हाथ कटाने को तैयार ?

काम के अभाव में यहां के लोगों का पलायन जारी है। खामखेड़ा के बीरनलाल कहते हैं कि पहले तो हमें डुबो कर मार ड़ाला, अब काम ना देकर मार डालेगी ये सरकार !! पेट के बच्चे तक के लिये यहां पर योजनायें हैं लेकिन हम क्या विदेशी हैं, आतंकवादी हैं ? या सरकार हमें आतंकवादी बनाना चाहती है । जॉब कार्ड रखे-रखे बरसों हो गये है। पर काम नहीं मिला। बढ़ैयाखेड़ा के माहू ढ़ीमर कहते हैं कि जब काम नहीं, आने-जाने का रास्ता नहीं दे सकती सरकार तो केवल एक काम करे कि परमाणु बम और छोड़ दे । ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। वहीं बढ़ैयाखेड़ा के ही नवयुवक संतोष कहते हैं कि सरकार इन हाथों को काम नहीं दे सकती है तो फिर इन हाथों को कटवा क्यों नहीं देती है।

जबलपुर जिले के बींझा के गोपाल भाई जो कभी 25 एकड़ के किसान थे, का बेटा आज जबलुपर में रिक्शा चलाता है। मगरध गांव के 20 नवयुवक मेघालय/सूरत/तमिलनाडु में काम करने गये हैं। खामखेड़ा गांव खाली पड़ा है, वहां के रामस्वरुप, प्रहलाद, रामकिशन, गणेश, राजकुमार, रमेश और सुरेश सभी काम की तलाश में नरसिंहपुर गये हैं। खमरिया के नवयुवक और अधेड़ काम की तलाश में सिक्किम गये हैं। कठौतिया गांव से लोग हवेली गये हैं। आखिर क्या कारण है कि इन गांवों से लोग 1500 किलोमीटर दूर काम की तलाश में भटक रहे हैं।

क्रं

गांव का नाम

पंचायत

परिवार संख्या (लगभग)

1

भिरकी

मगरधा

12

2

कठौतिया

मगरधा

55

3

मगरधा

मगरधा

62

4

बढैयाखेड़ा

मगरधा

25

5

खमरिया

मगरधा

16

6

खामखेड़ा

मगरधा

14

7

गगंदा

तुनिया

65

8

बींझा

तुनिया

63

9

तुनिया

तुनिया

24

10

धुल्लापाठ

तुनिया

77

11

हरदुली

हरदुली

506

 

कुल

919

इसकी कहानी बड़ी निराली है । 1974 से बनना शुरु हुआ बरगी बांध तो प्रभावित हुये तीन जिलों मंड़ला, सिवनी और जबलपुर के 162 गांव। ज्ञात हो कि रानी अवंतीबाई परियोजना अंर्तगत् नर्मदा नदी पर बने सबसे पहले विशाल बांध बरगी से मंड़ला, सिवनी एवं जबलपुर जिले के 162 गांव प्रभावित हुये हैं और जिनमें से 82 गांव पूर्णतः डूबे हुये हैं। उसमें से भी जबलपुर जिले के 19 गांव पूरी तरह से डूबे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 7000 विस्थापित परिवार हैं, इनमें से 43 प्रतिशत आदिवासी,12 प्रतिशत दलित, 38 प्रतिशत पिछड़ी जाति एवं 7 प्रतिशत अन्य हैं। अब जब ये गांव डूबे तो फिर यह दूसरी जगह बसे । तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि ऊंची जगह जाकर बस जाओ। तो जिन्हें जितनी ही दूर पर टेकरी मिली वो उतनी ही दूर बस गये । उस समय की पुर्नवास नीति में तो यह प्रावधान ही नहीं था कि जमीन के बदले जमीन दी जायेगी। हालांकि यह एक अलग बहस का विषय है कि आज यह प्रावधान होने के बाद भी जमीन नहीं मिलती है । बहरहाल यह हुआ कि सभी 19 गांव के बाशिंदों को जहां जगह मिली, वहां पर वे बस गये। जिस गांव का जो नाम था वही इस गांव का नाम हो गया। यानी परिवर्तन स्थान में भर हुआ। लेकिन गांव वालों का कहना है कि हमें नहीं मालूम था कि हम इंदिरा गांधी और प्रशासन की बात मानकर गलती कर रहे हैं ।

आज खामखेड़ा वनग्राम है लेकिन जब हम वनविभाग से इस बात की तस्दीक करते हैं तो वह कहते हैं कि यह वनग्राम नहीं है, यह तो राजस्व ग्राम है और जब यही बात राजस्व ग्राम से पूछें तो पता चलता है कि यह तो वनग्राम है। इन सबसे मजेदार तो यह है कि सरकारी रिकार्ड में यह गांव तो वीरान गांव है। लेकिन खामखेड़ा ऐसा अकेला गांव नहीं है बल्कि खामखेड़ा जैसे लगभग कई गांव और है जो वीरान हैं। इनके वीरान भर कह देने से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि ये लोग कैसे प्रभावित हैं ? सबसे पहले तो इनके सामने अपनी पहचान का संकट है। ये गांव पंचायत में तो है लेकिन वीरान गांव में है।

वैसे तो मध्यप्रदेश के सरकारी रिकार्ड में 55393 गांव दर्ज हैं और उनमें से भी 52143 गांव आबाद गांव हैं। यानी बाकी बचे 3250 गांव वीरान गांव हैं । लेकिन जबलपुर जिले के 11 वीरान गांव कुछ खास हैं । और इन वीरान गांवों में खास यह है कि वह वीरान नहीं हैं ? इन वीरान गांवों में बसते हैं लगभग 919 परिवार। सवाल यही है कि यदि इनमें लोग बसते हैं तो फिर यह वीरान गांव कैसे ? और यदि इन्हीं का नाम वीरान है तो फिर बाकी गांवों को भी जांचना जरुरी है।

वैसे तो पूरे देश में रोजगार गारंटी योजना की धूम मची है और यह रोजगार गारंटी का पांचवां वर्ष है लेकिन इस वर्ष में यहां पर तो रोजगार गारंटी योजना मुंह चिढ़ा रही है। इन 11 गांवों के लोगों द्वारा कई बार काम मांगे जाने पर भी इन्हें काम नहीं मिलता है। कारण यही कि यह सभी ग्राम वीरान गांव हैं और यह अभी राजस्व गांव है या वन गांव । इसका फैसला अभी होना बाकी है। वैसे जबलपुर जिले में रोजगार गांरटी योजना अप्रैल 2008 में आई । उसके बाद यानी लगभग तीन वर्षों से यह लोग काम के लिये लगातार आवेदन दे रहे हैं लेकिन किसी को कोई भी काम नहीं मिला है। पंचायत ने भी अपनी ओर से कई आवेदन दिये हैं । तुनिया पंचायत के सरपंच श्री सुक्कु पटैल कहते हैं कि हमने तो अपनी ओर से ओवदन दिये हैं लेकिन ऊपर से काम नहीं आता है, कहते हैं कि रिकार्ड में नहीं है। हम भी कुछ नहीं कर सकते हैं। हम तो प्लॉन बना कर भिजा सकते हैं। मगरधा पंचायत के कठौतिया गांव के विजय सिंह पंच हैं और कहते हैं कि मैंने खुद पंचायत में विशेष ग्रामसभा के माध्यम से हमारे गांव की योजना बनाई है लेकिन सरकार ने मना कर दिया कि यह तो वीरान गांव है। पूछने पर कहते हैं कि यहां काम नहीं हो सकता है। विजय कहते हैं कि जब काम नहीं देना था तो जॉब कार्ड क्यों बना दिये ? केवल नाम के लिये !!!!

काम के अभाव में यहां के लोगों का पलायन जारी है। खामखेड़ा के बीरनलाल कहते हैं कि पहले तो हमें डुबो कर मार ड़ाला, अब काम ना देकर मार ड़ालेगी ये सरकार। पेट के बच्चा तक के लिये यहां पर योजनायें हैं लेकिन हम क्या विदेशी हैं, आतंकवादी हैं ? या सरकार हमें आतंकवादी बनाना चाहती है । जॉब कार्ड रखे-रखे बरसों हो गये है। बढ़ैयाखेड़ा के माहू ढ़ीमर कहते हैं कि जब काम नहीं, आने-जाने की रास्ता नहीं दे सकती सरकार तो केवल एक काम करे कि परमाणु बम और छोड़ दे । ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। वहीं बढ़ैयाखेड़ा के ही नवयुवक संतोष कहते हैं कि सरकार इन हाथों को काम नहीं दे सकती है तो फिर इन हाथों को कटवा क्यों नहीं देती है। ज्ञात हो कि 1 साल पहले यहां के नवयुवकों ने कलेक्टर से जिलाबदर करने की गुहार की थी।

