ग्रामीण विकास और स्वयंसेवी क्षेत्र

9 Nov 2015
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गाँवों के विकास में आज स्वयंसेवी क्षेत्र एक बहुत बड़े ‘सेक्टर’ के रूप में उभरकर सामने आया है और इसमें जनता की करोड़ों की पूँजी खपाई जा रही है। लेखक का कहना है कि यद्यपि यह सच है कि देश के विकास का सम्पूर्ण कार्य सरकार अकेले नहीं कर सकती एवं गैर-सरकारी क्षेत्र/स्वयंसेवी संगठनों की उसमें भागीदारी अनेक कारणों से अत्यन्त आवश्यक है तथापि आवश्यकता इस बात की है कि स्वयंसेवी संगठनों का चुनाव सही ढंग से किया जाए और ग्रामीण जनता को उनके कार्यों की जानकारी दी जाए ताकि गाँवों का समुचित विकास हो सके।

मध्य प्रदेश के विशाल बस्तर जिले का एक छोटा सा कस्बा है- नारायणपुर। कुछ समय पूर्व नारायणपुर जाकर आदिवासियों के बीच ‘रामकृष्ण मिशन’ द्वारा किये जा रहे कार्यों को देखने का मौका मिला। यहाँ रामकृष्ण मिशन का विशाल प्रांगण है जहाँ आदिवासियों के लिये आधुनिक सुविधाओं से युक्त एक अस्पताल, स्कूल, लड़के-लड़कियों के लिये छात्रावास, खेल के मैदान तथा कृषि फार्म है। इतना ही नहीं, नारायणपुर से ऊपर घने जंगलों में रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों के लिये रामकृष्ण मिशन ने ‘डैम’ बनाया है और उनके गाँवों में नारायणपुर के माॅडल पर छोटे स्कूलों, कृषि फार्मों तथा राशन की सस्ती दुकानों की भी व्यवस्था की गई है।

अखिल भारतीय स्तर के इस स्वयंसेवी संगठन ने नारायणपुर और उसके आस-पास के जंगलों, जिन्हें ‘अबूझमाड़’ के नाम से जाना जाता है, में रहने वाले आदिवासियों और उनके बच्चों के लिये अकेले जितना काम किया है वह आश्चर्य-चकित करने वाला है। यद्यपि इस अंचल का कायापलट करने के लिये रामकृष्ण मिशन को बड़ी मात्रा में सरकार से ही अनुदान मिला है लेकिन स्वयं अधिकारियों का कहना है कि सरकारी तन्त्र अकेले दो-ढाई दशक में उतना नहीं कर पाया जितना रामकृष्ण मिशन ने पाँच वर्षों में ही कर दिखाया।

मध्य प्रदेश में ही एक अन्य ग्रामीण अंचल है- रायसेन। एक दिन के लिये रायसेन स्थित ‘रूरल डेवलपमेंट सर्विस सोसाइटी’ नामक स्वयंसेवी संस्था को देखने का अवसर मिला। यह ईसाई मिशनरियों की संस्था है जहाँ सवेरे-सवेरे छात्रावास के आदिवासी बच्चों को प्रार्थना करके हँसते-खिलखिलाते स्कूल जाते देखा, तो लड़कियों और महिलाओं को बाटिक का काम करते हुये पाया। ये सभी लड़कियाँ और महिलाएँ आदिवासी गरीब परिवारों की थीं और संस्था के प्रयासों से धीरे-धीरे आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रही थीं। संस्था आस-पास के गाँवों में कामकाजी गरीब औरतों के बच्चों के लिये पालनघर भी चला रही है।

