हिमालय के लिये आवश्यक है राष्ट्रीय नीति

11 Sep 2015
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हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


हिमालय देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 16 प्रतिशत भूभाग में फैला है और इसके 45 प्रतिशत क्षेत्र में आज भी घने जंगल है। इस क्षेत्र को समृद्ध जल भण्डार माना जाता है। इस जल भण्डार से रीस-रीसकर आये पानी की वजह से हिमालय तराई की नदियाँ सदानीरा बनी रहती हैं। हिमालय के ऊपरी चोटियों पर स्थित हिमखण्ड, ग्लेशियर तो पिघलते ही हैं, बरसात में भूगर्भ में समाहित होने वाला पानी भी रीसता है, नदियों से प्रवाहित होता है। सतह के भीतर भी प्रवाहित होता है। घने वन और चौड़ी पत्ती वाले पेड़ बरसाती पानी को रोकते हैं और भूगर्भ में जाने का मार्ग देते हैं। हिमालय क्षेत्र के वन निवासियों के पारम्परिक अधिकार और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्द्धन के तरीकों को अपनाने के बजाय आयातित परियोजनाएँ लागू करने से हिमालय में अतिक्रमण, प्रदूषण और प्राकृतिक आपदाएँ लगातार बढ़ रहे हैं।

सरकार को पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विकास की याद आई। उसके पहले हिमालयी क्षेत्र विभिन्न राज्यों के साथ थे और उन राज्यों के उपेक्षित क्षेत्र बने हुए थे। विकास की नियोजित योजना के तौर पर पाँचवी पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत ‘हिल एरिया डेवलपमेंट प्लान’ सामने आया। योजना के विस्तार में हिमालयी क्षेत्र को बड़े राज्यों से विभक्त कर अलग-अलग राज्य बना दिये गए।

पंजाब से हिमाचल प्रदेश निकला, असम से पर्वतीय क्षेत्र छिटकते गए। बाद में उत्तर प्रदेश से निकलकर उत्तराखण्ड बना। जो इलाके अलग नहीं हुए, उन्हें भी एक तरह की स्वयत्तता प्रदान कर दी गई, जैसे-दार्जिलिंग या असम का कार्बी आंग्लांग जिला। पृथक राज्यों के गठन की राजनीति के स्थानीय रंगत रहे। पर उपेक्षा का आरोप एक समान था।

हिमालय क्षेत्र में 11 राज्य बन गए। लेकिन असल दिक्कत यह थी कि विकास के मानक मैदानी थे। हिमालय क्षेत्र की ज़रूरतों के अनुरूप नहीं बनाए गए।

ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों और जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न हिमालयी पर्यावरण और प्रकृति का ध्यान नहीं रखा गया। संकट सिर्फ सरकारी योजनाओं का नहीं था, देश का प्रभु वर्ग और प्रभावशाली तबका हिमालय का महत्त्व समझने के लिये तैयार नहीं था। इसलिये गैर सरकारी अनियोजित विकास भी बड़े पैमाने पर हुआ।

छोटे राज्यों के गठन के बाद इसमें बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो गई। केन्द्र पर निर्भर छोटे राज्य इसे रोकने और हिमालय क्षेत्र की स्थायी आजीविका व जीवनशैली को बनाए रखने मेें सक्षम नहीें हो सके।

‘देश का मुकुट’ हिमालय देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 16 प्रतिशत भूभाग में फैला है और इसके 45 प्रतिशत क्षेत्र में आज भी घने जंगल है। इस क्षेत्र को समृद्ध जल भण्डार माना जाता है। इस जल भण्डार से रीस-रीसकर आये पानी की वजह से हिमालय तराई की नदियाँ सदानीरा बनी रहती हैं।

