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गंगा नदी (Ganga River in Hindi)



माँ गंगा को हिन्दू धर्म और संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। गंगा की घाटी में ऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ। इसी घाटी में रामायण और महाभारत कालीन युग का उद्भव और विलय हुआ। प्राचीन मगध महाजनपद का उद्भव गंगा घाटी में ही हुआ जहाँ से गणराज्यों की परंपरा विश्व में पहली बार प्रारंभ हुई। यहीं भारत का वह स्वर्ण युग विकसित हुआ जब मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं ने यहाँ शासन किया। गंगा उत्तरांचल में गंगोत्री से निकलकर उत्तर और पूर्वी भारत के विशाल भू-भाग को सींचती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। गंगा भारत की पवित्र नदियों में से एक है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है।

गंगा का आरम्भ अलकनन्दा व भागीरथी नदियों से होता है। गंगा की प्रधान शाखा भागीरथी है जो हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर भी है। गोमुख, गंगोत्री शहर से 19 कि.मी. उत्तर में है। भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के रुप में पहचानी जाती है। इस प्रकार 200 कि.मी. का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती है। हरिद्वार गंगा जी के अवतरण का पहला मैदानी तीर्थ स्थल है। वैदिक काल से हरिद्वार की महत्ता बनी हुई है। देवगण और मनुष्य गण अपने सांसारिक नियमों की शुद्धि के लिए तथा पितरों के तर्पण श्राद्ध के लिए हरिद्वार के हरि की पैड़ी घाट पर स्नान दान का पुण्य प्राप्त करके मोक्ष की कामना करते आए हैं। हरिद्वार का गंगा जल समस्त भारत के गंगा जल से शुद्ध और पवित्र माना गया है। हरिद्वार के बाद गंगाजी उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में पहुंचती है। गंगा किनारे बसा हुआ गढ़मुक्तेश्वर भी पवित्र तीर्थ स्थल है।

गढ़ मुक्तेश्वर का जिक्र भगवत पुराण और महाभारत में किया गया है। यह जगह हस्तिनापुर राज्य में आती थी और पांडवों ने यहां एक किला भी बनवाया था। इस जगह का नाम मुक्तेश्वर महादेव के मंदिर के नाम पर रखा गया है। यहां स्थित चार मंदिरों में मां गंगा की पूजा होती है। गढ़ मुक्तेश्वर के बाद गंगा कन्नौज पहुंचती है। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में चीनी यात्री फाहयान और राजा हर्षवर्धन के समय में ह्वेनसॉन्ग कन्नौज आए थे। कन्नौज से गंगा कानपुर पहुंचती है। माना जाता है कि भगवान राम के सीता को वनवास पर भेजने के बाद वह यहां स्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आकर रही थीं। यहीं उन्होंने लव और कुश को जन्म दिया और बाद में धरती में समा गईं। गंगा किनारे बसे इस शहर के निवासी हर साल होली के बाद गंगा मेला भी मनाते हैं, जो यहां का खास मेला है। कानपुर के बाद गंगा संगम के शहर इलाहाबाद पहुंचती हैं।

इलाहाबाद या तीर्थराज प्रयाग पवित्र तीर्थ स्थल है। यहां गंगा नदी में यमुना आकर मिलती है। प्राचीन समय में यहां सरस्वती भी इन दोनों नदियों में मिलती थी, लेकिन अब वह लुप्त हो गई है। प्रयाग में कुंभ के अवसर पर दूर-दूर से श्रद्धालु स्नान करने के लिए आते हैं। माना जाता है कि इसी शहर में भगवान ब्रह्मा ने वेदों की रचना की थी। संगम के निकट स्थित लेटे हुए हनुमान जी का मंदिर अपनी तरह का अनोखा मंदिर है। प्रयाग से गंगा धार्मिक महत्व रखने वाले शहर वाराणसी या काशी या बनारस पहुंचती हैं। काशी विश्व के सबसे प्राचीन शहरों में से एक है। इसे भारत की धार्मिक राजधानी भी कहा जाता है। माना जाता है कि इस शहर की स्थापना भगवान शिव ने की थी। ऐसे में इसका जिक्र तमाम धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। काशी विश्वनाथ का मंदिर पूरे देश में प्रसिद्ध है, जो देश भर में मौजूद बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसके दर्शन करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। इसके अलावा, यहां के दशाश्वमेध घाट और मणिकर्णिका घाट भी काफी प्रसिद्ध हैं। मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यह यहाँ उत्तरवाहिनी कहलाती है।

वाराणसी से मिर्जापुर, पाटलिपुत्र, भागलपुर होते हुए गंगा पाकुर पहुँचती है। भागलपुर में राजमहल की पहाड़ियों से यह दक्षिणवर्ती होती हैं। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है-भागीरथी और पद्मा। भागीरथी नदी गिरिया से दक्षिण की ओर बहने लगती है जबकि पद्मा नदी दक्षिण-पूर्व की ओर बहती फरक्का बैराज से छनते हुई बंगला देश में प्रवेश करती है। यहाँ से गंगा का डेल्टाई भाग शुरू हो जाता है। मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी नदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदी है। हुगली नदी कोलकाता, हावड़ा होते हुए सुंदरवन के भारतीय भाग में सागर से संगम करती है। पद्मा में ब्रह्मपुत्र से निकली शाखा नदी, जमुना नदी एवं मेघना नदी मिलती हैं। अंततः ये 350 कि.मी. चौड़े सुंदरवन डेल्टा में जाकर बंगाल की खाड़ी में सागर-संगम करती हैं। यहां गंगा और बंगाल की खाड़ी के संगम पर प्रसिद्ध तीर्थ गंगा-सागर-संगम हैं। यहां मकर संक्रांति पर बहुत बड़ा मेला लगता है। कहा जाता है सारे तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार। अपने जीवन में व्यक्ति एक बार अवश्य गंगा सागर की यात्रा की अभिलाषा रखता है।

