गंगा से

जननि, तुम्हारे तट पर ही जब भूखी ज्वाला
मुझे भस्मकर पी जावे धू-धूकर जननी
घने धुएँ से घिरी रुद्र-दृग-सी विकराला।

और प्राण लेकर मेरे, जब सुख से हँसती
मृत्यु चले चिर अंधलोक को विद्यु-गति से
छोड़, धरा पर मेरी दुनिया जननि बिलखती।

छोड़ मुझे जब अग्नि तुम्हारे पावन तट से
धूम्र लीन हो उड़ जावे, जगती के उर पर
मँडराते गिद्धों के वृहत् परों से सट के।

तब माँ, तुम अपनी जल की शय्या से उठकर
मेरी धूलि, चिता से अंचल में भर
शीतल करना मुझको अपने उर पर धरकर।

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