ग्रामीण विकास में ग्रामोद्योग


देश में बेरोजगारों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कृषि प्रधान देश की सीमित खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बेरोजगारों को अपने में खपा नहीं सकता है। सरकारी स्तर पर नौकरियाँ बढ़ाने की व्यवस्था करने की सम्भावना भी नहीं लगती है। ऐसी स्थिति में हर हाथ को काम देने के लिये ग्रामोद्योग का विकास उपयुक्त रणनिति हो सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का स्थान प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण रहा है। एक जमाना था जब भारतीय ग्रामोद्योग उत्पाद का निर्यात विश्व के अनेक देशों में किया जाता था। भारतीय वस्तुओं का बाजार चर्मोंत्कर्ष पर था। किन्तु औपनिवेशिक शासन में ग्राम उद्योगों का पतन हो गया। फलतः हमारे गाँव एवं ग्रामवासी गरीबी के दल-दल में फँस गए हैं। ऐसे गाँवों के विकास में ग्राम-उद्योग का अपना महत्व है। गाँवों के विकास के अभाव में भारत की समृद्धि, सम्पन्नता व आत्मऩिर्भरता अर्थहीन है। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1949) ने अपनी रिपोर्ट में ग्राम्य जीवन के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “नगरों का विकास गाँवों से होता है और नगरवासी निरन्तर ग्रामवासियों के परिश्रम पर ही पनपते हैं। जब तक राष्ट्र का ग्रामीण कर्मठ है तब तक ही देश की शक्ति और जीवन आरक्षित है। जब लम्बे समय तक शहर गाँवों से उनकी आभा और संस्कृति को लेते रहते हैं और बदले में कुछ नहीं देते, तब वर्तमान ग्राम्य जीवन तथा संस्कृति के साधनों का ह्रास हो जाता है और राष्ट्र की शक्ति कम हो जाती है।”

गाँवों के विकास में लघु एवं कुटीर उद्योग की भूमिका को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा थाः “जब तक हम ग्राम्य जीवन को पुरातन हस्तशिल्प के सम्बंध में पुनः जागृत नहीं करते, हम गाँवों का विकास एवं पुनर्निर्माण नही कर सकेंगे। किसान तभी पुनः जागृत हो सकते हैं जब वे अपनी जरूरतों के लिये गाँवों पर ही निर्भर रहें न कि शहरों पर, जैसा की आज। “उन्होनें आगे कहा था-” बिना लघु एवं कुटीर उद्योगों के ग्रामीण किसान मृत है, वह केवल भूमि की उपज से स्वयं को नहीं पाल सकता। उसे सहायक उद्योग चाहिए।” गाँधीजी ने परतंत्रता काल में भारतवासियों की दुर्दशा देखने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन एवं विकास की दृष्टि से एकादश व्रत के साथ-साथ कुछ रचनात्मक कार्यक्रम तय किए थे। इसमें खादी और दूसरे ग्रामोद्योग को ग्राम विकास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। उस समय भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर विदेशी व्यापार को चोट पहुँचाने की दृष्टि से इसका महत्व कम नहीं था।

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू यद्यपि देश के तीव्रगामी विकास के लिये बड़े उद्योगों को अधिक महत्व देते थे, फिर भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने हेतु गाँवों में लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल दिया करते थे। उनका मानना था कि गाँवों के विकास के लिये घरेलू उद्योग का विकास स्वतंत्र इकाइयों के रूप में किया जाना आवश्यक है। राष्ट्रीय विकास की योजना बनाने एवं कार्यान्वित करने के लिये 1950 में योजना आयोग का गठन किया गया था। जिसने स्पष्ट किया है- लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

देश में बेरोजगारों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कृषि प्रधान देश की सीमित खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बेरोजगारों को अपने में खपा नहीं सकता है। सरकारी स्तर पर नौकरियाँ बढ़ाने की व्यवस्था करने की सम्भावना भी नहीं लगती है। ऐसी स्थिति में हर हाथ को काम देने के लिये ग्रामोद्योग का विकास उपयुक्त रणनिति हो सकता है।

ग्रामोद्योग का आशय


“ग्राम-उद्योग” की परिधि में वे सभी उद्योग-धंधे आते हैं जो ग्रामवासी अपने घरों के आस-पास पारम्परिक रीतियों अथवा जाति-विशेष के कौशल का उपयोग करते हुए निष्पादित करते हैं। यही कारण है कि सामान्यतया स्थानीय कच्चे माल, कौशल, पूँजी, तकनीक, उपभोग पर आधारित उत्पादन को ग्रामोद्योग की संज्ञा दी जाती है। ऐसे उद्योग को कुटीर उद्योग, लघु उद्योग एवं कृषि आधारित उद्योग कहते हैं। ग्रामीण उद्योगों के विकास-विस्तार की दिशा में नियमित कार्यशील संस्था खादी और ग्रामोद्योग आयोग के संशोधित अधिनियम 1987 के अनुसार ग्रामोद्योग का अर्थ है ग्रामीण क्षेत्र, जिसकी जनसंख्या 10 हजार या इसके आस-पास हो, में स्थापित कोई उद्योग जो बिजली का इस्तेमाल करके या बिना इस्तेमाल किए कोई वस्तु उत्पादित करता हो या कोई सेवा करता है। जिसमें स्थिर पूँजी निवेश (संयंत्र, मशीनरी, भूमि और भवन में) प्रति कारीगर या कार्यकर्ता 15,000 रुपये से अधिक न हो। 1949-50 के भारतीय संरक्षण आयोग ने कुटीर एवं लघु उद्योग को अलग-अलग परिभाषित किया है।