गंगा जी के पृथ्वी पर आने की एक कथा प्रचलित है। कथा इस प्रकार है- भगवान राम के कुल में एक राजा हुए थे, सगर। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। भारतवर्ष के सारे राजा सगर को चक्रवर्ती मानते थे, पर देवों के राजा इंद्र इनसे ईर्ष्या करते थे। इन्द्र ने यज्ञ में छोड़े गए घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में चुपके से बांध दिया। जब घोड़ा वापस नहीं लौटा तो राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को घोड़े के बारे में पता लगाने के लिए भेजा। घोड़े को ढूँढ़ते हुए वें कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। उन्होंने देखा की ऋषि अपनी समाधि में लीन है और आश्रम में एक पेड़ से घोड़ा बंधा है। राजकुमारों ने सोचा की ऋषि ने घोड़ा चुरा कर यहाँ बांध रखा है। उन्होंने ऋषि को भला बुरा कहा और उनकी साधना को भंग कर दिया। ऋषि यह देखकर क्रोधित हुए। उनकी आंखों के तेज से सभी राजकुमार जलकर भस्म हो गए। जब राजकुमार काफी समय तक नहीं लौटे तो सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को उनका पता लगाने के लिए भेजा। अंशुमान कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचा तो वहां उसे बंधे हुए घोड़े के साथ राख की साठ हजार ढेरियाँ दिखाई पड़ीं। अंशुमान ने ऋषि को प्रणाम किया और ढेरियों के बारे में पूछा।

ऋषि ने कहा,“ये साठ हजार ढेरियां तुम्हारे चाचाओं की हैं”।
कपिल बोले, “बेटा, दुखी मत हो। महाप्रतापी राजा सगर से कहना कि आत्मा अमर है। देह के जल जाने से उसका कुछ नहीं बिगड़ता।”
अंशुमान ने कपिल के सामने सिर झुकाया और पूछा, “ऋषिवर! मेरे चाचाओं की अकाल मौत है। उनको शांति कैसे मिलेगी?”
कपिल बोले, “गंगाजी धरती पर आयें और उनका जल इन राख की ढेरियों को छुए तो तुम्हारे चाचा तर जायंगे। इसके लिए तुम्हें ब्रह्मा जी की तपस्या करनी होगी क्योंकि गंगाजी ब्रह्मा जी के कमण्डल में रहती हैं।”

अंशुमान ने ब्रह्मा जी की तपस्या के लिए कड़ा तप किया। तप में अपना शरीर घुला दिया। पर ब्रह्मा जी प्रसन्न नहीं हुए। अंशुमान के बेटे राजा दिलीप ने भी बड़ा भारी तप किया। ऐसा तप किया कि ऋषि और मुनि चकित हो गये। पर ब्रह्मा जी प्रसन्न नहीं हुए। दिलीप के बेटे थे भगीरथ। उन्होंने मन को चारों ओर से समेटा और तप में लगा दिया। तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और गंगाजी को पृथ्वी पर भेजने का वचन दे दिया। ब्रह्मा जी के मुंह से यह वचन निकले कि उनके कमंडल से गंगाजी बोली, “आप मुझे धरती पर क्यों भेजना चाहते हैं?”

ब्रह्मा ने बताया, “देवी, आप संसार का दु:ख दूर करने के लिए पैदा हुई हैं।”
गंगा बोलीं, “मैं धरती पर जाने को तैयार हूं। पर धरती पर मुझे संभालेगा कौन?”

इसके लिए भगीरथ ने शिव जी की तपस्या की जिससे भगवान शिव गंगा जी को पृथ्वी पर उतरते समय सँभालने के लिए मान गए। गंगा उतरीं तो आकाश में घनघोर शोर हुआ, ऐसा कि लाखों-करोड़ों बादल एक साथ आ गये हों, लाखों-करोड़ों तूफान एक साथ गरज उठे हों। उनकी कड़क से आसमान कांपने लगा। दिशाएं थरथराने लगी। पहाड़ हिलने लगे और धरती डगमगाने लगी। थोड़ी देर में धरती का हिलना बंद हो गया। कड़क शांत हो गई। भगीरथ ने भगवान शिव की जटाओं में गंगाजी के लहराने का सुर सुना। गंगाजी भोले बाबा की जटा में कैद हो गईं। भगीरथ ने भोले बाबा के आगे घुटने टेके और गंगाजी को छोड़ देने की प्रार्थना की! भोले बाबा ने हाथ से जटा को झटका दिया तो पानी की एक बूंद धरती पर गिर पड़ी। बूंद धरती पर शिलाओं के बीच गिरी और धारा बन गई। उसमें से कलकल का स्वर निकलने लगा। उसकी लहरें उमंग-उमंगकर किनारों को छूने लगीं। गंगा धरती पर आ गईं। भगीरथ ने जोर से कहा, “गंगामाई की जय!” तब से गंगा आकाश से हिमालय पर उतरती हैं। सत्रह सौ मील धरती सींचती हुई सागर में विश्राम करने चली जाती हैं। वह कभी थकती नहीं, अटकती नहीं। वह तारती हैं, उबारती हैं और भलाई करती हैं। यही उनका काम है। वह इसमें सदा लगी रहती हैं।

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