ऐसे ही दृश्य छोटे-बड़े स्तर पर समय-समय पर देश के अनेक आदिवासी और सुदूर ग्रामीण अंचलों में देखने को मिले हैं। शिलांग से चेरापूँजी जाते हुये एक छोटे से पहाड़ी गाँव में खद्दर के वस्त्र पहने ‘कस्तूरबा गाँधी नेशनल मैमोरियल ट्रस्ट’ की एक विनम्र कार्यकर्मी छोटे-छोटे बच्चों का पालनघर चलाती नजर आई तो उड़ीसा में भुवनेश्वर से पुरी की ओर जाते हुये सड़क किनारे के गाँवों में छोटी-छोटी स्वयंसेवी संस्थाएँ गरीब ग्रामीण लड़कियों के बीच शिक्षा का प्रसार करती दिखाई दीं। सुदूर तमिलनाडु में गाँधीग्राम विश्वविद्यालय और विवेकानन्द ट्रस्ट अपने स्तर पर नवनिर्माण के कामों में लगे हैं तो देश के विभिन्न भागों में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन और भारतीय ग्रामीण महिला संघ जैसी पुरानी संस्थाओं की शाखाएँ कार्यरत हैं।

विभिन्न मन्त्रालयों, विभागों और स्वायत्त संगठनों के माध्यम से केन्द्र और राज्य सरकारें साल-दर-साल करोड़ों रुपया गैर-सरकारी क्षेत्र यानी स्वयंसेवी क्षेत्र को दे रही हैं। देश के विकास का सम्पूर्ण कार्य कर पाना अकेले सरकार के बस की बात नहीं है। सरकार करना भी चाहे तो कर नहीं सकती। कारण है लाल फीताशाही और बेतहाशा खर्च। लालफीताशाही की वजह से निर्णय लेने में देरी होती है और जो निर्णय ले लिये जाते हैं, वे भी कई बार आधे-अधूरे से होते हैं। फिर जो भी काम सरकार स्वयं करती है उसके लिये पैसा बहुत अधिक खर्च होता है और वह भी विकास और प्रगति के कार्यों पर नहीं बल्कि सरकारी अमले के वेतन भत्तों पर। इसके अलावा यदि सरकार के अधिकारी और कर्मचारी अकेले कार्य करते हैं तो ग्रामीण जनता का उनके प्रति लगाव नहीं हो पाता। वे ज्यादातर बाहर से आये हुये लोग होते हैं। इसके विपरीत स्वयंसेवी संगठन आम लोगों के बीच से होते हैं, वे जमीन से जुड़े होते हैं, ग्रामीणों की उनमें भागीदारी होती है, उनके खर्चे कम होते हैं, उनमें लालफीताशाही वाली रुकावटें नहीं होतीं और उनके काम भी समय पर पूरे होते हैं।

ग्रामीण भारत की अनेक समस्याएँ हैं। एक ओर ग्रामीण समाज कुरीतियों और कुप्रथाओं की जकड़ में है तो दूसरी ओर बड़े पैमाने पर गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, खेती के लिये अपर्याप्त पानी, बीज, खाद आदि की समस्या से घिरा है। ऐसा नहीं है कि शहरों में गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता आदि नहीं हैं लेकिन चूँकि आज भी देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गाँवों में ही रहती है, इसलिये ये समस्याएँ ग्रामीण क्षेत्र में अधिक विकराल रूप में मौजूद हैं। आज भी देश की 35 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गरीबी-रेखा से नीचे है और कहना न होगा कि 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी के गाँवों में रहने के कारण गरीबी-रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या भी स्वाभाविक रूप से गाँवों में ही अधिक है।

