गया शहर की संस्कृति को सहेजते हैं तालाब

25 Nov 2012
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किसी भी जिले या शहर की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने का एक कारक तालाब भी है। इससे वहां की खूबसूरती भी बढ़ती है। युगो-युगों से नगर के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के रूप में तालाबों को स्वीकार किया गया है। इतिहास गवाह रहा है कि मानव सभ्यता का विकास किसी नदी के किनारे ही हुआ है। भारतीय सभ्यता संस्कृति का शैशव काल यानी सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार इतिहास में जिसकी चर्चा ‘सुदर्शन तड़ाग’ के रूप में की गयी है। बाद के समय में निर्मित असंख्य तालाब हमारे जन-जीवन में तालाबों की भूमिका को रेखांकित करती है।

संस्कृति नगर गया शहर को ‘तालाबों का शहर’ कहा जाता है। यूं गया कई मायने में न केवल देश के अंदर बल्कि दुनिया में अपनी पहचान रखता है। यह सनातन के साथ बौद्ध धर्मावलंबियों का भी विशेष केंद्र है। 88 बसंत देख चुके शहर के वयोवृद्ध साहित्यकार गोवर्धन प्रसाद सदय की माने तो 100-100 मीटर की दूरी पर यहां तालाब थे। बाद में 51 तालाब रह गये जिसके बारे में हाल के लोगों को भी पता है। पर शहर के फैलाव, बढ़ती जनसंख्या व बढ़ते बिजनेस के स्कोप ने कई तालाब के अस्तित्व को मिटा दिया। तालाब यहां के संस्कृति की गाथा कहते हैं। गया आग्नेय चट्टान के पहाड़ी से घिरा क्षेत्र है। कर्क रेखा भी गया के पास से ही होकर गुजरी है। इस कारण यह गरम क्षेत्र है। पहाड़ी क्षेत्र से घिरे होने के कारण पानी की भी कमी है। शायद इसी कारण लाजिक के तहत यहां के पुराने वाशिंदों ने जलाशयों की बहुलता को तरजीह दिया। तालाब व कुंड खुदवाये। आहर, पोखर व पइन की खुदाई करायी। जलजमाव से जलस्तर बना रहेगा। इससे नमी बनेगी। यह हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता का ही परिचायक है।

जलाशयों की बात करें तो जिला मत्स्य पदाधिकारी शिव शंकर ओझा बताते हैं कि आहर, पइन व तालाब समेत जिले में जलाशय 1051 हैं। सिर्फ तालाब के बारे में बताया कि 331 निजी व 587 सरकारी सहित कुल 918 तालाब हैं। जिले में कुल 1051 जलाशयों में 617 बंदोबस्त हैं, जिनमें मछली पालन भी किया जाता है। उप विकास आयुक्त गिरिवर दयाल सिंह के मुताबिक जलस्तर व खेती के लिहाज से पूरे जिले में मनरेगा योजना के तहत 1001 तालाबों की खुदाई करायी जानी है। अब तक चार सौ के आस-पास तालाबों की खुदाई पर कामकाज चल रहा है। सरकार की योजना है कि तालाब के पानी से खेतों की सिंचाई होगी। आस-पास के क्षेत्रों में जलस्तर बरकरार रहेगा। मछली पालन से किसानों की आर्थिक स्थिति सुदृढ। होगी व तालाब के तट पर किये जा रहे पौधारोपण से पर्यावरण सुरक्षित होगा। हरियाली रहेगी और फलदार पौधे लगेंगे तो इससे भी किसानों को लाभ मिलेगा। इससे सुंदरता भी बढ़ेगी। सरकार व प्रशासन की पहल की सराहना की जानी चाहिए। लेकिन, तालाबों की बरबादी का चुपचाप तमाशा देखने वाले शायद यह नहीं सोंच रहे हैं कि वह अपनी व आने वाली पीढ़ी के लिए कांटा बो रहे हैं।

