहा है. ये भी गौरतलब है कि इस इलाके में स्थित तीनों बांध—टिहरी और मनेरी प्रथम और द्वितीय—कभी भी अपनी निर्धारित क्षमता के बराबर विद्युत उत्पादन नहीं कर पाए हैं. दिलचस्प है कि सभी जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी ही इस आधार पर दी गई थी 90 प्रतिशत मौकों पर वे अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से बिजली का उत्पादन करेंगे मगर दिल्ली स्थित एक गैरसरकारी संगठन साउथ एशियन नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (एसएएनडीआरपी) के द्वारा जुटाए गए आंकड़े एक अलग ही तस्वीर पेश करते हैं. संगठन ने अपने अध्ययन में जिन 208 बांधों के आंकड़े जुटाए उनमें से 89 फीसदी निर्धारित क्षमता से कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं. 49 फीसदी में तो कुल क्षमता की आधी से भी कम बिजली बन रही है.

एसएएनडीआरपी के संस्थापक हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “इससे पता चलता है कि बड़ी संख्या में अव्यावहारिक परियोजनाओं को मंजूरी दी जा रही है. हमें वास्तविक कीमत और वास्तविक लाभों का एक वास्तविक अध्ययन करने की जरूरत है. ये सुनिश्चित करने के लिए कोई भरोसेमंद तंत्र मौजूद नहीं है कि केवल न्यायसंगत परियोजनाओं को ही मंजूरी मिले.”

धरासू से उत्तरकाशी तक के सफर में नदी आपके साथ चलती है. बारिश के मौसम की वजह से आजकल इसमें काफी पानी है मगर स्थानीय लोगों के मुताबिक सर्दियों में ये पानी की एक पतली लकीर सरीखी नजर आती है क्योंकि तब अधिकांश पानी सुरंगों में चला जाता है. इस दौरान नदी को आसानी से पैदल ही पार किया जा सकता है.

भागीरथी घाटी में जो हो रहा है उसके महत्व को समझने के लिए आपको इस नदी की विशालता, इसकी पारिस्थिकी और इस पर निर्भर मानव जीवन के साथ हो रही छेड़छाड़ को समझना जरूरी है.

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 और उभयचरों की 90 प्रजातियों को आश्रय देती है. इसमें पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें पाई जाने वाली पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. इसके किनारों पर पाई जाने वाली वनस्पति और जंतुओं की इसके पोषण और जल संरक्षण में अहम भूमिका है और ये भूक्षरण को भी नियंत्रण में रखते हैं. गंगा के बेसिन में बसने वाले करीब 45 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इसपर निर्भर हैं.

पर्यावरणविद कहते हैं कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी. ये जलविद्युत परियोजनाएं नदी के रास्ते का बुनियादी स्वरूप भी बदल देती हैं जिससे पानी में जैविक बदलाव आ जाते हैं. उदाहरण के लिए मनेरी भाली प्रथम चरण के लिए जहां से पानी जलाशय में दाखिल होता है वहां पर इसके नमूने बताते हैं कि गुणवत्ता के हिसाब से इसे साफ कहा जा सकता है. मगर जलाशय के आखिर में पानी के नमूने बताते हैं कि ये बुरी तरह से प्रदूषित है. केंद्रीय औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पिछले साल मई में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि भागीरथी में पारे का स्तर भी बढ़ रहा है.

लेकिन ये तो संकट का सिर्फ छोटा सा हिस्सा है. नोबेल पुरस्कार जीतने वाले इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक गंगोत्री ग्लेशियर के आकार में 80 फीसदी तक की कमी आ जाएगी जिससे गंगा, सदानीरा से एक मौसमी नदी में तब्दील हो जाएगी. इसका मतलब है कि सिर्फ 20 साल में इतना पानी ही नहीं बचेगा कि इन बांधों की टरबाइंस चलाई जा सकें.