वास्तव में कुटीर उद्योग घर में चलाया जाने वाला यानी पारिवारिक माहौल में उत्पादन करने वाला घरेलू उद्योग होता है लेकिन लघु उद्योग का अर्थ उन उद्योगों से लिया जाता है जो छोटे स्तर पर उत्पादन करता हो। इसकी परिभाषा पूँजी निवेश, प्रबंध एवं अन्य स्थितियों पर बदलती रही है। अंततः यह स्वीकारना होगा कि कुछ मामलों में लघु उद्योग, ग्रामीण उद्योग एवं कुटीर उद्योग आपस में मेल खाते हैं। कुल 26 उत्पाद ग्रामोद्योग के अंतर्गत आते थे। लेकिन वर्ष 1990-91 के दौरान इसमें 70 नए उत्पाद शामिल किए गए। अब कुल 96 वस्तुओं के उत्पादक ग्रामोद्योग हैं जिन्हें खनिज आधारित उद्योग, वनाधारित उद्योग, कृषि आधारित उद्योग, चमड़ा और रसायन उद्योग, गैर परम्परागत ऊर्जा और इंजीनियरिंग उद्योग, वस्त्रोद्योग तथा सेवा उद्योग नामक समूहों में बाँटा गया है। ग्रामीण भारत के आर्थिक विकास में इन उद्योगों का स्थान काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है।

ग्रामोद्योग का विकास


आजादी के बाद लघु उद्योगों के विकास के लिये अत्यधिक प्रयास किए गए। सन 1948 में देश में कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई तथा प्रथम पंचवर्षीय योजना काल में इनके विकास हेतु 42 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई। फिर 1951, 1977, 1980 एवं 1991 की औद्योगिक नीतियों की घोषणाओं में लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रमुख स्थान दिया गया है। सबके मिले-जुले प्रयासों से लघु उद्योगों की प्रगति हुई तथा इससे देश में बेरोजगारी दूर करने तथा अर्थव्यवस्था को सुधारने मे काफी मदद मिली है। इस बात की पुष्टि कुछ आँकड़ों से होती है।

देश में पंजीकृत तथा कार्यरत लघु औद्योगिक इकाइयों की गणना पहली बार 1972 में पूर्ण हुई थी जिसमें 1.40 लाख इकाइयों की गणना की गई थी। वर्तमान गणना 15 वर्ष बाद 1988 में संपन्न हुई है जिसके अनुसार देश में 5.82 लाख इकाइयां कार्यरत हैं। 15 वर्षों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उत्पादन, रोजगार व अन्य दृष्टि से लघु औद्योगिक क्षेत्र ने उच्च वृद्धि दर प्राप्त की है। इनसे वर्ष 1972-73 में 16.53 लाख लोगों को रोजगार मिला था वह वर्ष 1987-88 में बढ़कर 36.66 लाख तक पहुँच गया। निर्यात में भी वृद्धि की दर अधिक रही है। वर्ष 1972-73 में 127 करोड़ रुपये का निर्यात किया गया था जो वर्ष 1987-88 में बढ़कर 2,499 करोड़ रुपये हो गया। रोजगार एवं निर्यात की सम्भावना को देखते हुए सरकार ने लघु उद्योगों के विकास के लिये आवंटन में सातवीं योजना के मुकाबले में आठवीं योजना में चौगुनी वृद्धि की है।

आठवीं योजना का उद्देश्य


श्रम-प्रधान एवं पूँजी के अभाव से ग्रस्त देश की आठवीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण तथा पिछड़े इलाकों में छोटे उद्योगों का जाल बिछाने की आवश्यकता पर काफी बल दिया गया है। यह प्रयास गरीबी और बेरोजगारी की समस्याओं से निपटने के लिये किया गया एक सराहनीय कदम है। 1990-95 तक की अवधि के लिये तैयार इस योजना दस्तावेज में छोटे उद्योगों की तीन उप-श्रेणियों में विभाजित करके उनके लिये अलग-अलग रणनीति अपनाने की बात कही गई है, खासकर ऐसे उद्योगों के लिये आधुनिकी-करण कोष स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया है और इसके लिये 1,000 करोड़ रुपये की व्यवस्था करने की योजना है। इससे 4.5 लाख उद्यमियों के लाभान्वित होने तथा 41.5 लाख लोगों को रोजगार मिलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

वास्तविक सम्भावनाएँ


आँकड़ों की भाषा की सम्भावनाएँ हाथी के दिखावटी दाँत साबित हो सकते हैं लेकिन लघु, कुटीर जैसे ग्रामोंद्योगों के विकास से खेती के क्षेत्रों में लगे लोगों की बेरोजगारी की समस्या, प्रदूषण की समस्या, गाँव से शहर की ओर श्रम पलायन की समस्या, पूँजी की समस्या, महिला रोजगार की समस्या का अन्त होगा और दूसरी ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था बेहतर बनेगी। इससे कुशल-अकुशल श्रमिक का भेद मिटेगा और प्रशिक्षण व्यय जैसे अनेक खर्चों में कटौती होगी। इसके अलावा सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि गाँव शहर बनेगा जो राष्ट्रीय विकास का संकेत है।

खेद का विषय है कि इतनी सम्भावनाओं के रहते हुए भी देश में लघु उद्योगों का विकास बौना नजर आता है। रुग्ण इकाइयों की बढ़ती संख्या इसका सबसे बड़ा सबूत है। आठवीं योजना के परिणाम आने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि ग्रामोद्योग के विकास-विस्तार से ग्रामीण विकास के प्रयास को सफलता मिल सकती है, क्योंकि ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करने एवं अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की क्षमता लघु उद्योगों में समाहित है।

‘मनीषलस’, मिश्रा टोला, दरभंगा- 846004

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