गरमाती धरती पर ठंडा मीडिया

23 Jul 2014
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वैसे तो ग्लोबल वार्मिग से प्रकृति तथा पर्यावरण को होने वाले नुकसान और परिणामों को लेकर पूरा विश्व चिन्तित है, मगर ये चिंता इस हद तक नहीं पहुंच पाई है कि लोग इसकी गम्भीरता को समझकर समाधान के लिय युद्ध स्तर पर प्रयासरत हो जाएं। इस संकट से निपटने में हमारी भूमिका और कार्ययोजना को लेकर एक बड़ी दुविधा भी हर स्तर पर मौजूद है। अमेरिका जैसे बड़े देश तीसरी दुनिया पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारियों से मुकर रहे हैं। वे ब्राह्मांड का तापमान बढ़ाने वाली ग्रीन हाऊस गैसों (जिसमें कार्बन-डाईऑक्साइड प्रमुख है और जो जीवाश्म आधारित ईंधन के इस्तेमाल से सबसे ज्यादा उत्सर्जित हो रही है) के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने पर होने वाले खर्चों का बोझ भी बांटने को तैयार नहीं हैं और टेक्नालॉजी के हस्तान्तरण में भी आनाकानी कर रहे हैं।

अमेरिका और यूरोप के देशों में प्रति व्यक्ति ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन सबसे अधिक है। क्योटो प्रोटोकाल में इसी आधार पर अन्तरराष्ट्रीय समझौता हुआ था और बड़े देशों से कहा गया था कि सन् 2012 तक वे महत्वपूर्ण कटौती करें। लेकिन अमेरिका ने इस सन्धि को ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि इसका अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा और तीसरी दुनिया को इसे बाहर रखा गया है, जो कि दुनिया का अस्सी प्रतिशत हिस्सा है। निश्चय ही ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ जिहाद में खर्च एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि ऐसे ईंधन के इस्तेमाल को कम करना जो ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ाता है और उनकी जगह वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना बहुत खर्चीला काम है।

लेकिन मुद्दा सिर्फ खर्चे भर का नहीं है, बल्कि जीव-जगत के अस्तित्व का अधिक है। इससे पानी का संकट खड़ा हो सकता है और युद्ध हो सकते हैं। यही नहीं, प्राकृतिक आपदाओं की बाढ़ ही आ सकती है। इनमें हिम शिखरों के पिघलने से नदियों में बाढ़ आने और समुद्र के जल-स्तर में बढ़ोत्तरी तक बहुत कुछ शामिल है। अगर ऐसा हुआ तो कल्पना की जा सकती है कि किस पैमाने पर जान-ओ-माल की हानि हो सकती है। अगर तापमान कुछ ज्यादा बढ़ा तो जलप्लावन भी हो सकता है। ये कोई कपोल-कल्पना नहीं है, बल्कि जलवायु में हो रहे परिवर्तनों पर नजर रखनेवाले वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव दिखने लगे हैं। ऋतुओं का चक्र गड़गड़ाने लगा है और मौसम अनिश्चित होने लगा है।

सच्चाई ये है कि ये संकट मानव निर्मित हैं और इसके असली दोषी वे देश हैं जहां सबसे ज्यादा उद्योगीकरण हुआ है। अमेरिका और यूरोप के देशों में प्रति व्यक्ति ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन सबसे अधिक है। क्योटो प्रोटोकाल में इसी आधार पर अन्तरराष्ट्रीय समझौता हुआ था और बड़े देशों से कहा गया था कि सन् 2012 तक वे महत्वपूर्ण कटौती करें। लेकिन अमेरिका ने इस सन्धि को ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि इसका अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा और तीसरी दुनिया को इसे बाहर रखा गया है, जो कि दुनिया का अस्सी प्रतिशत हिस्सा है। जाहिर है ये जिम्मेदारी से बचने की कोशिश थी और उसका नतीजा ये हुआ है कि लक्ष्यों को पाने में अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी नाकाम हुई ही, मुहिम भी कमजोर पड़ गयी।

सवाल ये है कि मीडिया ने संयुक्त राष्ट्र की इतनी महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट की अनदेखी करके हिन्दुस्तानी आबादी को अति आवश्यक जानकारियों से वंचित क्यों रखा? कायदे से तो उसे इसे उसी तरह प्रचारित करना चाहिए था जैसे कि वह किसी फिल्म के प्रचार अभियान में शामिल होता है। क्या वह वैसा ही समर्पण भाव इस मुद्दे पर नहीं दिखा सकता था जैसा कि मोदी की चुनावी रैलियों के प्रसारण या इंडियन प्रीमियर लीग के प्रचार-प्रसार में दिखाता है? शायद नहीं, क्योंकि उसकी दिक्कत ये है कि इसके लिए भी उसे कोई प्रायोजक चाहिए या फिर ढेर सारी टीआरपी की गांरटी। चूंकि इसमें दोनों ही नदारद हैं इसलिए उसकी भी दिलचस्पी नहीं दिखी।

लेकिन समस्या केवल बाजार संचालित-नियंत्रित मीडिया भर का नहीं है। कहीं न कहीं पत्रकारों में जागरुकता और दिलचस्पी का अभाव भी काम कर रहा है। अधिकांश मीडियाकर्मी स्वयं ही जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, प्रदूषण और वैकल्पिक ऊर्जा जैसे विषयों के बारे में निरक्षर हैं। उन्हें इस तरह के विषयों को समझने और इन पर काम करने का कोई प्रशिक्षण भी नहीं मिलता, इसलिए वे इनके बारे में कल्पनाशीलता के साथ सोच ही नहीं पाते। अन्यथा ऐसे विषयों को रुचिकर बनाकर पेश करने से भी टीआरपी हासिल की जा सकती है। प्रसार भारती को लोक प्रसारक की भूमिका सौंपी गयी थी, मगर लगता है कि न तो उसे अपने दायित्व का एहसास है और न ही उसके प्रति वैसा समर्पण एवं प्रतिबद्धता। विशेषज्ञों की मदद से वह भारतीय उपमहाद्वीप में हो रहे जलवायु परिवर्तनों और उसके प्रभावों पर योजनाबद्ध ढंग से काम करवा सकता है, लेकिन उसकी वर्तमान अवस्था को देखकर इस तरह की उम्मीद करना एक बड़ा छलावा होगा।

ग्लोबल वार्मिंग को लेकर मीडिया का ये ठंढा रवैया कुल मिलाकर उस पूरे मीडिया परिदृश्य को परिलक्षित करता है जो ऐसे गम्भीर संकटों को लेकर निराशाओं से भरा हुआ है। सबसे दुखद और चिंता की बात तो ये है कि इस तरह के मामलों में हम पूरी तरह से पश्चिमी देशों में निर्मित सामग्री पर निर्भर हैं, जो कि पक्षापातपूर्ण भी है और अक्सर हमारे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ भी होती है।

स्तंभ लेखक वरिष्ठ मीडियकर्मी है। मोः 9811818858.

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