इसके बावजूद सरकार इन विशाल परियोजनाओं पर अड़ी हुई है. जब तहलका ने पानी की उपलब्धता और व्यावहारिकता से संबंधित डाटा के बारे में केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष ए के बजाज से जानकारी मांगी तो उनका जवाब था, “गंगा जल से संबंधित डाटा गोपनीय है.”

भागीरथी को सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग छह साल पहले तभी से कर रहे हैं जब इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी. मगर इस विरोध को राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां तब मिलीं जब जाने-माने पर्यावरणविद और आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल ने इसके विरोध में उत्तरकाशी में अनिश्चतकालीन भूखहड़ताल की घोषणा की. पर्यावरण की गहरी समझ रखने वाले अग्रवाल ने इन परियोजनाओं को मातृहत्या जैसा बताया. लोग और साधु-संत उनके समर्थन में उमड़ पड़े और नतीजा ये हुआ कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी दो परियोजनाओं को अस्थाई रूप से रोकने पर सहमत हो गए.

बाद में अग्रवाल दिल्ली आ गए और लोहारीनाग पाला में एनटीपीसी की 600 मेगावॉट की परियोजना के विरोध में उनकी भूख हड़ताल जारी रही. कुछ दिन पहले उन्होंने अपना अनशन तब तोड़ा जब ऊर्जा मंत्रालय ने उन्हें आश्वासन दिया कि गंगा के अविरल प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी.

मगर मुद्दा अभी सुलझने से काफी दूर है. तहलका से बात करते हुए केंद्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे कहते हैं, “हमने फैसला किया है कि पानी का बहाव अविरल रहना चाहिए. मगर परियोजनाएं भी चलनी चाहिए. तकनीकी रूप से हमें ऐसा करने का रास्ता खोजना होगा. इसलिए हमने तीन महीने का समय मांगा है. एक कमेटी बनाई जा रही है. भागीरथी के साथ भारत के लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं. मैं लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहता. यही वजह है कि हम कोई रास्ता खोजने के लिए सहमत हो गए हैं.”

मगर ये केवल भावनाओं की बात नहीं है और रास्ता खोजना आसान नहीं होगा. शिंदे कहते हैं कि 600 मेगावॉट की परियोजना को पूरी तरह से रद्द नहीं किया जा सकता और विशेषज्ञ कमेटी के साथ निर्माण कार्य भी जारी रहेगा. वे कहते हैं, “2000 करोड़ रुपये की अग्रिम मंजूरी हो चुकी है. अब आप इसे रोकने के लिए कह रहे हैं. जब छह साल पहले ये परियोजनाएं शुरू हुई थीं तो मैं मंत्री नहीं था. जब भाजपा ने इनका शिलान्यास किया था. तब तो किसी ने इनका विरोध नहीं किया.”

विडंबना ये भी है कि भारत में बड़े बांधों की योजनाओं को उस दौर में आगे बढ़ाया जा रहा है जब दुनिया भर में बड़े बांधों को हटाया जा रहा है. अकेले अमेरिका में ही 654 बांध खत्म किए जा चुके हैं और 58 दूसरे बांधों के साथ भी ऐसा ही किया जाना है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें इसलिए हटाया जा रहा है ताकि सामन मछलियों के निवास को बहाल किया जा सके. गौरतलब है कि सामन मछलियां प्रजनन के लिए समुद्र से नदी के उद्गम की तरफ जाती हैं. बांध उनके इस सफर को रोककर उनकी प्रजाति को संकट में डालते हैं. दरअसल देखा जाए तो सामन मछलियों की घटती संख्या अमेरिका में कई ऐतिहासिक अदालती फैसलों का कारण बनी है. इनमें से सबसे प्रभावशाली उदाहरण है एलव्हा और ग्लाइंस कैन्यन बांध को खत्म किया जाना जो देश के सबसे ऊंचे बांधों में से एक था. इसे हटाने में 10 करोड़ डालर खर्च हुए.

