गुंफित गंगा गाथा

15 Sep 2013
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यह यात्रा तीस प्रमुख शहरों से गुजरती है। हर शहर का अपना अलग मिज़ाज है। वह अपनी ही नज़रों से गंगा को देखता, कानों से उसके संगीत को सुनता, दिलों से उसकी धड़कन को महसूस करता और उसकी कहानी में अपने आप को जीते-जागते पाता है। लेखकों की हर मुमकिन कोशिश है कि गंगा के प्रति लोगों की आस्था को बनाए रखते हुए उसे विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने लायक बनाया जाए। मौसम का बदलना एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया है। लेकिन वह उसी रूप में बदले जैसा उसका स्वभाव होता है, तब तो लोगों के लिए सुख-समृद्धि प्रदाता होता है, जबकि उसमें तनिक भी विचलन लोगों के लिए तबाही ला सकता है। गंगा की धार्मिक प्रतिष्ठा बहुत पुरानी है। इससे जुड़े अनेक मिथ और दंत कथाएं प्रचलित हैं। उनसे इसका महिमामंडन होता और लोगों की आस्था को संबल मिलता है। इस आस्था को अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए आजकल राजनीति भी खूब हो रही है। लेकिन यह नदी केवल आस्था का प्रतीक नहीं है। इसका अपना समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र भी है। यह समाज को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती, लोगों को रोजगार देती और उन्हें प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की साहस भी देती है। उसके इन पक्षों पर अब तक बहुत कम लिखा गया है। ऐसे में अभय मिश्र और पंकज रामेंदु की पुस्तक दर दर गंगे काफी महत्वपूर्ण है। गंगा में फैलते प्रदूषण, उसके व्यावसायिक दोहन और प्रवाह को निरंतर नियंत्रित करने की कोशिश पर धार्मिक संगठनों और गंगा के प्रति आस्था रखने वाले लोगों की भावनाओं को भुनाने वालों ने विलाप तो बहुत किया है, लेकिन इन स्थितियों का गंगा पर आर्थिक रूप से निर्भर समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसका अध्ययन करने की शायद ही किसी ने ईमानदार कोशिश की हो। ऐसे माहौल में इस पुस्तक का आना प्रमाणित करता है कि लोग सरकारी वादों की सच्चाई को जान चुके हैं और गंगा को बचाने के लिए खुद पहल करने लगे हैं।

यह एक यात्रा-वृत्त है, लेकिन रूढ़ या पारंपरिक अर्थों में नहीं। तीन सालों और तीन चरणों में की गई यह यात्रा गंगोत्री से शुरू होती है और गंगा सागर पहुंच कर खत्म। इस रास्ते में जितने भी छोटे-बड़े शहर पड़ते हैं वहां के समाज पर इसकी वर्तमान अवस्था और उसकी भावी परिणति का कैसा असर पड़ रहा है और आगे पड़ेगा इसका वर्णन पूरे विवरण के साथ दिया गया है। गंगोत्री के तिलस्मी सौंदर्य की गिरफ़्त से छूट कर जैसे-जैसे यात्री आगे बढ़ते हैं, गंगा पर विकास का दुष्प्रभाव सामने आने लगता है। भागीरथी को बांध दिए जाने का परिणाम यह हुआ है कि इसके सहारे जीने वाला टिहरी का समाज आज टैंकरों के पानी से अपनी प्यास बुझाने के लिए मजबूर है।

यह यात्रा तीस प्रमुख शहरों से गुजरती है। हर शहर का अपना अलग मिज़ाज है। वह अपनी ही नज़रों से गंगा को देखता, कानों से उसके संगीत को सुनता, दिलों से उसकी धड़कन को महसूस करता और उसकी कहानी में अपने आप को जीते-जागते पाता है। लेखकों की हर मुमकिन कोशिश है कि गंगा के प्रति लोगों की आस्था को बनाए रखते हुए उसे विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने लायक बनाया जाए। मौसम का बदलना एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया है। लेकिन वह उसी रूप में बदले जैसा उसका स्वभाव होता है, तब तो लोगों के लिए सुख-समृद्धि प्रदाता होता है, जबकि उसमें तनिक भी विचलन लोगों के लिए तबाही ला सकता है। अच्छे मौसम की भविष्यवाणी गंगोत्री से उत्तर काशी के सुहाने रास्ते के बीच में रहने वाले लोगों के लिए यह सुनिश्चित करती है कि वे आगे क्या खाने वाले हैं, उनकी कौन-कौन-सी इच्छाएं पूरी होने वाली हैं और परिवार में कितनी खुशहाली आने वाली है।

खैरूलाल को इस बात की खुशी है कि अधिक पर्यटकों, श्रद्धालुओं के आगमन से उसकी पीठ पूरे सीजन में खाली नहीं रहेगी। कोई न कोई उस पर लदा ही रहेगी। वह पिछले दस साल से लोगों को अपनी पीठ पर ढोने का काम करता है। गंगोत्री से गोमुख तक अठारह किलोमीटर की यात्रा में वृद्धों, अपाहिजों और बच्चों को मंजिल तक पहुंचाने में सहायता करता है। रामनरेश प्लास्टिक की छोटी-छोटी बोतलें बेचता है, जिनमें गंगाजल ले जाया जा सकता है। प्रसाद बेचने वालों को भी इस बार अच्छी आमदनी के आसार लगते हैं। दुकान, मकान और होटलों के मालिक खुश हैं और उनके धंधों को बढ़ाने में लगे कमीशन एजेंट भी इस तरह अनेक लोगों की जीविका सैलानियों की आमद पर निर्भर रहती है।