सरकार ने समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, इन्दिरा महिला योजना, ग्रामीण युवाओं के लिये रोजगार गारंटी कार्यक्रम आदि अनेक कार्यक्रम चलाये हैं। बाल विकास को ध्यान में रखते हुये समेकित बाल विकास योजना लागू की जा रही है। पर्यावरण सुधार, छोटे-छोटे बाँधों के निर्माण साक्षरता प्रसार आदि के लिये भी अनेक कार्यक्रम चलाए गये हैं। इनमें से अनेक कार्यक्रम सरकारी क्षेत्र के साथ-साथ गैर सरकारी क्षेत्र की भागीदारी से भी चलाये जा रहे हैं। कई कार्यक्रमों की शुरुआत पूरे तौर पर सरकारी मशीनरी के माध्यम से ही की गई थी लेकिन अब धीरे-धीरे इन कार्यक्रमों में गैर-सरकारी क्षेत्र को भी भागीदार बनाया जा रहा है। उदाहरण के लिये समेकित बाल विकास योजना (आई.सी.डी.एस.) जिसे पहले केन्द्र सरकार द्वारा क्रियान्वयन के लिये राज्य सरकारों को सौंपा गया था, अब अनेक स्वयंसेवी संगठनों को भी सौंप दी गई है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आज स्वयंसेवी क्षेत्र एक बहुत बड़े ‘सेक्टर’ के रूप में उभरा है जिसमें जनता की करोड़ों की पूँजी खपा दी गई है और साल दर साल खपाई जा रही है। इसके बावजूद ग्रामीण अंचल की हालत में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। इसके कई कारण हैं और सबसे बड़ा एवं प्रमुख कारण है ‘जनसंख्या विस्फोट’ जो हमारी समस्त प्रगति और विकास के प्रयासों को निरर्थक बना देता है। लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयंसेवी क्षेत्र से जिस मिशनरी भावना के साथ गाँवों में काम करने की आशा की जाती थी, उसका परिचय इस क्षेत्र ने पूरी शिद्दत के साथ नहीं दिया है। रामकृष्ण मिशन और रूरल डेवलपमेंट सर्विस सोसाइटी जैसे कितने स्वयंसेवी संगठन हैं जो सचमुच सेवाभाव से लोगों के बीच कार्य कर रहे हैं? पिछले दिनों ‘कपार्ट’ तथा अनेक सरकारी विभागों और स्वायत्त संगठनों ने जिस बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठनों को ‘काली सूची’ में डाला है, उससे पता चलता है कि अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने केवल सरकारी अनुदान हड़पा और जनसामान्य के कल्याण और विकास के नाम पर लम्बी रकमें अपनी जेब में रख लीं। दुर्भाग्यवश देश के नियम-कानून ऐसे हैं कि अनुदान हड़पने वाली संस्थाओं से वसूली कर पाना असम्भव हो जाता है। साथ ही ऐसी संस्थाओं को काली सूची में डालने से भी कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऐसी संस्थाएँ बनाने वाले एक साथ कई-कई संस्थाएँ खोले होते हैं और अगर उनकी एक संस्था ‘ब्लैक लिस्ट’ हो भी गई तो वे दूसरी संस्था के नाम से अनुदान प्राप्त कर लेते हैं। आज तक ऐसी कोई मशीनरी नहीं बन पाई है जो ऐसे लोगों पर अंकुश लगा सके।

जहाँ एक ओर यह स्थिति है, वहीं दूसरी ओर सचमुच समर्पित भाव से काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। कुछ मुसीबतें तो अनुदान प्राप्ति की लम्बी और थकाने वाली प्रक्रिया तथा अत्यन्त दोषपूर्ण वित्तीय नियमों के कारण पैदा होती हैं और कुछ सरकारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार के कारण।

जो भी हो, इस सत्य और तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि ग्रामीण विकास में गैर-सरकारी यानी स्वयंसेवी क्षेत्र की अहम भूमिका है। हाँ, जरूरत इस बात की है कि इस भूमिका को निभाने के लिये सही स्वयंसेवी संगठनों का चयन किया जाए तथा इनके काम पर निरन्तर निगरानी रखने के बजाय स्वयंसेवी संगठनों और ग्रामीण जनता के बीच तालमेल स्थापित किया जाए। एक तरीका यह हो सकता है कि सरकार जिस किसी स्वयंसेवी संस्था को अनुदान दे, उसकी जानकारी उस ग्रामांचल की पंचायत को भी दे ताकि पंचायत के लोगों और उस संस्था के बीच रचनात्मक तालमेल से इस क्षेत्र का विकास हो सके। तभी ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल सकेगी।

(लेखक केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड, नई दिल्ली में संयुक्त निदेशक हैं।)

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