हिमालय दिवस, हिमालय नीति और पर्यावरणविद्

6 Sep 2015
0 mins read
Himalaya
Himalaya

हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


असिंचित ढालदार भूमि, संरक्षित वन, सामूहिक अथवा निजी वन उनका भूमि उपयोग, सर्वेक्षण करवाकर पानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके तहत फल, चारा, व रेशा प्रजाति के पौधों के रोपण की वृहद योजना बननी चाहिए। ऐसा करने पर मैदानी क्षेत्रों के लिये पहाड़ों से निरन्तर उपजाऊ मिट्टी मिलेगी, नदियों का बहाव स्थिर होगा और जल की समस्या भी हल होगी। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण हिमालय के जल स्रोत, झरने, झीलें, बर्फानी एवं गैर बर्फानी नदियाँ सूखती ही जा रही हैं। शिमला में हुई हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की कॉनक्लेव में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने ग्रीन बोनस की घोषणा करते हुए यह भी आगाह किया था कि अपने देश के वैज्ञानिक कम-से-कम मौसम परिवर्तन और पिघलते ग्लेशियरों पर एक राय प्रस्तुत करें, ताकि भविष्य में कोई ठोस निर्णय लिया जा सके। इसी कॉनक्लेव में दो बड़े वैज्ञानिक ग्लेशियरों के पिघलने व बढ़ने पर दो ध्रुवों में बँट गए थे।

ज्ञातव्य हो कि पर्यावरणविदों का सवाल आज भी हिमालय पर अनियोजित परियोजनाओं को लेकर खड़ा है। ऐसे अनसुलझे सवालों को लेकर हिमालय दिवस के रूप में जता दिया कि अब तो हिमालय निवासियों के लिये पृथक से हिमालयी नीति बननी ही चाहिए।

पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा, सुरेश भाई, राजेन्द्र सिंह, पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी सरीखे शख्सों का एक मंच पर आना यह संकेत दे रहा है कि सरकारें हिमालय के संरक्षण व विकास को लेकर अब तक नाकाम ही साबित हुई है। वे सम्पूर्ण हिमालय में ऐसी जन चेतना जगाएँगे कि हिमालय की जैवविविधता का अब तक गलत दोहन ही हुआ है।

यही वजह है कि प्राकृतिक आपदाएँ तथा मौसम परिवर्तन के खतरे बढ़ते ही जा रहे हैं। सम्भावना जताई जा रही है कि हिमालयी नीति ना बनने तक पर्यावरणविद् आन्दोलन की राह पकड़ेंगे।

दरअसल पीछले 5-6 दशकों में जिस तरह प्रत्यक्ष रूप से हिमालयी पर्यावरण, लोक-जीवन, वन्य-जीवन, पारिस्थितिकीय लोकतंत्र एवं मानवीय बन्दोबस्तों को नुकसान पहुँचाया है, उसके दुष्परिणाम भयंकर रूप में सामने आने लगे हैं। विकास के नाम पर जीवनदायिनी नदियों पर जल विद्युत परियोजनाओं का बनाना, अन्धाधुन्ध खनन, सड़कों का बेतरतीब व अवैज्ञानिक निर्माण, सीमेंट कंक्रीट के जंगलों को बढ़ाना, उपजाऊ भूमि पर अतिक्रमण, कृषि भूमि व कृषि कार्य की निरन्तर अवहेलना जैसी गतिविधियों ने हिमालयी जन-जीवन में एक गम्भीर उथल-पुथल पैदा कर दी है।

इसके साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व के औद्योगीकरण के तीन सौ सालों का नुकसान भी हिमालय को झेलना पड़ रहा है। धरती के बढ़ते तापमान के साथ हिमालय में बढ़ते तापमान के भी प्रमाण सामने आ चुके हैं। परिणामस्वरूप ग्लेशियरों का पिघलना, सदानीरा नदियों का सूखना, मौसम चक्र में बदलाव जैसे गम्भीर खतरे दिखने लगे हैं। बता दें कि पश्चिम में लेह-लद्दाख से पूर्व में त्रिपुरा तक सब भयावह स्थितियों को हिमालय झेल रहा है।

जगजाहिर है कि हिमालय में रहने वाले करोड़ों लोगों के अलावा हिमालय पूरे दक्षिण एशिया में प्रत्यक्ष तथा एशिया के लिये अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के अमूल्य आधार जल, वायु और ज़मीन प्रदान करता है। इस भू-भाग से निकलने वाली नदियाँ व उनके साथ बहकर जाने वाली मिट्टी न केवल गंगा-यमुना के मैदान बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष व दक्षिण एशिया के कई देशों के लिये खाद्य सुरक्षा के स्थायी प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भाग अदा करती है।

मानसून जैसे वर्षा के चक्र के निर्माण में भी हिमालय का एकमेव महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिमालय तथा खुद को बचाने की चुनौती न केवल हिमालयवासियों के सामने है बल्कि दक्षिण एशिया व दुनिया के लिये भी ये एक बड़ी चुनौती है। हिमालय के बिगड़ते रूप के कारण हिमालयवासियों के आजीविका के साधन प्रभावित हो रहे हैं और उन्हें अपने जीवनयापन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने लिये जल, जंगल, ज़मीन पर स्थानीय समुदायों को अधिकार पाने के संघर्ष करने पड़ रहे हैं।

