घृतकुमारी की लाभदायक खेती

28 Nov 2017
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घृतकुमारी का उपयोग औषधीय योगों एवं प्रसाधन सामग्रियों के निर्माण में किया जाता है। औषधीय दृष्टि से यह शीतल, तिक्त, मधुर, रसयुक्त, नेत्रों के लिये हितकर, रसायन, बलकारक, प्लीहा-यकृत वृद्धि कारक, रक्त विकार, चर्मरोग का नाश एवं मल का भेदन करने वाली होती हैं। घृतकुमारी का सार पाचक, उदरशूल एवं मंदाग्नि अर्श आदि रोगों में विशेष उपयोगी हैं। वर्तमान समय में अधिकांशतः त्वचा पर लगाये जाने वाली क्रीम, शैम्पू एवं विभिन्न हर्बल- उत्पादों में घृतकुमारी के जेल का प्रयोग बहुतायत से हो रहा है।

घृतकुमारी लिलियेसी परिवार का एक प्रमुख आौषधीय पौधा है, जिसका वैज्ञानिक नाम एलो बार्बाडेंसिस ( एलोवेरा) है। घृतकुमारी को घीकुवार, ग्वारपाठा एवं एलुआ नामों सेे भी जाना जाता है विश्व में इसकी 200 से अधिक जातियाँ पाई जाती हैं। घृतकुमारी का मूल निवास उत्तर-पूर्वी अफ्रीका एवं स्पेन हैं तथा भारतवर्ष में यह हिमालय से कन्याकुमारी तक सर्वत्र पाया जाता है। भारतीय चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद एवं यूनानी में इस पौधे का विशिष्ट महत्त्व है एवं इसका उपयोग विभिन्न औषधीय योगों एवं प्रसादन सामग्री के रूप में किया जाता है। वर्तमान समय में इसकी अत्यधिक माँग के कारण वृहत स्तर पर इसकी खेती आवश्यक हो गई है, जिससे देश की आन्तरिक माँग पूर्ति के साथ-साथ इससे निर्मित उत्पादों का निर्यात भी किया जा सके।

वितरणः एलो बार्बाडेंसिस विशेषतः मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान आदि प्रान्तों में पाई जाने वाली मुख्य जाति है। छोटी जाती की घृतकुमारी चेन्नई से रामेश्वरम तक पाई जाती हैं जिसे एलो इण्डिका या छोटा ग्वारपाठा कहते हैं। बंगाल एवं सीमान्त प्रदेश मे लाल ग्वारपाठा पाया जाता है, जिसे एलो रूपसेंस कहतें है। इसके पत्तों के नीचे का भाग बैंगनी रंग का होता है तथा इसपर नारंगी एवं लाल रंग के फूल लगते हैं। इसके पत्ते से घृतकुमारी तेल बनता है तथा गूदे को स्पिरिट लगाकर बालों में लेप करने से बाल लाल हो जाते हैं। सौराष्ट्र के समुद्र तट पर जाफराबादी ग्वारपाठा पाया जाता है जिसे एलो लिरोरेटिस कहते हैं।

वानस्पतिक परिचयः घृतकुमारी एक बहुवर्षीय, छिछला जड़ एवं छोटे तना वाला एवं लाल लसादार रस वाला पौधा होता है। इसके पौधों से एक लम्बा पुष्प ध्वज निकलता है तथा इसमें वास्तविक तना नहीं होता है। मुल के ऊपरी कांड से पत्र निकलते हैं जो इसे चारों ओर से घेरे रहते हैं। निकास के स्थान पर इसका रंग श्वेत होता है जो आगे चलकर हरा हो जाता है। पत्तियों की लम्बाई 20-60 से.मी., एवं चौड़ाई 2.5-5.0 से.मी. होती है। पत्र प्रारम्भ में चौड़े और क्रमशः पतले होकर अग्र भाग में नोकदार हो जाते हैं। पत्र में मुड़े हुए काँटे होते हैं। जो आधेे से.मी. लम्बे होते हैं। पत्र के वाह्य पृष्ठ पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। पूरी आयु के पौधे के मध्य में एक लम्बा पुष्पध्वज निकलता है, जिस पर लाल पीले रंग के पुष्प आते हैं। शीतकाल के अन्त में पुष्प एवं फल लगते हैं। इसके फल करीब 2.5 से.मी. लम्बे होते हैं। पत्रों को काटने से पीले रंग का रस निकलता है, जो ठंडा होने पर जम जाता है, जिसे कुमारी सार कहते हैं। पत्रों को काटने पर साफ चमकदार मज्जा (जेेल) निकलता है, जिसे विशेष प्रक्रियायों द्वारा सुखा कर व्यावसायिक एलुआ तैयार किया जाता है।

भूमि एवं जलवायुः- बलुई या बलुई-दोमट भूमि जिसका पी.एच. 6.5 से 8.5 हो, सर्वोत्तम मानी जाती हैं। यद्यपि इसकी खेती ऐसी किसी भी भूमि पर, जिसमें जल निकास अच्छा हो, किया जा सकता है।

उन्नत प्रभेदः- घृतकुमारी की उन्नत प्रजाति एल-1, एल-2, एल-5, एल-49, आई. सी.-11267, आई.सी.-111266 तथा आई.सी.-111277 है। इन प्रजाति के पौधों से अच्छा एवं उच्च कोटि का जेल निकलता है।

खेत की तैयारीः- भूमि की एक या दो जुताई के बाद, अच्छी तरह पाटा लगाकर समतल कर लेना चाहिये। इसके बाद 50 से.मी. X 50 से.मी. की दूरी पर पौधों की उठी हुई क्यारियाँ बनाकर रोपना चाहिये। अधिक ढालू जमीन पर ढ़ाल के विपरीत मेड़ों पर पौधों की रोपाई करना चाहिये।

रोपाई का समयः- रोपाई का उचित समय सितंबर-अक्टूबर है, जब भूमि में पर्याप्त नमी होती हैं। सिंचित दशाओं में इसकी रोपाई फरवरी माह में भी की जा सकती है।

पौध तैयारी एवं रोपाईः- घृतकुमारी की रोपाई, मुख्य पौधों के बगल से निकलने वाले छोटे-छोटे पौधे, जिसमें चार-पाँच पत्तियाँ हो, के द्वारा की जाती हैं। एक हेक्टेयर भूमि के लिये 50 से.मी. X 50 से.मी. की दूरी पर पौध रोपण के लिये 40,000 पौधों की आवश्यकता पड़ती है। पौधों कोे उठी हुई क्यारियों में लगाना चाहिये ताकि पौधों के जड़ो के पास जल जमाव नहीं हो सकें। पौधों को मिट्टी में इस प्रकार लगाना चाहिये, ताकि जड़ का 2/3 भाग मिट्टी के अंदर हो जायेे।

सिंचाईः- इसकी फसल को सिंचाई की कम आवश्यकता होती हैं, रोपाई के बाद एक हल्की सिंचाई करनी चाहिये। स्प्रिंकलर अथवा ड्रिप विधि से सिंचाई अच्छी रहती हैं। ज्यादा पानी व नमी इसकी उचित बढ़वार के लिये ठीक नहीं होती है। समय-समय पर सिंचाई करने से पत्तियों में जेेल का उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। वर्ष भर में कुल 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है।

खरपतवार नियंत्रण एवं निकाई गुड़ाईः- पौधों की अच्छी बढ़वार हेतु प्रथम वर्ष में कम से कम 3-4 निकाइयाँ तथा द्वितीय एवं तृतीय वर्ष में 1-2 निकाइयाँ आवश्यकतानुसार करनी चाहिये। अच्छे उत्पादन के लिये समय-समय पर जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देना चाहिये ताकि पौधे गिरे नहीं एवं जड़ो के आस-पास अनावश्यक पानी एकत्र न हो।

खाद एवं उर्वरकः- इसकी फसल को बहुत कम खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता होती है। अच्छी पैदावर हेतु प्रति हेक्टेयर 10 टन गोबर की सड़ी खाद या वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करना चाहिये।

