गंगा में सुपरबग

Superbugs in ganga
Superbugs in ganga

भारत की प्रमुख नदी गंगा प्रदूषण से पीड़ित है, लेकिन अब उस पर घातक ‘सुपरबग’ का खतरा भी बढ़ गया है। यह चिंता का विषय है। गंगा के किनारे बसे हरिद्वार, ऋषिकेश सहित तमाम तीर्थस्थलों पर स्नान के लिए जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। भारतीय अनुसंधानकर्ताओं समेत वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि गंगा नदी में एंटीबॉयोटिक रोधी सुपरबग हैं। गंगा में पनप रही इस घातक सुपरबग का सबसे ज्यादा असर नदी के किनारे बसे शहरों पर पड़ा रहा है। गंगा किनारे बसे शहरों में वार्षिक उत्सवों के दौरान इन बैक्टीरिया का स्तर 60 गुना तक बढ़ जाता है।

यह शोध ऐसे ही नहीं हुआ बल्कि लंदन स्थित न्यूकैसल यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन और दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के विशेषज्ञों ने हिमालय के मैदानी क्षेत्रों में ऊपरी गंगा नदी के किनारे बसे सात स्थानों से पानी और तलछट के नमूने लिए। उन्होंने देखा कि मई, जून में जब हजारों तीर्थयात्री हरिद्वार और ऋषिकेश जाते हैं, तो ‘सुपरबग’ को बढ़ावा देने वाले प्रतिरोधी जीन का स्तर साल के और महीनों से करीब 60 गुना बढ़ा पाया गया। महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों पर कचरा प्रबंधन को और दुरुस्त करके खतरनाक बैक्टीरिया को बढ़ाने वाले प्रतिरोधी जीन को फैलने से रोका जा सकता है। सरकारी स्तर पर कचरा प्रबंधन का क्या चल रहा है, सबको पता है।

हालांकि कुछ स्वयंसेवी संगठन जरूर इस पर पहल कर रहे हैं। यह पहल कितने साल में अपने अंजाम तक पहुंचेगी, यह देखने वाली बात है। अखिल विश्व गायत्री परिवार की ओर से गंगा नदी की स्वच्छता का अभियान चलाया जा रहा है। साथ ही यमुना, नर्मदा और गोमती नदी को निर्मल स्वच्छ बनाने के अभियान में करीब 15 साल लगेंगे। यानि अभी तो लंबी लड़ाई है, ऐसे में सुपरबग तब तक क्या गुल खिलाएगा, यह देखने वाली बात है। अभी तक गंगा सफाई के तमाम अभियान चले, लेकिन नतीजा सिफर रहा है। हरिद्वार में गंगा का पानी पीने के लायक नहीं है।

जल जीवन है, इसे समझने की जरूरत है। गंगाजल के लिए पौराणिक मान्यता है कि जीवन के अंतिम क्षण में गंगा जल उनके मुंह में डाला जाए, तो मोक्ष की प्राप्ती होती है, लेकिन हकीकत में गंगाजल अभी पीने लायक नहीं है। गंगाजल मुंह में डालने लायक बनाना होगा। गंगा के साथ यमुना, नर्मदा व गोमती नदी को निर्मल बनाया जाए। लोगों को जागरूक किया जाए। नदियों के तटों और तीर्थों पर पौधारोपण होना चाहिए। तीर्थयात्रा के दौरान लोगों को परिवार समेत पौधे लगाने चाहिए। उनकी देखभाल की व्यवस्था के लिए टीम का गठन होना चाहिए।

पर्यावरण के प्रति लापरवाही जल को जहर बना रही है, अन्धाधुंध रसायन नदियों में बहाया जा रहा है। इनको रोकने के कोई उपाए नहीं किए जा रहे हैं। मंदिरों पर भी प्रदूषण की स्थिति है। देश में सात लाख से अधिक मंदिर हैं, वहां पर जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। मंदिर के ट्रस्ट व समितियों से कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करना चाहिए। श्रद्धालुओं को समझाएं।

जो कृत्य पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए, उसे बंद करें। मसलन, मंदिर में अगरबत्ती जलाकर माचिस की डिब्बी नहीं फेंकना है, अन्यथा दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेने वाला ‘सुपरबग’ तीर्थस्थलों पर तेजी से फैलेगा और लोगों के हाथ में कुछ नहीं रह जाएगा, असहाय दिखेगा, जैसे उत्तराखंड त्रासदी के समय दिखा था।
 

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