शहर के ढेर सारे तालाब हैं जिनका धार्मिक महत्व है। चूंकि यह शहर दुनियां में कर्मकांड के लिए जाना जाता है। पिंडदान व तर्पण के लिए सालोंभर यहां लोग आते रहते हैं। तर्पण के लिए सरोवरों का होना अत्यंत जरूरी है। शहर के वैतरणी, ब्रह्मसत सरोवर, रूक्मिणी सरोवर, सूर्यकुंड, गोदावरी, उत्तर मानस(पिता महेश्वेर), गायत्री कुंड, सीता कुंड, रामकुंड, ब्रह्मकुंड, सरस्वती कुंड में तर्पण होता है, इसलिए यह धार्मिक महत्व के तालाब हैं। इनमें सूर्यकुंड में छठ के मौके पर अर्घदान भी होता है। इनके अलावा शहर के अन्य तालाबों में जिनमें कुछ का अस्तित्व बचा तो कुछ का नहीं जिनमें दिग्घी तालाब, बिसार तालाब, रामसागर तालाब, सरयू तालाब, कोइली पोखर, कठोकर तालाब, बनिया पोखर, भुतहा तालाब, शिव कुंड, पिपरपांती सरोवर हैं।

गया का सूर्य मंदिर तालाबगया का सूर्य मंदिर तालाब

ब्रह्मकल्पित है सूर्यकुंड


सूर्यकुंड के बारे में किंवदिंती है कि यह ब्रह्म के कल्पना का साकार रूप है। सूर्यकुंड को ही दक्षिण मानस भी कहा जाता है। टिकारी महाराज मित्रजीत ने विष्णुपद मंदिर के पास के कुंड में एक विशाल तालाब (292156 फुट) का निर्माण 18वीं शताब्दी में कराया था। हैमिल्टन बुकानन ने यहां के पंचतीर्थ का वर्णन किया है। इस कुंड का उत्तरी भाग उदीचि, मध्य भाग कनखल व दक्षिण भाग दक्षिण मानस तीर्थ कहलाता है। ये तीनों पिंडवेदियां हैं। इस कुंड के पश्चिकम में ‘दक्षिणार्क सूर्य’ मंदिर व एक शिव मंदिर है। यहां कार्तिक व चैती छठ के मौके पर सांध्यकालीन अर्घदान का महत्त्व है। पूर्व में इस कुंड से अंत:सलिला फल्गु तक जाने का गुप्त मार्ग था। इस कुंड में अंत:सलिला से पानी आने-जाने का रास्ता बना था, जो इसमें जल की पर्याप्तता बरकरार रखता था।

17वीं शताब्दी का है गुरूआ का सूर्य मंदिर


सूर्यकुंड सरोवरसूर्यकुंड सरोवरगुरूआ का सूर्यमंदिर तालाब जिले के ग्रामीण क्षेत्र है, जिसका विशेष महत्व है। यहां छठ के मौके पर न सिर्फ गुरूआ बल्कि आस-पास के लोग भी अर्घदान करने आते हैं। यहीं पर सूर्यमंदिर भी है। इसकी महिमा अपार है। स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व 17वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में कोल राजा आये व उस जाति के लोग जहां-तहां रहने लगे। लोग बताते हैं कि प्रेमी साव उर्फ प्रेमु साव नामक व्यक्ति एक रात स्वप्न देखा। स्वप्न की बात सुबह सबों को बतायी। लोग उस जगह को साफ करने लगे तो स्वप्न की बात सही निकली। अभी जहां तालाब है, वहां के झाड़ी को हटाया गया। नीचे तालाब सा दिखा। साफ किया। उसमें से पैसे व गगरा आदि मिला। पैसे से तालाब के तट पर सूर्यमंदिर का निर्माण कराया गया। इस तालाब की खासियत यह है कि कभी इसका पानी सूखता नहीं है। इसके स्त्रोत के बारे में पता नहीं लग पाया है जबकि पास में कोई पहाड़ी भी नहीं है।

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