फसल सुरक्षाः- इसके पौधों में कोई विशेष रोग या कीड़ों का प्रकोप नहीं होता है। पत्तियों एवं तनों का सड़ना तथा पत्तियों पर धब्बों का बनना प्रमुख बीमारियाँ हैं जो फफूंदियाँ आल्टरनेरिया आल्टरनेटा एवं प्यूजेरियम सोलेनी द्वारा होता है। इसके रोकथाम के लिये फफूंदी नाशक दवा डाइथेन जेड-78 या क्लोेरोथेलोनिल 2.0-2.5 ग्राम/लीटर पानी में डालकर छिड़काव करना चाहिये। फसल चक्र एवं खेत परिवर्तन करके भी रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

फसल की कटाईः- घृतकुमारी की पत्तियाँ रोेपाई के 10-15 महीने के बाद काटने योग्य हो जाती है। प्रथम कटाई में 3-4 नीचे की पत्तियों को काटा जाना चाहिये, इसके बाद लगभग 45 दिन के अन्तराल पर 3 या 4 पत्तियों की कटाई करनी चाहिये। ताजी पत्तियों में रासायनिक अवयव बारबेल्वाएन की सान्ध्रता 0.0052 से 0.014 तक रहती है। पौधों के नीचे का भाग वाली पत्तियों में सान्ध्रता मध्य तथा ऊपरी भागों में पायी जाने वाली पत्तियों से अधिक होती हैं। उचित देख-रेख करने पर 3 वर्ष तक लाभकारी फसल की प्राप्ति होती है। तीन वर्ष के बाद उपज गिरने लगती है तथा फसल में बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है, इसलिये तीन वर्ष के बाद पुराने पौधे को उखाड़कर नई रोपाई करनी चाहिये।

उपजः- पत्तियों की उपज मुख्यतः जलवायु, भूमि, उन्नत प्रजाति एवं फसल की देेख-रेख पर निर्भर करती हैं। सामान्यतः ताजी पत्तियों का पैदावर प्रथम वर्ष में लगभग 50-60 टन प्रति हेक्टेयर होती है। दूसरे एवं तीसरे वर्षों में 15-20 प्रतिशत उपज में वृद्धि होती है तथा 1.0 से 1.5 लाख नये पौधे प्रति वर्ष तैयार होते हैं।

प्रसंस्करणः- घृतकुमारी की मांसल पत्तियों से प्राप्त होने वाले सार को एल्वायटिक जूस के नाम से जाना जाता है। परिपक्व पौधों से निकाली गयी पत्तियों को स्वच्छ पानी से अच्छी तरह धोने के बाद इसके निचले आधार पर अनुप्रस्थ काट लगा देते हैं, जिससे पीले रंग का गाढ़ा रस निकलता है। इस गाढ़े रस को वाष्पीकरण की विधि से उबालकर सुखा लेते हैं, जिसे विभिन्न नामों से बाजार में विक्रय किया जाता है। पत्तियों से रस निकालने के बाद, धारदार चाकू से ऊपरी सतह को हटाकर अन्दर के लसादार गुद्दे को अलग कर लेते हैं। पुनः गुद्दे को पलवराईजर अथवा कालवाएडल मिल में डालकर अच्छी तरह से घोल बना लेते हैं एवं छान कर साफ कर लेते हैं। इस तरह से घृतकुमारी की पत्तियों से 35-40 प्रतिशत रस प्राप्त किया जा सकता है। इन रस में आवश्यक अभिकारक मिलाकर सौन्दर्य प्रसाधन जेल अथवा सुगंधित द्रव्य के रूप में व्यवहार किया जाता है।

