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ग्राम

ग्राम (गाँव), कहा जाता है पूर्व की सभ्यता गाँवों की है और पश्चिम की सभ्यता नगरों की। कारण यह है कि पूर्व की प्राचीन सभ्यताओं में ग्राम और ग्रामीण धंधों का प्राधान्य रहा है। पूर्वी देश जैसे भारत, पाकिस्तान, बर्मा, चीन, ईरान, मलय अभी भी गाँवों के देश कहे जाते हैं। इन देशों की प्राय: 80 प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है और वहाँ नगरों की उन्नति विशेषकर पिछले 200 वर्षो में ही हुई है।

मनुष्य जब वन्य जीवन से अलग हो सामुदायिक प्रयत्नों की ओर आकृष्ट हुआ तब उसने अपने अद्यावधि परस्पर विरोधी वनजीवन के प्रतिकूल सहअस्तित्व की दिशा में साथ बसने के जो उपक्रम किए उसी सामाजिक संगठन की पहली इकाई ग्राम बना। संसार में सर्वत्र इसी क्रिया के अनुरूप प्रयत्न हुए और जैसे जैसे सभ्यता की मंजिलें मनुष्य सर करता गया, आवागमन और यातायात के साधन अधिकाधिक और तीव्रतर होते गए, वैसे ही ग्रामों से नगरों की ओर भी प्रगति होती गई। जहाँ यह प्रगति तीव्रतर होते गए, वैसे ही वैसे ग्रामों से नगरों की ओर भी प्रगति होती गई। जहाँ यह प्रगति तीव्रतर थी वहाँ ग्रामों का उत्तरोत्तर ह्रास और नगरों का उत्कर्ष होता गया। भारत में उपर्युक्त साधनों के अभाव में गाँवों की ग्राम्यस्थिति अभी हाल तक प्राय: स्वतंत्र बनी रही है। इसी कारण वहाँ गाँव परमुखापेक्षी न होकर प्राय: स्वाबलंबी रहा है। उसका स्वावलंबन अनिवार्यत: स्वेच्छा से नहीं, ऊपर बताए कारणों के परिणामस्वरूप हुआ है। इस स्वावलंबन के परिणामस्वरूप अपनी निजी वृत्ति चलानेवाले बढ़ई, लोहार, नाई, कुम्हार आदि स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे। वैदिक काल में गाँव के बढ़ई अथवा रथकार का बड़ा महत्व था। ग्राम अधिकतर राजसत्ता के अधीन रहते हुए भी अपने आंतरिक शासन में प्राय: स्वतंत्र थे और जैसा दक्षिण के चोल, पांड्य आदि के सांवैधानिक अभिलेखों से प्रकट है, ग्रामों के मंदिरों, तालाबों, भूमि के क्रयविक्रय, खेतों की सिंचाई, सड़कों आदि के प्रबंध के लिये भिन्न भिन्न समितियाँ होती थीं। सर चार्ल्सं मेटकाफ ने भारतीय गाँव की स्वतंत्र व्यवस्था को बहुत सराहा है। परंतु आज के भारतीय गाँव दारिद्र्य, अज्ञान, अंधविश्वास, सामाजिक रूढ़ियों और बीमारियों के गढ़ बन गए हैं, फिर भी नगरों से यातायात के नए साधनों द्वारा संपर्क बढ़ने से उनमें असाधारण परिवर्तन हो चला है और भारतीय सरकार की निर्माण योजनाओं के प्रभाव से आशा की जाती है, उनमें उत्तरोत्तर प्रगतिशील परिवर्तन होते जायेंगे।

राजकीय जनगणना के लिये परिभाषा के रूप में भारत में उन नैवासिक इकाइयों को ग्राम मान लिया गया है जिनकी जनसंख्या 5,000 से कम है और जो किसी नगर के अंग (मुहल्ला, बाड़ा, पुरा) नहीं है। परंतु वैज्ञानिक रूप से निश्चितत: यह कहना कठिन है कि गाँव कब खत्म होते हैं और नगर कहाँ शुरू होते हैं। खेती, पशुपालन या हस्तउद्योग की सुविधा के कारण सौ पचास घर किसी जगह बस जाते हैं, बस गांव बन जाता है। धीरे धीरे यह गाँव उन्नति करता है, उसमें बिजली, पक्की सड़कें और इमारतें बनतीं तथा व्यापार बढ़ता है, और वह गाँव कस्बा बन जाता है। कस्बे में जब लोगों को आधुनिक सुविधा प्राप्त होने लगती हैं, तब ये कस्बे धीरे धीरे शहर बन जाते हैं। ऐसे ही प्राचीन काल के अनेक प्रसिद्ध नगर पतन होने के पश्चात्‌ आज केवल गाँवों के रूप में शेष हैं।

समाजवैज्ञानिक के लिये गाँव आदर्श कल्पनात्मक पैमाने का एक छोर है जिसका दूसरा छोर है महानगर। इन दोनों के बीच नगरीकरण के विभिन्न स्तर हैं, जैसे छोटे कस्बे, बड़े कस्बे, जिले का नगर, प्रांतीय राजधानी और केंद्रीय नगर।

गाँव की आबादी साधारणतया कम ही होती है। ग्रामीणजन मिट्टी या पत्थर या घास फूस के पुराने तरीके के मकान बनाकर परंपरागत रूप से रहते हैं। वे खेती करते हैं या खेती से संबंधित कुछ उद्योग धंधे। उनकी खेती अधिकतर अपने उपयोग के लिये होती है। केवल बचा खुचा माल वे मंडियों में बेच देते हैं, और प्राप्त धन से अपने दैनिक उपयोग की चीजें खरीद लेते हैं जो उनके गांव में नहीं बनतीं। गाँव में अक्सर बाजार नहीं होते, कई गाँवों के बीच एक बाजार होता है। गाँव का सामाजिक जीवन सीधा सादा होता है। लोगों के संबंध प्राथमिक होते हैं। समाज और समुदाय का लोगों के दैनिक जीवन में अधिक महत्व होता है, सब मिलकर काम करते हैं। एक साथ छुट्टी या त्योहार मनाते हैं। गाँव की समस्याओं का समाधान सब कोई मिलकर करने का प्रयत्न करते हैं। खुशी गमी में सब मिलकर काम करते हैं।