एक और चित्र डोडीताल से निकलती असी गंगा का है। अपने वेग से वह पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा तोड़ देती है और उससे हुई तबाही एक पावर प्लांट को उसमें काम करते उन्नीस मज़दूरों सहित बहा ले जाती है। फायर सर्विस का सुदेश भी इसकी चपेट से बच नहीं पाता। लेकिन उनका मुआवजा परिवार को नहीं मिलता क्योंकि सुदेश के शव का पता ही नहीं लगता।

दर दर गंगेबनारस एक अबूझ शहर है और उसको जानने और वहां बहती अपरिभाषित गंगा की रहस्यमयता की थाह पाने के लिए राजेश कटियार जैसे सहृदय व्यक्ति का मार्गदर्शन अद्भुत लाभकारी हो सकता है। उनका मानना है कि गंगा-जमुना केवल नदी नहीं है, ये तो प्रकृति की ऐसी अनूठी देन हैं, जहां जनजीवन, संस्कृति और आदतें सांस लेती हैं। पर बनारस की गंगा की यह विशेषता है कि वह यहां कभी किनारा नहीं छोड़ती और जलचर कभी घाटों पर नहीं आते। इसलिए वे अपने में मस्त हैं और बनारसी अपने में। यहां के घाटों पर संस्कृति के विभिन्न आयाम और गंगा के प्रति आस्था की इंद्रधनुषी आभा नजर आती है।

यहां के बाबा नागनाथ गंगा को औघड़ सभ्यता का वाहक मानते हैं-चाहे जितना कचरा गंगा में डाल दीजिए वह आपके पाप और गंदगी दोनों को धो सकती है, शर्त यह है कि उसे अविरल बहने दिया जाए। आज स्थिति यह है कि गंगा गंगा में पचहत्तर हजार करोड़ लीटर जल-मल प्रतिदिन सीधे मिल जाता है। इसके अलावा तीन हजार टन अधजला मांस, छह हजार मरे पशु नदी में तैरते और सड़ते देखे जा सकते हैं। इसके अलावा डेढ़ लाख लोग प्रतिदिन अपना पाप धोने के लिए इसमें डुबकियां लगाते हैं।

और लीजिए, गंगा के साथ-साथ लेखक द्वय पटना पहुंच गए हैं। तभी तो उनके दोस्त सर्वेश की आत्मीयता पगी बेतकल्लुफ बाते सुनाई देती हैं- ‘पटना में किसी से ना पटना और अगर पटना तो कभी नहीं सटना, नहीं तो हो सकती है बहुत बड़ी घटना.. अरे लीजिए ना, चार ठो लिट्टी में ही टट्टी निकल जाता है आपका तो बस। हम इतनी दूर यही तो खिलाने लाए हैं। जबसे ससुर दिल्ली वाले हुए ना तबसे हाजमा बिगाड़ लिए हो।’ लेखकों को दिखाई देता है कि बड़े शहरों की तरह पटना भी विकास की दौड़ में भाग रहा है। उसका असर गंगा की पारिस्थितिकी पर भी होता दिखाई देने लगा है। जलपोतों के आवागमन को सुगम बनाने के लिए जो ट्रेलर रास्ते की गाद हटाते और गंगा को गहरी करते चलते हैं उनके पर्यावरण बिगड़ रहा है और डॉल्फिन की प्रजाति निरंतर कम होती जा रही है। इसी तरह घाटों का नवीकरण और यातायात के लिए फ्लाई ओवरों का तेजी से निर्माण चालू है। पर्यावरणप्रेमी इन सब विकास कार्यक्रमों के गंगा पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की ओर ध्यान दिलाने और रुकवाने के लिए विभिन्न उपायों का सहारा ले रहे हैं। गंगा के प्रवाह को बांधने और दिशा बदलने का परिणाम हर साल बाढ़ के रूप में देखा जा सकता है।

इस तरह गंगा किनारे बसे छोटे-बड़े नगरों के समाजों की सही तस्वीर सामने लाने का यह एक अनूठा प्रयास है। विभिन्न किरदारों के क्रियाकलापों से बुनी गई ये कहानियां एक तरह से उन अनगिनत गंगा-पुत्रों की गाथाएं हैं, जिनका भविष्य गंगा के भविष्य से जुड़ा है। विकास की तेज होती रफ्तार अगर गंगा को इसी तरह प्रदूषित और क्षीण करती रही तो इस पर निर्भर समाज और उसकी संस्कृति भी आने वाली पीढ़ियों के लिए पुरातत्व की एक विषय-वस्तु बन कर रह जाएगी।

सुरेश पंडित
दर दर गंगे:
अभय मिश्र, पंकज रामेंदु:
पेंगुइन बुक्स,
11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली :
मूल्य -199 रुपए।

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