रासायनिक संगठनः- घृतकुमारी की पत्तियों में 94 प्रतिशत पानी एवं 6 प्रतिशत रसायन, जिनमें 20 प्रकार के अमीनो एसिड, कार्बोहाइड्रेटस एवं अन्य रासायनिक घटक होते हैं। घृतकुमारी में मुख्य क्रियाशील तत्व ‘एलोइन’ नामक ग्लूकोसाइड समूह होता है, जिसका मुख्य घटक बारबेलोइन हैं। यह हल्के पीले रंग का स्फटकीय ग्लूकोसाइड होता है, जो जल में घुलनशील होता है। इसके अतिरिक्त एलोइन में बीटा बारबेलोइन, आइसो बारबेलोइन, एलो-इमोडिन, रेसिन, गैलिक एसिड एवं सुगंधित तेल भी पाये जाते हैं। घृतकुमारी के पत्तियों में निम्न रासायनिक घटक भी पाये जाते हैं-जैसे विटामिन्स (डी. ए. सी. ई तथा बी-12) एन्जाइम्स (ब्रेडीमाननेज, लाइजेज, प्रोटिएसेस) खनिज लवण (कैल्शियम, सोडियम, पोटाशियम, मैग्नीज, मैग्नीशियम, काॅपर, जिंक, क्रोमीयम, सेलेनियम, इत्यादि) शर्करा (ग्लूकोपॉलीसेकेराइ्स, ग्लूकोज, मैनोज, ग्लूकोमेनन इत्यादि), एन्थ्राक्यूनोन्स ( एलोइन एवं इमोडीन) जो सूक्ष्म बैक्टीरिया एवं वायरसों को समाप्त करने की क्षमता रखती है। उपरोक्त के अतिरिक्त लिगिन्न, सेपोनिन्स, फैटी एसिडस, कैम्पस्टीरोल, सिसोस्टीरोल,ल्यूपीओल स्टेरोइडस, सेलीसिलिक अम्ल एवं 20 प्रकार के अमीनो एसिड्स पाये जाते हैं।

आय-व्यय विवरणः-प्रति हेक्टेयर घृतकुमारी की खेती हेेतु आय-व्यय विवरण इस प्रकार हैः

व्ययः-
भूमि की तैयारी - 2000 रु.
पौध सामग्री - 10,000 रु.
रोपाई - 3000 रु.
खाद एवं उर्वरक -1500 रु.
खर-पतवार नियंत्रण - 7000 रु.
सिंचाई - 1500 रु.
फसल संरक्षण - 1500 रु.
कटाई एवं ढुलाई - 10,000 रु.
अन्य -1500 रु.
कुल - 38,000 रु. प्रति वर्ष

आयः-
50-60 टन ताजी पत्तियाँ (200 रु. प्रति टन ) - 100000-120000 रु. प्रति वर्ष।
शुद्ध आय:- 62000-82000 रुपये प्रति वर्ष।

इसके अतिरिक्त नये पौधों के विक्रय से एवं दूसरे, तीसरे वर्ष में उत्पादन वृद्धि से अधिक आमदनी प्राप्त किया जा सकता है।

उपयोग:- घृतकुमारी का उपयोग औषधीय योगों एवं प्रसाधन सामग्रियों के निर्माण में किया जाता है। औषधीय दृष्टि से यह शीतल, तिक्त, मधुर, रसयुक्त, नेत्रों के लिये हितकर, रसायन, बलकारक, प्लीहा-यकृत वृद्धि कारक, रक्त विकार, चर्मरोग का नाश एवं मल का भेदन करने वाली होती हैं। घृतकुमारी का सार पाचक, उदरशूल एवं मंदाग्नि अर्श आदि रोगों में विशेष उपयोगी हैं। वर्तमान समय में अधिकांशतः त्वचा पर लगाये जाने वाली क्रीम, शैम्पू एवं विभिन्न हर्बल- उत्पादों में घृतकुमारी के जेल का प्रयोग बहुतायत से हो रहा है। अनेक प्रकार के औषधीय योगों जैसे कुमार्यासव, कुमारीवटी, घृतकुमारी तेल, स्वर्ण भस्म, रजत भस्म, ताम्र भस्म, चन्द्रोदय रस, मकरध्वज, पिल एलोय, टिंक्चर ऑफ एलोज इत्यादि में घृतकुमारी का प्रयोग होता है। नेत्ररोग, कर्णशूल, चर्मविकार, नपुंसकता, श्वेत प्रदर, अण्डवृद्धि एवं परिवार नियोजन हेतु घृतकुमारी का प्रयोग बहुतायत से होता है।

 

पठारी कृषि (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका) जनवरी-दिसम्बर, 2009


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

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