गंगा का निश्चल प्रवाह और वेदना अथाह

22 Jun 2014
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संध्या की इस मलिन सेज पर
गंगे! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू
अपने मन की मृदुल उमंग?
उमड़ रही आकुल अंतर में
कैसी यह वेदना अथाह?
किस पीड़ा के गहन भार से
निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?

वैसे तो ये पंक्तियां राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 1931 में अपनी किताब 'पाटलिपुत्र की गंगा' में लिखी थीं, पर इसके शब्द-शब्द करीब एक सदी बाद भी अक्षरश: सही साबित हो रहे हैं। इस कविता के अंश में उभरा दर्द आज भी कराह-कराह कर सामने आ रहा है। यह ऐसी हकीकत बयां कर रहा है, जो कभी राजकपूर की फिल्म के गाने 'राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते-धोते' को न केवल चरितार्थ कर रहा है, बल्कि यह भी बता रहा है कि पाप धोने के साथ-साथ हमने गंगा को अपवित्र करने की कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। गंगा तो पाप धोने के लिए उतरी ही थी। भगीरथ ने गंगा को अपने पुरखों को तारने और उनके पाप धोने के लिए ही उतारा था। युगों से गंगा हमारा पाप धोती आ रही है। पर 19वीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुए गंगा को अपवित्र करने के तौर-तरीकों और शहरीकरण ने 20वीं सदी में वह सीमा लांघी, जिसके चलते कहा जाने लगा कि पापियों का पाप धोने वाली गंगा का पानी अब कई जगहों पर आचमन लायक भी नहीं बचा है।

गंगा सिर्फ देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। 2071 किमी तक भारत और उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को उपजाऊ मैदान बना देती है। क्या ये सारी परिभाषाएं गंगा का व्याख्यान कर देती हैं? क्या गंगा का नाम लेते ही आपको ये आंकड़े याद आते हैं? नहीं तो आपको क्या याद आता है? गंगा भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी है। एक ऐसी नदी, जो भारत और बांग्लादेश को मिलाकर 2510 किमी की दूरी तय करती हुई उत्तराखंड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। यह नदी सिर्फ देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। 2071 किमी तक भारत और उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को उपजाऊ मैदान बना देती है। क्या ये सारी परिभाषाएं गंगा का व्याख्यान कर देती हैं? क्या गंगा का नाम लेते ही आपको ये आंकड़े याद आते हैं? नहीं तो आपको क्या याद आता है? भारत की राष्ट्र-नदी गंगा केवल जल ही नहीं, अपितु भारत और हिंदी साहित्य व अध्यात्म की मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है।

ऋग्वेद, महाभारत, रामायण व अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पापनाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा और महानदी कहा गया है। यानी एक ऐसी नदी, जो जीवनदायनी तो है ही, मोक्षदायनी भी है। संस्कृत कवि जगन्नाथ राय ने गंगा की स्तुति में श्रीगंगालहरी नामक काव्य की रचना की है। हिंदी के आदि महाकाव्य पृथ्वीराज रासो और वीसलदेव रास यानी नरपति नाल्ह में गंगा का उल्लेख है। आदिकाल के सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रंथ जगनिक रचित 'आल्हखंड' में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख है। कवि ने प्रयागराज की इस त्रिवेणी को पापनाशक बतलाया है। महाकवि विद्यापति, कबीर वाणी और जायसी के पद्मावत में भी गंगा का उल्लेख है। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकांड में 'श्री गंगा माहात्म्य' का वर्णन तीन छंदों में किया है, जिनमें गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन और गंगा तट पर बसने का महत्व वर्णित है। कवि रसखान और रहीम ने भी गंगा प्रवाह व प्रभाव का सुंदर वर्णन किया है। आधुनिक काल के कवियों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, सुमित्रानंदन पंत और श्रीधर पाठक आदि ने भी यत्र-तत्र गंगा का वर्णन किया है।

यानी दुनिया में कोई ऐसी नदी नहीं, जो दैहिक-दैविक-भौतिक और आध्यात्मिक स्तर पर इतनी श्रद्धेय हो। एक ऐसी नदी, जिसका उल्लेख देश-विदेश के हर बड़े विद्वान, राजनेता या स्टेट्समैन ने किया हो। यानी जीवन से भरी और मोक्ष की नैया गंगा है। पर हम गंगा को क्या दे रहे हैं। दो करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा। जी हां, यही आंकड़ा है, जो प्रतिदिन गिर रहे कचरे के पैमाने को दर्शाता है। कहते हैं कि सभ्यता वहीं बसती है, जहां से नदी बहती है। जिन वीरान जगहों को गंगा ने गांव-गांव से शहर और शहर से औद्योगिक हब बनाया, उन्हीं गंगा के तट पर घने बसे औद्योगिक नगरों ने गंगा को प्रदूषित कर दिया।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के ताजा नतीजे बताते हैं कि गंगा किनारे रहने वाले लोगों में अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर अधिक होता है, क्योंकि अपशिष्ट से आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य भारी धातु सरीखे जहरीले तत्व गंगा जल में घुल-मिल जाते हैं। गंगा के किनारे रहने वाले लोगों में पित्ताशय का कैंसर सबसे अधिक देखने को मिला है। यही वजह है कि भारत दुनिया में पित्ताशय के कैंसर वाला दूसरा देश है। गंगा किनारे रहने वाले लोगों में त्वचा रोग भी अधिक पाया जाता है।

