हार मान ली गई

अगर सचमुच ईंधन और चारे की चिंता है और सरकार सबसे ज्यादा गरजमंदों को कुछ फायदा पहुंचाना चाहती है तो फिर ये सारे कार्यक्रम भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों के लिए चलाने होंगे। विश्व बैंक की मदद से दुनिया भर में चल रहे वन संवर्धन कार्यक्रम के एक सर्वेक्षण में बैंक ने स्वीकार किया है कि इस मामले में वह असफल रहा है। “भूमिहीन लोगों के लिए पर्याप्त ईंधन, छवाई की लकड़ी और चारा उपलब्ध कराना शायद सभी सरकारों की सबसे बड़ी समस्या है।...अगर घरेलू उपयोगों के लिए ही लकड़ी जुटाने के लिए पेड़ लगाने हों तो उसके लिए छोटे किसानों को तैयार कैसे किया जाएगा। उन्हें कौन-सा प्रलोभन दिया जा सकता है...” विश्व बैंक इस मोर्चे पर सामाजिक वानिकी की असफलता के कई कारण गिनाता है और अंत में स्वीकार करता है कि “आम लोगों की समस्याओं का मामला सचमुच बड़ी जटिल है, क्योंकि गांव के वृक्षारोपण और उन पेड़ो की रक्षा के लिए गांव समाज की इच्छा का सवाल है।”

तमिलनाडु का एक सर्वेक्षण बताता है कि भूमिहीन पशुपालक गांव में सामुदायिक वृक्षारोपण के खिलाफ हैं। उन्हें डर है कि इससे चरागाह खत्म होंगे, और अभी बंजर में किसी तरह उग रहीं खरपतवार भी हाथ से निकल जाएगी। यही तो फिलहाल उनके चूल्हे में जल रहा है। टूटते-बिखरते समाज में एक भाग का दूसरे भाग पर संदेह कितना बढ़ सकता है इसका उदाहरण है यह।

उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में पंचायतों और सामाजिक वानिकी निदेशालयों के बीच विस्तृत करारनामें स्वीकार करवाकर कोशिश की गई की सामुदायिक वनों के लाभ का समान वितरण हो। यह योजना सुल्तानपुर के एक गांव के प्रधान ने ही बनाई थी, फिर भी ईंधन का वास्तविक बंटवारा बड़ो के हक में ही हुआ, भूमिहीनों को कुछ न मिला।

इस विफलता के बारे में विश्व बैंक के रवैये से साफ हो जाता है कि सामाजिक वानिकी द्वारा समाज की जरूरतों को पूरा कराने का उसका संकल्प कच्चा है। गुजरात की सामाजिक वानिकी मूल्यांकन रिपोर्ट में वर्णन किया गया है कि “गांव के अपने बलबूते पर पेड़ लगाने की क्षमताओं को कम करने के लिए, और इसके लिए वन विभाग पर निर्भरता बढ़ाने के लिए वन-खेती कार्यक्रम के आकार को कैसे बढ़ाया गया।” दूसरे में, अगर अपने वल पर पेड़ लगाने का काम बना नहीं, तो गरीबों को भूल जाओ, वन-खेती पर जोर लगाओ। कोलार अध्ययन के एक साथी श्री जे बंद्योपाध्याय ने इस बात पर कड़ी आपत्ति उठायी है कि सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के लिए अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मदद लेना कहां तक उचित है। वे पूछते हैं कि अगर सामाजिक वानिकी इतनी फायदेमंद है तो फिर उसे सब्सिडी देने की क्या जरूरत है जिससे देश विदेशी संस्थाओं का कर्जदार हो?” लेकिन ऐसे सजग विशेषज्ञों को यह नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक लाभ के मामले में बिलकुल गैर जिम्मेदार साबित हो चुके सभी बड़े उद्योग भयानक सब्सिडी पर ही चलते आ रहे हैं।

कई राज्यों में सामाजिक वानिकी को ज्यादा सुविधाएं देने और अधिक साधन जुटाने के लिए उसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम से और समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम से जोड़ दिया गया है। दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश और गुजरात में पेड़ सार्वजनिक भूमि में लगाए गए हैं जिसके लिए पौधे वन विभाग से दिए गए और मजदूरी राश्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम से। गुजरात में वन विभाग ने लोगों को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में मजदूरी चुकायी, तब सामाजिक वानिकी ने यहां कुछ जोर पकड़ा। पर यह एक प्रतीकात्मक सामाजिक वानिकी से ज्यादा नहीं बन सका। फिर समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में से अनुदान मिलने की गुंजाइश देखकर अनेक ग्राम पंचायतों ने भी पेड़ लगवाए पर बेमन से। इसलिए उनकी उपेक्षा स्वाभाविक ही थी।

विश्व बैंक और वन विभाग मानते ही नहीं वन-खेती से ग्रामीण रोजगार के अवसर छिन रहे हैं। लेकिन वे अपने पक्ष में कोई तथ्य भी पेश नहीं कर पाते। इस बात को कोई तुलनात्मक अध्ययन प्रकाशित नहीं हुआ है कि सिंचित और असिंचित भूमि में अन्य फसलों की तुलना में सामाजिक वानिकी से कितना कम या कितना ज्यादा रोजगार मिल रहा है। कालार अध्ययन का अनुमान है कि खाद्यान्न खेती को सफेदे की खेती में बदलने से सालाना 250 व्यक्ति-दिवस रोजगार प्रति हेक्टेयर कम होता है।

सामाजिक वानिकी में ग्रामीण महिलाओं का योगदान भी नहीं लिया गया जबकि इन कार्यक्रमों से उन्हीं के जीवन में कुछ सुविधा जुटने वाली थी। घर के लिए रोज-रोज का जलावन और चारा इकट्ठा करने का काम स्त्रियां ही करती हैं, पर इन सारी योजनाओं में दृष्टि नकद पर ही रखी गई है, घर की बुनियादी जरूरतों की बात सोची नहीं गई है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading