हिमालय में चराई

बारह राज्यों में फैले हुए हिमालय क्षेत्र के अंतर्गत 6 करोड़ 15 लाख हेक्टेयर भूमि आती है। इनमें से 1 करोड़ 78 लाख हेक्टेयर भूमि में घने जंगल हैं और 17 लाख हेक्टेयर में बुग्याल (ऊंचाई) पर हैं। बुग्यालों का दो तिहाई हिस्सा हिमालय प्रदेश में है। ये 2,500 से 3,000 मीटर ऊंचाई पर हैं जहां पर जलवायु बिलकुल समशीतोष्ण है और इसलिए वहां पेड़ पनप नहीं पाते हैं। इन पहाड़ी चरागाहों को अपवाद ही मानना चाहिए। वरना घास के बाकी हिमालयी मैदान लोगों की कारस्तानी से उजड़ चुके हैं। एक तो वन विनाश के कार्यक्रम हाथ में लिए गए। और सारा बोझ इन चरागाहों पर आ गया। अब भी कई ऐसे चरागाह हैं जो बहुत पुराने हैं, दूर-दूर तक फैले हुए हैं और इस बात का अंदाज देते हैं कि प्रकृति का यह रूप कितना भव्य था। ये घास के मैदान इसलिए जिंदा हैं कि यहां चराई अंतराल छोड़कर की जाती है। घास के इस मखमली साम्राज्य में कोई पेड़ सिर उठाता है तो वह हिमपाल से कुंद पड़ जाता है। कुमाऊं और गढ़वाल के बुग्याल और कश्मीर के मर्ग इसके उदाहरण हैं।

हिमालय के इन चरागाहों पर कोई 2 करोड़ गाय-बैल, 1 करोड़ भैंस, 30 लाख भेड़ और 60 लाख बकरियां पलती हैं। पश्चिमी हिमाचल के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के आठ जिलों में 50 प्रतिशत गाय-बैल, 40 प्रतिशत भैंसें, 90 प्रतिशत भेड़ और 50 प्रतिशत से ज्यादा बकरियां हैं। पहाड़ी चरागाहों में गरमी के मौसम में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली घास के गुणों में लगातार गिरावट आ रही है। हिमाचल के अधिकांश हिस्सों में आज जिस जाति की घास पाई जाती है, वह अवनति की तीसरी या चौथी अवस्था में है और चौथी अवस्था ही आखिरी है। हिमालय के घास के मैदानों में आज उनकी असली क्षमता के 25 प्रतिशत तक की ही पैदावार हो रही है।

हिमालय में जंगलों में भी बड़े पैमाने पर पशु चराए जाते हैं। इसके अलावा, जंगल में पैदा होने वाली घास और दूसरे चारे लायक पेड़-पौधों को काटकर सुखाकर भी रखा जाता है।

कुमाऊं विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के अनुसार ऊंचाई वाले पहाड़ी इलाकों की अपेक्षा नीचे के चीड़ और बांज वाले जंगलों पर, जो घनी आबादी वाले क्षेत्रों के पास हैं, चराई का दबाव ज्यादा है। पिछले वर्षों में पत्ते वाले चारे की बड़ी कमी हो गई है क्योंकि चौड़े पत्ते वाले पेड़ों की जगह देवदार और फर जैसी नुकली पत्तीवाले पेड़ लगाए जा रहे हैं, जिन्हें जानवर नहीं खा सकते ।

हिमालय के चरागाहों और विभिन्न प्रकार के जंगलों से कितना चारा बाहर ले जाया जाता है इसका कोई ठीक अंदाज नहीं है, लेकिन 1970 के दशक में कई वैज्ञानिकों ने एक मोटा अंदाज लगाया था कि चमोली जिले में स्थानीय चरागाहों और जंगलों की क्षमता से पशुओं की संख्या 2.4 गुना है, चकराता तहसील में 4 गुना और अल्मोड़ा जिले में 4.5 गुना है।