अमेरिकन रिवर्स नामक एक गैरसरकारी संगठन से जुड़ीं एमी कोबर कहती हैं, “इन बड़े बांधों को हटाया जाना इस बात का सूचक है कि अपनी नदियों को लेकर देश के नजरिये में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. इस मुल्क को ये अहसास हो गया है कि एक स्वस्थ, अविरल नदी एक समुदाय के लिए सबसे कीमती संपत्तियों में से एक हो सकती है.”

मगर भारत का ऊर्जा मंत्रालय इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है. सवाल ये है कि आखिर जब सारी दुनिया में बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन हो रहा है तो भारत में इन पर अब भी क्यों जोर दिया जा रहा है? शिंदे से पूछिए और जवाब आता है, “भारत में 30 हजार मेगावॉट बिजली की कमी है. हम इतनी बिजली कहां से लाएंगे? चीन को देखिए. उनके थ्री गॉर्जेज डैम को देखिए. जब चीन ये कर रहा है तो हम क्यों नहीं कर सकते? टिहरी में 1000 मेगावॉट की परियोजना के लिए हमें इतनी आलोचना झेलनी पड़ी. अगर आप बिजली चाहते हैं तो आपको कुछ न कुछ बलिदान तो करना ही होगा.”

दरअसल देखा जाए तो टिहरी इसका एक सटीक उदाहरण है कि अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को लेकर भारत की समझ में कितना धुंधलापन है. भारत में किसी भी बांध परियोजना का इसके पूरा होने के बाद मूल्यांकन नहीं किया गया है. टिहरी दुनिया का आठवां सबसे ऊंचा बांध है. मार्च 2008 तक बांध पर कुल 8,298 करोड़ रुपये खर्च हो चुके थे जो उस अनुमानित लागत से कहीं ज्यादा है जो परियोजना के प्रारंभ में तय की गई थी. इसकी प्रस्तावित विद्युत उत्पादन क्षमता 2,400 मेगावॉट थी मगर वर्तमान में यह केवल 1000 मेगावॉट बिजली का उत्पादन कर रहा है. यानी क्षमता के आधे से भी कम.

भागीरथी घाटी में घट रही इस त्रासदी का एक मानवीय पहलू भी है. उसे समझने के लिए आपको प्रेम दत्त जुयाल जैसे किसी व्यक्ति से मिलना होगा. जुयाल के पास धुंधले पड़ते जा रहे कागजों का एक गट्ठर है. ये वो दस्तावेज हैं जिन्हें वे तब से इकट्ठा कर रहे हैं जब से उनके घर के नीचे की जमीन धंसनी शुरू हुई. जुयाल जलवाल गांव के निवासी हैं जो उस जगह से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है जहां कभी पुराना टिहरी शहर हुआ करता था. जलवाल और इसके आसपास के गांवों को पुनर्वास योजना का हिस्सा इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि ये टिहरी झील के 840 मीटर ऊंचाई के स्तर से ऊपर स्थित थे. पिछले साल से उनके खेत दरक रहे हैं और गांववालों की जान लगातार हो रहे भूस्खलन से खतरे में है. ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि टिहरी झील का पानी लगातार उस बुनियाद को कमजोर कर रहा है जिस पर ये गांव बसा है. इससे भी बड़ी त्रासदी ये है कि जिस बाजार में ये लोग अपनी सब्जियां बेचते थे और जिन स्कूलों में इनके बच्चे पढ़ने जाते थे, वे सब झील में दफन हो गए हैं. नये टिहरी शहर जाने के लिए इन्हें 250 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. यानी इनकी जिंदगी पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गई है. मगर उनके पुनर्वास की मांग पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है.