गंगा नदी विश्वभर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती रही है। लंबे समय से प्रचलित इसकी शुद्धीकरण की मान्यता का वैज्ञानिक आधार भी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देते हैंऔद्योगिक विष विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट बताती है कि गंगा के पानी में जहरीले जीन वाला ई-काइल बैक्टीरिया मिला है, जो मानव मल और जानवर मल को नदी में बहा देने की वजह से उत्पन्न होता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऋषिकेश से पश्चिम बंगाल तक 23 जगहों से गंगा के पानी के नमूने लिए। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसमें से कहीं का भी गंगाजल पीने योग्य यानी प्रथम श्रेणी का नहीं पाया गया। ऋषिकेश का भी पानी केवल नहाने लायक था। हरिद्वार तक पहुंचते-पहुंचते यह तीसरे दर्जे का हो गया था। बक्सर, पटना, मुंगेर और भागलपुर में भी गंगाजल का मानदंड यही था। बनारस, कानपुर और इलाहाबाद का गंगाजल केवल जानवरों के पीने लायक बचा था। यह घोर चिंतनीय है कि गंगाजल न स्नान के योग्य रहा, न पीने के योग्य रहा और न ही सिंचाई के योग्य।

औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे के बहुतायत ने गंगाजल को बेहद प्रदूषित किया है। गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए घड़ियालों की मदद ली जा रही है। शहर की गंदगी को साफ करने के लिए संयंत्रों लगाए जा रहे हैं और उद्योगों के कचरा इसमें गिरने से रोकने के लिए कानून बने हैं। लेकिन यह सब सिर्फ कागजी है। धरातल पर ऐसी सारी योजनाएं या तो दम तोड़ चुकी हैं या फिर उन योजनाओं को संचालित करने के लिए जरूरी अवस्थापन सुविधाएं, मसलन बिजली आदि नहीं हैं।

गंगाजल के प्रदूषित होने की चिंताओं के पीछे गंगा नदी को राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित कर दिया गया है। वैसे तो नवंबर, 2008 में भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी और इलाहाबाद व हल्दिया के बीच 1600 किलोमीटर गंगा जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया। बहरहाल, गंगा के हालात का बयान करने के लिए मैं देश के ईसाई मिशनरी के अलेक्जेंडर डफ के बयान की मदद लूंगा। अंग्रेजी शासन काल में 18वीं सदी में भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए आए डफ ने कहा था- आई विल ले माय बोन्स बाई दि गैंगेज दैट इंडिया माइट नो दियर इज वन हू केयर्स। यानी इस गंगा की अविरलता और महत्व को ईसाई मिशनरी ने तो समझ लिया, हमने नहीं समझा। सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट की निदेशक सुनीता नारायण खुलासा करती हैं, 'उत्तराखंड में करीब 558 हाइड्रो इलेक्टिक पावर परियोजनाएं पाइप लाइन में हैं, जो भागीरथी को 80 फीसदी और अलकनंदा को 65 फीसदी प्रभावित करेंगी।'

कुछ साल पहले आई कैग की रिपोर्ट भी बताती है, 'यदि उत्तराखंड सरकार निर्माणाधीन 53 पावर प्लांटों को प्रश्रय देती रही तो देव प्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा के जल के संगम से जो गंगा बनती है, उसके लिए पानी उपलब्ध ही नहीं हो सकेगा। गढ़वाल के श्रीनगर के पास एक जगह पर अलकनंदा की जलधारा सूख गई है।' रिपोर्ट यह भी बताती है कि उत्तराखंड सरकार की 2006 की पावर नीति व जल नीति पावर प्लांट लगाने वालों को इस बात की छूट देती है कि वे इस पानी का 90 फीसदी हिस्सा टरबाइन के लिए रोक सकते हैं। जबकि विश्व भर में ऐसे काम के लिए 75 फीसदी हिस्सा रोकने का ही प्रावधान है।

अविरल बहती गंगा जलाशयों में कैद करने के चलते इसके पानी की गुणवत्ता में गिरावट आती है। ठहरे हुए पानी में बीमारियां फैलती हैं। ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इससे मछलियों व अन्य जलजीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चट्टानी घर्षण से तांबा, क्रोमियम और थोरियम के सूक्ष्म कण गंगा के अमृत जल में घुल जाते हैं। गंगा के प्राकृतिक बहाव को रोक देने से चट्टानों और पत्थरों का घर्षण रुक गया है, इससे उसका पानी लाभकारी तत्वों से वंचित हो गया है। पर मीडिया में इस तरह की खबरें साया नहीं हुईं। यदि कभी मीडिया ने इस तरह की खबरों को तरजीह भी दी तभी, जब मछलियां मरकर सतह पर आ गईं।

