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हिम

हिम वायुमंडल की मुक्त हवा में बहते, उठते या गिरते समय जो पानी जमकर ठोस हो जाता है उसे हिम कहते हैं। हिम प्राय: षट्कोणीय सुंदर क्रिस्टलों के रूप में होता है। कभी कभी बदली के बिना भी हिमपात होतो है। इसका कारण हिम का स्वत: बन जाता है या हवा में जलबिंदुधारी साधारण मेघ बनने के लिए पर्याप्त जलवाष्प एकत्र होने के पहले ही ऊर्ध्वपातन केंद्रक के अस्तित्व में हिम का बन जाना है। अधिकांश हिम का रंग सफेद होता है। सफेद होने का कारण क्रिस्टलों के छोटे छोटे सतहों से प्रकाश परावर्तन है। कुछ क्षेत्रों के हिम; जैसे ग्रीनलैंड और उत्तरध्रुवीय क्षेत्र के, लाल और हरे रंग के भी पाए गए हैं। इनका यह रंग हिम में बहुत छोटे छोटे जीवित पदार्थों के रहने के कारण होता है। धूल के कणों के कारण हिम काला भी होता है।

हिम के प्रकार- मुक्त वायु में बहते समय बनने के कारण हिम क्रिस्टल कई प्रकार के होते हैं और बहुत ही सुंदर होते हैं। क्रिस्टलों में त्रिकोण सममिति होती है। क्रिस्टल संरचना से हवा का प्रकार भी जाना जा सकता है। पृथ्वी की सतह के एक तिहाई भाग पर ही हिमपात होता है। शेष दो तिहाई भाग पर कभी हिमपात नहीं होता। भारत के हिमालय के क्षेत्र में ही कश्मीर, कुँमाऊँ, दार्जिलिंग, आदि क्षेत्रों में हिमपात होता है।

धरती पर पहुँचनेवाले हिमकण कुछ मिमी. व्यास से लेकर कई सेमी. तक के हो सकते हैं। ये हिमकण षट्कोणाकार होते हैं। छोटे छोटे कणों को 300 मी की ऊँचाई से गिरने में घंटों समय लग सकता है। अत: जान पड़ता है, ये धरती के निकट ही बनते हैं क्योंकि हिमकणों के बनने लायक परिस्थिति कुछ ही समय तक रहती है। साधारण आकार के हिमकण आठ दस मिनटों में धरा पर आ पहुँचते हैं। ये संभवत: कुछ ही मील की ऊँचाई पर बनते हैं। कभी पदाभ मेघ से हिम बन जाते हैं।

कुछ सुंदरतम हिम क्रिस्टल ताराकार होते हैं। डिजाइन और आर्ट वर्क में इन्हीं हिम क्रिस्टलों को निरूपित किया जाता है। निचाई के बादलों में जो हिम बनते हैं वे बहुत हो नाजुक, जटिल और आदर्श होते हैं। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर कई प्रकार के संरचनावाले हिम क्रिस्टल दिखाई पड़ते हैं।

धरती पर पहुँचने पर हिमकणों में परिवर्तन होता है। धरती पर पहुँचने के पूर्व इनका धनत्व 0.10 से अधिक नहीं होता, सामान्यत: यह 0.05 होता है। धरती पर गिरने के बाद उसके कोरों का वाष्पीकरण हो जाता है। वाष्पीकरण द्वारा उड़ा हुआ जल अक्सर आस पास के क्रिस्टलों पर जम जाता है।

हिम क्रिस्टलों की प्रतिकृति- 1940 ई. में विंसेट जे. शेफर ने हिम क्रिस्टलों को साँचे में ढालने की तरकीब निकाली। सिंथेटिक रेज़िन पॉलीविनाइल फार्मल का 2% विलयन इथिलीन डाइक्लोराइड में विलीन किया गया और पानी के हिमांक से निम्न ताप पर हिमीकरण किया गया। इसकी पतली परत काँच के प्लेट या काले कार्डबोर्ड के टुकड़े पर फैलाई गई। काँच के प्लेट या कार्ड बोर्ड पर जब हिम क्रिस्टल गिरते हैं तब उसके दोनों सतहों पर विलयन का आवरण चढ़ जाता है। कुछ ही मिनटों में एथिलीन डाइक्लोराइड वाष्पीकृत हो जाता है और क्रिस्टल एक पतले, चिमड़े, सुघट्य खोल में आवृत रह जाते हैं। इस खोल की भीतरी सतह क्रिस्टल के दोनों सतहों को ठीक ठीक छाप लिए रहता है। जब मणिभ का ऊर्ध्वपातन हेता है या वह गल जाता है तब पानी ठोस सुघट्य पटल से निकल जाता है और खोल फॉसिल जैसा होता है। इसमें हिम क्रिस्टल के सभी वर्तन और प्रकाश-प्रकीर्णन-गुण ज्यों के त्यों रहते हैं।

तेज हवा से ये मीलों बह जाते हैं। हिम का उपयोग जलवितरण स्रोत के रूप में किया जाए, इसके लिए प्रयत्न कई स्थानों पर चल रहे हैं।

पहाड़ों पर गिरे हिम बड़े महत्व के हैं। उनके गलने से पानी बनता है वह नदियों का स्रोत होता है जिससे विद्युत्‌ उत्पन्न किया जा सकता है और सिंचाई हो सकती है। पहाड़ी प्रदेशों में हिमपात से मिट्टी में आर्द्रता आती है जिससे उसमें फसलें उगाई जा सकती हैं। पर हिम का पानी उतना अधिक नहीं है जितना वर्षा का पानी होता है।

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