भारतीय लोक प्रशासन संस्थान द्वारा 54 बांधों पर कराया गया एक विस्तृत अध्ययन बताता है कि एक बड़े बांध से विस्थापित होने वाले लोगों की औसत संख्या 44,182 है. भारत में 4,500 बड़े बांध हैं. अगर माना जाए कि एक बांध से कम से कम 10,000 लोग भी विस्थापित होते हैं तो इसका मतलब ये है कि बड़े बांधों के कारण अब तक करीब साढ़े चार करोड़ लोगों को अपनी जड़ों से उखड़ना पड़ा है. उत्तरकाशी के नजदीक बसे जोशियाड़ा और कनसैण नामक गांवों के लोगों को भी अब ये अहसास होने लगा है कि उनकी नियति भी कुछ ऐसी ही होने वाली है.

जोशियाड़ा में मुख्य सड़क पर बद्री सेमवाल अपना हार्डवेयर की दुकान चलाते हैं. दुकान की ऊपरी मंजिल पर ही उनका निवास भी है. उनकी छत से साफ देखा जा सकता है कि मनेरी भाली द्वितीय चरण की झील का पानी धीरे-धीरे उनके घर को निगलने बढ़ा आ रहा है. सेमवाल कहते हैं, “टरबाइन चलाने के बाद ही अचानक उन्हें अहसास हुआ कि हम भी डूब क्षेत्र में आ रहे हैं. अब वे कहीं पहाड़ में हमारे पुनर्वास की बात कर रहे हैं. मगर वहां दुकान कैसे चलेगी. मैं जिंदगी कैसे चलाऊंगा?” जोशियाड़ा के दूसरे परिवारों की भी यही व्यथा है.

उत्तरकाशी से मनेरी भाली प्रथम चरण के लिए जाते हुए हमारी मुलाकात अतर सिंह पंवार से होती है. फैशनेबल जींस और टी शर्ट पहने इस व्यक्ति को देखकर कहीं से भी नहीं लगता कि उसके 38 साल पहाड़ में ही गुजरे हैं. पंवार के हाथ में कुरकुरे का पैकेट और बिसलेरी की बोतल है और वे किसी शहरी बाशिंदे जैसे ही लगते हैं. उन्होंने हाल ही में एनटीपीसी में अनुबंध पर मजदूरी शुरू की है. कभी वे पशु चराते थे और आलू व राजमा की खेती करते थे. वे कहते हैं, “मैं तब कहीं ज्यादा खुश था जब मेरे पास अपनी जमीन थी. तब मैं आजाद था. अब मुआवजे में भले ही लाखों रूपये मिल गए हों मगर जल्द ही ये खत्म हो जाएंगे. पैसा तो आता है और चला जाता है. जमीन हमेशा आपके पास रहती है.”

थोड़ा और आगे चलने पर हम पाला गांव पहुंचते हैं जहां विनाश की शुरुआत हो चुकी है. एक किलोमीटर दूर ही पाला-मनेरी सुरंग की खुदाई की जा रही है. यहां के घरों में दरारें पड़नी शुरू हो गई हैं. पानी के स्रोत सूख रहे हैं क्योंकि सुरंग के मलबे ने प्राकृतिक झरनों का रास्ता रोक दिया है.

अतर सिंह पंवार को कोई ऐसी शक्ति एक शहरी व्यक्ति के रूप में बदल रही है जिस पर उनका बस नहीं चल रहा. अपने जैसे सैकड़ों लोगों की तरह वे शहरी नहीं बनना चाहते. वे गंगा को अविरल बहते देखना चाहते हैं. ठीक वैसे ही जैसे उनकी पीढ़ियां सदियों से देखती आई हैं.

मगर उनके लिए ऊर्जा मंत्रालय का जवाब है कि उत्तरी ग्रिड को और भी ज्यादा बिजली चाहिए. भले ही उनके जैसे लोगों को आसानी से पीने का पानी तक न मिले मगर शहरों के शापिंग मॉल्स का दिन-रात रोशनी में नहाना जरूरी है.

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