वैज्ञानिक बताएंगे कि यहां जानवरों की ‘उत्पादन शक्ति’ बहुत कम है। पर जो इन्हें पालते हैं उनसे भी तो पूछिये इनकी उपयोगिता। वे बताएंगे कि ये मूक पशु ही उनके जीवन की वाणी हैं। ये उनका हल चलाते हैं और उन्हें खाद देते हैं। पहाड़ी इलाकों में गोबर खाद भी है और कीमती ईंधन भी। विकास ने यहां विनाश ही किया है। प्रकृतिक आपदा से दो-चार होने पर वे एक के बदले दो पशु पालने लगते हैं। बड़े पशुओं को पालना कठिन होने लगता है तो गाय आदि के साथ बकरी जैसे छोटे पशु भी रखने लगते हैं। पर देश का विकास करने वालों को उनकी ऐसी कोशिशें खलने लगती हैं। उन्हें इन लोगों की नहीं, हिमालय की, पर्यावरण की चिंता सताने लगती है।

आव्रजन के रास्ते


हिमालय में बंजारे पशुपालक भी बड़ी संख्या में हैं। स्थायी निवासियों से उनकी समस्या अलग प्रकार की है। जम्मू-कश्मीर के बाकरवाल और डोढ़ी गूजर लगातर यहां से वहां चलते रहते हैं। फिर भी इनमें से कुछ लोग अपने आव्रजन के रास्ते के अगल-बगल में बसने भी लग गए हैं। बाकरवाल सिर्फ भेड़-बकरी और डोढ़ी लोग भैंस पालते हैं। ये घुमंतू गरमियों में पीर पंजाल होते हुए कश्मीर के पहाड़ों पर पहुंचते हैं और आखिर में उत्तरी तथा उत्तरपूर्वी कश्मीर घाटी के ऊंचे से ऊंचे पहाड़ पर जाते हैं। जहां, 10,000 से 15,000 फीट की ऊंचाई पर सोनमर्ग जैसे हरे-भरे चरागाह हैं।

जाड़ों के शुरू होते ही ये जम्मू जैसे गरम क्षेत्रों की दिशा में उतर आने लगते हैं। जाड़ों में अपने पशुओं को जुते खेतों से बचाए रखकर चलना कठिन होता है। अगर ये लोग जाड़े के चराई इलाकों में ज्यादा समय रुक जाएं तो वहां के किसानों से झगड़े होने का पूरा-पूरा अंदेशा रहता है।

बाकरवाल साल में 100 से 250 दिन घूमते रहते हैं और इस दौरान लगभग 2000 किलोमीटर का सफर करते हैं। वे झुंड में चलते हैं और अपना डेरा निर्जन क्षेत्रों में लगाते हैं। अनाज और तैयार चीजों वे पास के गांवों से ले आते हैं। आमतौर पर गांव वाले उन चरवाहों के पास अपना सामान रख देते हैं और जब चरवाहे आगे जाने को होते हैं तब हिसाब चुकता करने आते हैं। घुमंतू लोग उन चीजों के बदले में अपना भुगतान मक्खन, पनीर, कंबलों और खालों के रूप में करते हैं।

हाल के वर्षों में अमीर बाकरवालों में अपने पशुओं को देकर जमीन-जायदाद जैसी स्थायी संपत्ति जुटाने कि वृत्ति भी बढ़ी है। जिन रास्तों से होकर वे घूमा करते हैं, उनके पास के क्षेत्र का बाजार आजकल गरम हो चला है। जमीन से उन्हें सुरक्षित जायदाद का एहसास होता है और खेती-बाड़ी से सालाना आय भी निश्चित होती है।

कश्मीर के गूजरों की संख्या बाकरवालों से ज्यादा है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के गद्दियों की तरह वे अर्ध घुमंतू हैं। जाड़ों में ऊंचे पहाड़ों पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं। गरमियों में इधर-उधर जाते हैं, और तब तंबुओं में रहते हैं। अक्सर उनके पास कुछ जमीन भी होती है जिसमें वे ज्यादातर मकई उगाते हैं। कश्मीर में इन पूरे और अर्ध घुमंतुओं की कुल संख्या अंदाजन 25 से 50 लाख तक की है। पशुपालन योजनाओं का लाभ इनको शायद ही मिला है, क्योंकि ऐसी योजनाएं खासतौर पर स्थायी आबादी के पशुओं के लिए ही बनी हैं।

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