गंगा नदी विश्वभर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती रही है। लंबे समय से प्रचलित इसकी शुद्धीकरण की मान्यता का वैज्ञानिक आधार भी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देते हैं। हालांकि नदी के जल में ऑक्सीजन की मात्रा को बनाए रखने की असाधारण क्षमता है। किंतु इसका कारण अभी तक अज्ञात है। गंगा के जल के कारण हैजा और पेचिश जैसी बीमारियां होने का खतरा बहुत ही कम हो जाता है। नतीजतन, बड़े स्तर पर महामारी के खतरे की आशंकाएं भी खत्म हो जाती हैं। लेकिन अब वैज्ञानिक जांच के अनुसार गंगा का बायोलॉजिकल ऑक्सीजन स्तर तीन डिग्री के सामान्य से बढ़कर छह डिग्री हो चुका है। याद रखना चाहिए कि गंगा के पराभव का अर्थ होगा हमारी समूची सभ्यता का अंत।

इसके लिए सिर्फ वही लोग जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने गंगा में अपने पाप धोए, बल्कि वे लोग भी जिम्मेदार हैं, जो शहरीकरण का कचरा और मल गंगा और शहरों से गुजरने वाली नदी में गिरा रहे हैं। हम मीडिया के लोग भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि हम इस तरह की खबरों को तभी तरजीह देते हैं, जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है। मसलन, जब गंगा या किसी नदी के आसपास बसे शहर में कोई उद्योग लगाता है तो हम इस तरह की खबरें नहीं देते कि आखिर इस उद्योग का कचरा कहां और किस तरह डाला जा रहा है। गंगा के किनारे बसे शहरों का कचरा युगों से गंगा की पवित्र धारा को अपवित्र कर रहा है। पर खबरें तब प्रकाशित होनी शुरू हुई, जब 20वीं सदी के उत्तरार्ध में प्रदूषण का पानी सिर से ऊपर निकल गया।

आजतक आपने खबरें सुनी-पढ़ी और देखी होगी कि गंगा प्रदूषित है। गंगा की सफाई के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा प्रदूषण का स्तर जस का तस बना हुआ है। आपने यह खबर कभी नहीं सुनी होगी कि गंगा के कोर्स में बिल्डरों का कब्जा है। यह कभी नहीं सुना होगा कि गंगा या किसी भी नदी के बदलते पथक्रम में हो रहे बदलाव से तबाही आ सकती है। मीडिया की यह भूमिका भी आपने कभी नहीं देखी होगी कि वह आम लोगों को जागरूक करे कि वे गंगा या किसी नदी में पॉलीथिन या कचरा न डालें। डालने से पहले यह सोच लें कि इस छोटी-सी गलती की कितनी बड़ी सजा मिल सकती है। इसी तरह विकास के नाम पर गंगा की अविरलता को रोकने वाले बांधों की सच्चाई की खोजपूर्ण रिपोर्ट मीडिया पेश नहीं करता है। कोई मीडिया इस बात को नहीं उठाता कि विकास के नाम पर हम नदियों को रोककर अपना कितना नुकसान कर रहे हैं। उत्तराखंड में गंगा को बांधकर जब पनबिजली बनाई जा रही थी, तब हम मीडिया के लोग इन खबरों को उत्तराखंड के आत्मनिर्भर और विकसित होने की चकाचौंध भरी खबर के तौर पर पेश कर रहे थे। खबर तो तभी बनती है कि जब केदारनाथ जैसी त्रासदी हो जाती है।

गंगा बेसिन में जब बसपा सुप्रीमो मायावती ने नोएडा से लेकर बलिया तक गंगा एक्सप्रेस-वे के निर्माण का एलान किया था, तब हम उत्तर प्रदेश के विकास का ढिंढोरा पीटते हुए यह बता रहे थे कि यह दूरी कितने कम घंटे में तय की जा सकती है। हम गाड़ियों की बढ़ती रफ्तार की खबरें लिखकर इतरा रहे थे। नदियों के किनारे उद्योग लगते हैं तो हम विकास को लेकर खबरें लिखने लगते हैं। यह नहीं लिखते हैं कि उस उद्योग में क्या और कितना नुकसान होगा।

हम लोग छोटे थे तो नदी में सिक्का डालने का चलन था। मैं बड़ा हुआ, तब भी तमाम लोगों को सिक्का डालते देखता हूं। हमने इस पर बहुत सोचा और पाया कि पहले नदी में जो सिक्का डाला जाता था, वह तांबे का होता था। तांबा पानी को शुद्ध करता है, लेकिन अब गिलट का सिक्का होता है। पर आजतक कहीं भी किसी भी मीडिया से मैंने यह जानकारी नहीं पाई कि वह लोगों को इस दिशा में जागरूक करने के लिए पहल करता हो। (लेखक न्यूज एक्सप्रेस के यूपी-उत्तराखंड के चैनल हेड हैं। संपर्कः Email: mishrayogesh5@gmail.com)

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