हिमालय के ऊपरी चोटियों पर स्थित हिमखण्ड, ग्लेशियर तो पिघलते ही हैं, बरसात में भूगर्भ में समाहित होने वाला पानी भी रीसता है, नदियों से प्रवाहित होता है। सतह के भीतर भी प्रवाहित होता है। घने वन और चौड़ी पत्ती वाले पेड़ बरसाती पानी को रोकते हैं और भूगर्भ में जाने का मार्ग देते हैं।

ढालदार पहाड़ियों पर चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगे, पहाड़ियों के बीच से आ रहे नदी-नालों के पानी से घराट और नहरें बनें। यह प्रकृति सम्मत आदर्श अवस्था है। बरसाती पानी का जलधारा बनना, कई धाराओं के मिलकर नदी का रूप लेना और छोटी-छोटी नदियों के मिलकर नदी बनने की सरल प्राकृतिक प्रक्रिया के बीच झीलों का बनना-टूटना, बादल फटना, पहाड़ टूटना आदि प्राकृतिक घटनाएँ भी हैं।

परन्तु भारी-भरकम बाँधों और सुरंगों के निर्माण ने हिमालय की प्रकृति सम्मत व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर दिया है। विद्युत परियोजनाओं के साथ चौड़ी सडकें, बड़ी-बड़ी इमारतें और तेजी से बढ़ता पर्यटकों का आवागमन, हिमालय को ही मटियामेट करने लगे हैं।

हिमालय के भारतीय क्षेत्र में 11 राज्य हैं। जहाँ से सांसदों की कुल संख्या 36 है। सब मिलकर भी संसद में ज़ोरदार आवाज़ नहीं बन पाते। वैसे कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों की भू-राजनीतिक परिस्थिति कुछ अलग है। वे उन्हीं मसलों से जूझते-उलझते रह जाते हैं। हिमालय के सवाल उठाने के लिये बस उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश ही बच जाते हैं।

इस तरह हिमालय का दंश देश के सामने नहीं आ पाता। लेकिन हिमालय से निकलने वाली नदियाँ जिन राज्यों से होकर गुजरती हैं और हिमालय के पर्यावरण का सीधा असर जिन राज्यों के पर्यावरण पर होता है, उन राज्यों को हिमालय के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों की लूट की चिन्ता करें तो दूसरी स्थिति होगी।

हिमालय केवल भारत की चिन्ता का विषय नहीं है। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, चीन, पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान भी हिमालय के पर्यावरण पर कमोबेश निर्भर हैं। लेकिन सामरिक और पर्यावरण की दृष्टि से अतिसंवेदनशील हिमालय क्षेत्र के लिये कोई मुकम्मल नीति नहीं है। ऐसी नीति जो हिमालय और उससे जुड़े देश के पर्यावरण के बारे में सोचे और हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समृद्धि का रास्ता भी इसी पर्यावरण से जोड़कर निकालें।

सामाजिक अभियानों से जुड़े लोगों ने जरूर आक्रामक विकास नीतियों को चुनौती देते हुए हिमालय लोकनीति तैयार की है और उसे लागू करने की लगातार पैरवी करती रही है। यह अभियान 2008 से चल रहा है और हिमालय की ओर देश और दुनिया का ध्यान खींचने की इस पहल का दायरा लगातार बढ़ रहा है।

इस बीच, हिमालयी क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियों के उद्गम व प्रवाह-क्षेत्र में जलप्रलय हो रहे हैं। नदियों के उद्गम क्षेत्र में 1978 से ही साल-दर-साल आपदाएँ आ रही हैं।

केदारनाथ का भूस्खलन, कश्मीर की बाढ़ और नेपाल के भूकम्प बड़ी घटनाएँ थीं जिसका शोर पूरी दुनिया में सुनाई दिया। पर हकीक़त में हिमालय से निकली नदियों की जलराशि पिछले 50 वर्षों में आधी रह गई है। ग्लेशियर प्रतिवर्ष 18-29 मीटर पीछे हट रहे हैं। हिमालय आपदाओं का घर बन गया है और हिमालय के प्राकृतिक संसाधन हाथ से खिसक रहे हैं।

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