हिमालय सदैव मैदानों, नदियों तथा सम्पन्न मानव समाजों का निर्माणकर्ता और उनका रक्षक रहा है। आज भी वह भारत सहित कई देशों को कुल मीठे पानी की माँग का 40 प्रतिशत तक देता है।

वर्तमान विकास की उपभोगवादी अवधारण के हिमालय की उक्त भूमिका को एक सिरे से नकार दिया गया है और यह नजरअन्दाज करते हुए कि हिमालय विश्व का एक शिशु पर्वत है। ऐसी स्थिति में उसकी रचना व पर्यावरण से छेड़छाड़ करना घातक है। आज वही हिमालय पर्वत पारिस्थितिकीय संकट, विकास की गति, गलत नीतियों के फलस्वरूप असन्तोष और अशान्ति का केन्द्र बन गया है।

जन साधारण की चेतना में हिमालय का अर्थ केवल नदी, पर्वत और पेड़ों से ही होता है जबकि वास्तव में हिमालय अफगानिस्तान से लेकर वर्मा तक फैला हुआ है।

इस पूरे क्षेत्र में लोकतंत्र के संघर्ष, प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के जनान्दोलन, राष्ट्र राज्यों के आपसी संघर्ष व मन मुटाव, राजनैतिक अलगाव व दमन जैसे संघर्षों ने विगत चार-पाँच दशकों से इस पूरे क्षेत्र को एक छद्मयुद्ध का मैदान बना दिया है और इसका सबसे बड़ा कारण हमारे राष्ट्र राज्यों ने इस विशिष्ट भौगोलिक इकाई के लिये कोई पृथक विकास की योजनाओं को नजरअन्दाज करना माना जा रहा है।

9 सितम्बर 2010 से आरम्भ हुई पर्यावरणविदों की मुहिम ने पृथक हिमालय नीति के लिये बाक़ायदा एक जन घोषणा पत्र भी जारी किया है, जिसके लिये वेे लगातार अब हिमालय राज्यों में संवाद कायम कर रहे हैं। जन घोषणा पत्र में वे तमाम सवाल खड़े किये गए जिस नीति के कारण मौजूदा भोगवादी सभ्यता की बुनियाद पर आधारित जल, जंगल और खनिज सम्पदाओं का शोषण की गति तीव्र हुई है।

विकास के नाम पर वनों का व्यापारिक दोहन, खनन और धरती को डुबाने व लोगों को उजाड़ने वाले बाँधों, धरती को कम्पयमान करने वाले यांत्रिक विस्फोटो, जैसी घातक प्रवृत्तियों के कारण हिमालयवासियों के सामने जिन्दा रहने का संकट पैदा हो गया है।

सुझाव दिया जा रहा है कि असिंचित ढालदार भूमि, संरक्षित वन, सामूहिक अथवा निजी वन उनका भूमि उपयोग, सर्वेक्षण करवाकर पानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके तहत फल, चारा, व रेशा प्रजाति के पौधों के रोपण की वृहद योजना बननी चाहिए। ऐसा करने पर मैदानी क्षेत्रों के लिये पहाड़ों से निरन्तर उपजाऊ मिट्टी मिलेगी, नदियों का बहाव स्थिर होगा और जल की समस्या भी हल होगी। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण हिमालय के जल स्रोत, झरने, झीलें, बर्फानी एवं गैर बर्फानी नदियाँ सूखती ही जा रही हैं।

याद रहे कि हिमालय में निवास करने वाले लोग पहले स्वावलम्बी थे जैसे-जैसे उनके प्राकृतिक संसाधनों पर व्यवसायिक परियोजनाएँ संचालित होती गई वैसे-वैसे वे पलायन करते गए। आलम यह हो चुका है कि जंगल के प्रहरी के रूप में अब सरकार की ‘वन विभाग’ नाम की फौजें तैनात दिखाई दे रही हैं।

कौतुहल का विषय यह है कि एक तरफ स्थानीय हिमालयवासियों के हक-हकूको पर सरकारी कब्जा हो रहा है तो दूसरी तरफ जल विद्युत परियोजनाओं एवं वाइल्ड लाइफ जैसी योजनाओं ने लोगों को विस्थापन के लिये मजबूर कर दिया है। अब तो हिमालयी क्षेत्रों में दिन-प्रतिदिन पर्यटकों की आवक भी बढ़ती ही जा रही है और इसी के साथ-साथ नदियों के सिरहाने व ऊँचाई के क्षेत्रों में कूड़ा-कचरा की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई कि अधिकांश जलागम क्षेत्र विषैले व प्रदूषित हो चुके हैं।

हिमालय लोक नीति के दस्तावेज़ में इसके पुख्ता इन्तज़ाम होने की वकालत की गई है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये स्थानीय युवकों तथा ग्रामसभाओं को उपयुक्त प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि स्थानीय स्तर पर लोगों को रोज़गार मुहैया हो सके। हालांकि उत्तराखण्ड में ‘लोक पयर्टन’ जैसी प्रक्रिया चमोली के ‘देव ग्राम’ में कुछ युवकों ने आरम्भ कर रखी है। ऐसी सफल परियोजनाएँ हिमालय क्षेत्र के ऊँचाई पर रहने वाले निवासियों के लिये ही संचालित होनी चाहिए। ताकि हिमालय का पर्यावरण अनियोजित दोहन ना हो।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading