गंगे!

परिवर्तित काल-पटल पर अंकित करती अपना ज्योति-ज्वार।
‘गं-गं’ स्वर में जाने कब से उद्गीथ गा रही गंग-धार।।

अग-जग में प्राण-पुलक भरती, अहरह मुद मंगल-भरिता है।
कैसे कह दूँ, इस धरणी पर मातः, तू केवल सरिता है।।

तु उस लघु मानव की स्मृति जो वामन से कभी विराट् हुआ।
लघुता का अनु हो ब्रह्मांडित, देवों का भी अभिराट् हुआ।।

पाताल-लोक सेचल जो चिति, इंद्रायण तक अतिक्रांत हुई।
दानव प्रभुता को दे संयम,नव मर्यादा में कांत हुई।।

चरणों की वह अस्पर्श्य त्वरा, सब देव-प्रयास गतार्थ बने।
केवल नख-किरण मिली, जिसको पाकर विधि एक, सनाथ बने।।

थे ज्येष्ठ पुरातन-पुरुष, क-मंडल का जिनको अधिभार मिला।
वे सृष्टिकार थे, उन्हें प्रथम संस्वर्तन का अधिकार मिला।।

इसलिए, सहम तू सिमट गई थी विधि के कर्म-कमंडल में।
पिर तुझे धरा पर लाने को कुछ प्रश्न उठे थे भू-तल में।।

तू विष्णु-तत्व के नक्ष-नखों में सूक्ष्म-रूप मुस्काई थी।
तेरी सुमंगला मुह्य शक्ति देवों ने स्वयं छिपाई थी।।

मानव-पराक्रम-तपःसार जब स्वत्व-हेतु प्रस्फूर्त हुआ।
जंबूदीपे, भारत-खंडे तब एक भगीरत मूर्त्त हुआ।।

गत पुरुषों की गतियाँ-कृतियाँ जब भस्म बनी मुरझाई थीं।
तब एक वंशधर ने अपनी तप की बाँहें फैलाई थीं।।

बाँहें जो ऊपर उठीं और जिनमें प्लुत पौरुष जागा था।
भू-शाप-शमन के हेतु जिन्होंने गंगा का जल माँगा था।।

वह जल जो विष्णुपदी का रस, जो ब्रह्मांडिक ब्रह्मद्रव हो।
जो द्रव्य और प्रति-द्रव्य बीच संघर्षण का ऊर्जा-स्रव हो।।

जिसकी प्रकाश-रश्मियों-तले, क्षण-क्षण सर्जन हो विप्लव हो।जिससे शापों का भस्म धुले, जिससे जन-मंगल संभव हो।।

यह काव्यांश डॉ. क्षेम के ‘कृष्ण द्वैपायन’ नामक महाकाव्य के ‘गंगा’ सर्ग से है।

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