बरगी बांध एवं प्रभावित संघ से जुड़े राजेश तिवारी कहते हैं कि इस बात पर गौर करने की आवश्यकता है। सरकार को वोट चाहिये तो लोगों के मतदाता परिचय पत्र हैं, बीपीएल में और राशनकार्ड भी बनवा दिये हैं लेकिन जब लोगों के पास काम ही नहीं है तो फिर वे खरीदेगे क्या ? और खायेंगे क्या ? जॉब कार्ड भी बनवा दिये गये हैं लेकिन लोगों के पास काम नहीं है। यह एक राजनीतिक सवाल भी है । उन्होंने कहा कि यह लोगों के काम के अधिकार के हनन के साथ-साथ लोगों के जीवन के अधिकार का भी हनन है। वहीं प्रशासन का कहना है कि इस मामले को शीघ्र निपटा लिया जायेगा। सवाल फिर वही है कि पिछले वर्ष जब तत्कालीन कलेक्टर हरिरंजन राव कठौतिया के दौरे पर थे तो उन्होंने कहा था कि बहुत जल्द लोगों को काम मिल जायेगा । लेकिन यह लोग आज भी काम की तलाश में भटक रहे हैं।

अव्वल तो यही है कि यह लोग बरगी बांध के कारण विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। लेकिन आज काम के अभाव में पलायन करने को मजबूर हैं । एक ओर तो पूरे देश में रोजगार गारंटी की धूम मची है लेकिन यहां के लोग काम के अभाव में अपने हाथ कटाने को मजबूर हैं। यहां सरकार के अतिरिक्त क्षेत्रीय आयुक्त बी.के.मिंज की रिपोर्ट का हवाला देना उचित होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार ने यहां पर लोगों को मरने के लिये छोड़ दिया है। सोचनीय यह है कि सरकार स्वयं कहती है कि लोग यहां मर रहे हैं तो सरकार ही बताये कि वह इन लोगों के लिये सम्मान के साथ जीने का जतन कब करेगी ?

जब इस मुद्दे पर जबलपुर जनपद पंचायत की मुख्य कार्यपालन अधिकारी सुश्री प्रतिभा परते कहती हैं कि मैं तो यहां पर नई आई हूं । मुझे नहीं मालूम क्या कारण है लोगों को काम नहीं मिलने का ? वैसे ये लोग खुद काम करते नही है। अब हमारे नॉलेज में यह मुद्दा आया है तो हम दिखवाते हैं। लेकिन जब उन्हें यह बताया गया कि लोगों ने तो रोजगार गारंटी के प्रावधानों के अंर्तगत् ही काम मांगा है और सरकार ने ही काम उपलब्ध नहीं कराया है तो उन्होंने कहा कि अच्छा ऐसा है क्या ? यानी सरकारी कारिंदे कितनी आसानी से गांववालों को और आमजनों को धोखे में रखते हैं और व्यवस्था का खेल खेलते रहते हैं। कार्यपालन अधिकारी को तो यह भी नहीं पता है कि उनके विकासखंड़ के किन्हीं 11 गांवों को मनरेगा आने के बाद पिछले पांच वर्षों में एक भी दिन का काम नहीं मिला है।

मैं तो यहां पर नई आई हूं । मुझे नहीं मालूम क्या कारण है लोगों को काम नहीं मिलने का ? वैसे ये लोग खुद काम करते नही है। अब हमारे नॉलेज में यह मुद्दा आया है तो हम दिखवाते हैं। प्रतिभा परते, मुख्य कार्यपालन अधिकारी जनपद पंचायत, जबलपुर

व्यवस्था पर एक करारा चोट यह भी है कि पिछले 22 वर्षों से 11 गांवों के बाशिंदे केवल यह सिद्ध करने में लगे हैं कि हम वीरान गावं में नहीं बल्कि आबाद गांव में बसते हैं। और इसका खामियाजा उन्हें ऐसे भुगतना पड़ रहा है कि काम का अधिकार कानून लागू हो जाने के बाद भी आज तक उनके पास काम नहीं है। इन गांवों के नौजवान पलायन कर रहे हैं लेकिन उनके पास काम नहीं है। वो सरकार से यह मांग कर चुके हैं कि हमें जिलाबदर कर दे लेकिन सरकार के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। इस सारी स्थितियों के बीच वे यही कहते हैं कि सरकार काम नहीं दे सकती है तो हाथ क्यूं नहीं काट देती है।

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