पश्चिम के, यूरोप, अमरीका आदि देशों में गाँव लकड़ी के घरों से बने होते हैं, एकमंजिला या दोमंजिला, एक दूसरे से दूर दूर, और यद्यपि वे वहाँ के नगरों की कई मंजिली अट्टालिकाओं से सर्वथा भिन्न होते हैं, हमारे गाँवों में नगरों की चहलपहल और गाड़ियों की भीड़ भाड़ तो नहीं होती पर अखबार, पुस्तकालय आदि सर्वत्र होते हैं, टेलीफोन आदि की सुविधाएँ भी गाँववालों को प्राप्त होती हैं। जायन आंदोनल के अनुकूल यूरोप के प्रवासी यहूदी जो अब इसरायल लौट रहे हैं, उनके लिये वहाँ नए नए गाँव के लकड़ी के बने मकानों और उनके चारो ओर खेत आदि बनकर तैयार हो रहे हैं। यदि गाँवों में नगर की ज्ञानवर्धिनी कुछ सुविधाएँ हो जायँ तो निस्संदेह उनकी स्वच्छ हवा का जीवन नगरों से बेहतर हो जाय।

समाजशस्त्रीय अध्ययन के लिये क्या गाँव को इकाई माना जा सकता है? इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों में काफी मतभेद है। कुछ का कहना है कि गाँव निश्चित रूप से इकाई है। उसकी अपनी सत्ता होती है। उसका अपना नाम होता है और ग्रामजन आपसी परिचय में अपने को अमुक गाँव का कहकर बतलाते हैं। दक्षिण भारत के कुछ प्रदेशों में तो व्यक्ति के नाम के साथ उसके गाँव का नाम भी जुड़ा होता है। विशेषकर पुराने गाँव के विषय में यह बात महत्वपूर्ण है। ग्रामजन अपने को ऐसे पुराने गाँव का सदस्य मानने में गर्व का अनुभव करते हैं। गाँव की सीमा पवित्र मानी जाती है और उसका अतिक्रमण करने का मतलब होता है गाँवों के बीच झगड़े। भारत में सर्वभौम सत्ता की स्थापना से पूर्व गाँव के लोग किलों में रहते थे और आपसी झगड़े कभी कभी भयानक युद्ध का रूप ले लेते थे।

गाँव की अपनी आर्थिक और राजनीतिक सत्ता भी है। प्रत्येक गाँव का समुदाय इस प्रकार संगठित होता है कि उसमें प्रधान अंश खेतिहरों का होता है, और शेष उन खेतिहरों को सुविधा पहुँचानेवाली जातियों का जैसे ब्राह्मण, लोहार, बढ़ई, कुम्हार, सुनार, नाई, भंगी, चमार, तेली, ढोली, आदि। इनका जीवन ग्राम के खेतिहरों के साथ संबंद्ध होता है और उनके देन लेन के संबंध परंपरा से निर्धारित होते हैं। व्यक्तिगत पसंद या नापसंदगी का अधिक महत्व नहीं होता इसी प्रकार राजनीतिक रूप से भी गाँव का अलग अस्तित्व होता है। उसकी भूमि अलग होती है, पंचायत और अधिकारी अलग होते हैं।

समाजिक संगठन और धर्म के क्षेत्र में गाँवों के आपसी संबंध प्रत्यक्ष और महत्वपूर्ण होते हैं। उत्तर भारत के अधिकतर गाँवों में गांव के बाहर विवाह करने की प्रथा है। गाँव के एक वर्ण के लोग आपस में एक दूसरे को रक्त संबंधी दायाद मानते हैं। धार्मिक विश्वास के मामले में भी गाँव में भेद पाए जाते हैं। उनके विश्वास और रीतियाँ उनके अपने ही होते हैं जो कभी कभी धर्मग्रंथों में वर्णित विश्वासों और रीतियों से बहुत अलग होते हैं। लोकजीवन सर्वत्र शास्त्रों की व्यवस्था से दूर चला जाया करता है।

यह सब होते हुए भी गाँव सभ्यता के अभिन्न अंग हैं। प्राचीन सभ्यताओं का निर्माण इसी आधार पर हुआ था कि गाँवों और जनपदों का अनोखापन भी मिटने न पाए, परंतु साथ ही ऊपरी तौर से वे मानवीय सभ्यता के रंग में रंग जाएँ। ग्रामीण या जनपद संस्कृति और नागरिक संस्कृति के बीच विश्वासों और रीतियों का आदान प्रदान होता रहा है।

अधिक आबादीवाले कृषिप्रधान देशों में यह तो संभव नहीं, किंतु गाँवों का रूप अवश्य ही बदलेगा। शिक्षा और राजनीतिक चेतना के साथ ग्रामीण जन भी उन सेवाओं और सुविधाओं को प्राप्त करने के इच्छुक हो रहे हैं जो अभी तक नगर के जीवन में ही प्राप्त थीं। सामाजिक विघटन रोकने के लिये और गाँव तथा नगर की सामाजिक दूरी को कम करने के लिये गाँवों को उन्नत करना आवश्यक है। जो सामुदायिक विकास योजना भारत के गाँवों में चालू की गई है, उसका यही महत्व है। (कृपा शंकर माथुर)

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