हिमालय में खुलता एक मोर्चा


पिछले दिनों हिमाचल के रोहतांग से लेह तक एक सुरंग के उद्घाटन की खबर को मीडिया में काफी जगह मिली थी। ऐसा इसलिए भी क्योंकि इसका उद्घाटन करने यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी खुद गई थीं। राज्य के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने इस सुरंग को रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण करार देते हुए चीन पर आरोप लगाया था कि वह सीमा पर बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा संबंधी निर्माण कार्य करवा रहा है, जिससे पर्यावरण और सीमा सुरक्षा को कई दिक्कतें पैदा हो सकती हैं।

यह बात अपने आप में अंतर्विरोधी है, क्योंकि जिस मौके पर यह बात कही गई, वह खुद एक बुनियादी ढांचा परियोजना के उद्घाटन का अवसर था। इसे भी भारत-चीन सीमांत इलाके में ही बनाया जा रहा है। क्या यह बात हम पर भी लागू नहीं होती? विकास से जुड़ी किसी भी सीमांत परियोजना के ऐसे अंतर्विरोध एक बड़ी बहस को जन्म देते हैं। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि चीन या कोई अन्य देश अगर सीमा पर निर्माण कार्य करे, तो वह देश की सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक हो जाए। जबकि यही काम अगर हम करें तो इसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बता कर इसका जश्न मनाया जाए?

रणनीति और सुरक्षा के नाम पर चलाई जाने वाली ऐसी निर्माण परियोजनाओं ने देश के सुदूर सीमांत इलाकों को कैसे बरबाद किया है, इसका एक दृश्य हाल ही में देखने को मिला। हिमाचल के किन्नौर जिले का सीमांत गांव रकछम कहने को तो सैलानियों के लिहाज से काफी अपरिचित और टटका है, लेकिन यहां पहुंचने की राह में ही मन खट्टा हो जाता है।

किन्नर कैलाश की बर्फीली चोटियों से घिरे हुए इस गांव में कुल करीब आठ सौ की आबादी होगी। यहां से तिब्बत की सीमा बहुत करीब है और हिंदुस्तान के आखिरी गांव छितकुल की दूरी गाड़ी से महज आधे घंटे की है। यहां पहुंचने की राह में हालांकि ऐसा लगता है कि आप हिंदुस्तान में नहीं, बल्कि निजी कंपनियों के किसी उपनिवेश से गुजर रहे हों। सांगला घाटी से होकर बहने वाली नदी बास्पा को करीब पचास किलोमीटर पहले ही जयप्रकाश एसोसिएट नामक कुख्यात बांध निर्माता कंपनी ने सुरंग में बांध दिया है। रास्ते में धूल-धक्कड़ इतनी कि सांस लेना मुश्किल है। यहां बास्पा-2 पनबिजली परियोजना का काम चल रहा है।

कभी रकछम गांव में 20-25 फुट बर्फ गिरा करती थी। यहां के लोग बताते हैं कि यहां के लोगों ने कभी बारिश नहीं देखी थी क्योंकि यहां सीधे बर्फबारी ही होती है।

यहां के पूर्व ग्राम प्रधान यशवंत सिंह नेगी कहते हैं, ‘‘अब तो यहां चार फुट बर्फ ही गिरती है। बारिश भी होती है। बास्पा-2 परियोजना से तो यह हाल हुआ है, जबकि इस परियोजना का दूसरा चरण बनने पर तो इलाका तबाह ही हो जाएगा।’’

किन्नौर के मानचित्र पर यदि इन परियोजनाओं को काले बिंदुओं से दर्शाया जाए, तो समूचा नक्शा काला हो जाता है। सवाल उठता है कि इन परियोजनाओं से आखिर कौन सी रणनीतिक सुरक्षा हम यहां के जनजातीय समाज को देने जा रहे हैं?किन्नौर जिला दरअसल ग्रेट हिमालयन डेजर्ट यानी शीत मरूस्थलीय क्षेत्र है। यहां बर्फबारी और बादल फटने के कारण सतलुज नदी में भयंकर बाढ़ आती है, क्योंकि सतलुज के जल संग्रहण क्षेत्र का नब्बे फीसदी हिस्सा शीत मरूस्थलीय क्षेत्र में स्थित है। 2000 और 2005 की बाढ़ अब भी यहां के लोगों को याद है। इसके अलावा यह क्षेत्र भूकंपीय मानचित्र के जोन-4 में स्थित है और सीमांत होने के कारण सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। इसके बावजूद सरकार ने यहां जिन जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी है, वे बेहद खतरनाक हैं।

किन्नौर जिले में एक के बाद एक लगातार कई निर्माणाधीन और प्रस्तावित जल विद्युत परियेाजनाओं ने यहां के वजूद पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। सतलुज जल संग्रहण क्षेत्र में नाथपा झाकड़ी (1500 मेगावाट), संजय परियोजना (120 मेगावाट), बास्पा-2 (300 मेगावाट) तथा रूकती (1.5 मेगावाट) परियोजनाएं पहले से ही क्रियान्वित हैं और करच्छम-वांगतू (1000 मेगावाट), काशंग-1 (66 मेगावाट) और शौरंग (100 मेगावाट) परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इनके अलावा चांगो-यंगथंग (140 मेगावाट), यंगथंग-खाब (261 मेगावाट), खाब-श्यासो (1020 मेगावाट), जंगी-ठोपन (480 मेगावाट), ठोपन-पोवारी (480 मेगावाट), शौंगठोंग-करच्छम (402 मेगावाट), टिडोंग-1 (100 मेगावाट) तथा टिडोंग-2 (60 मेगावाट) परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है। इसके अतिरिक्त श्यासो-स्पीलो (500 मेगावाट), काशंग-2 (48 मेगावाट), काशंग-3 (130 मेगावाट), बास्पा-1 (128 मेगावाट) तथा रोपा (60 मेगावाट) परियोजनाएं प्रस्तावित हैं।

स्थिति यह है कि यहां के मानचित्र पर यदि इन परियोजनाओं को काले बिंदुओं से दर्शाया जाए, तो समूचा नक्शा काला हो जाता है। सवाल उठता है कि इन परियोजनाओं से आखिर कौन सी रणनीतिक सुरक्षा हम यहां के जनजातीय समाज को देने जा रहे हैं?

इसके ठीक उलट इन परियोजनाओं के निर्माण से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा ही पैदा हो रहा है। ऐसी कोई भी परियोजनाओं युद्धकाल में दुश्मन के लिए सॉफ्ट टार्गेट का काम करती है। गौरतलब है कि चीन के साथ इन परियोजनाओं के मद्देनजर भारत ने कोई जल संधि नहीं की है। चीन पहले ही सतलुज नदी पर अनेक बांध बना चुका है और सतलुज के पानी को पूर्वी तिब्बत की ओर मोड़ने की योजना बना रहा है। ऐसे में रक्षा व गृह मंत्रालय की मंजूरी के बगैर इस इलाके को बड़े पैमाने पर निजी कंपनियों की चरागाह बनाए जाने का फैसला सामरिक दृष्टि से कई सवाल खड़े करता है।

ऐसी घटनाएं आए दिन आज समूचे हिमाचल में आम हो चुकी हैं। सरकारी प्रश्रय के चलते निजी कंपनियों द्वारा इन सुदूर इलाकों में नियम-कानून के उल्लंघन के मामले भी देखने में आ रहे हैं। किन्नौर के हिम लोक जागृति मंच के कागजात बताते हैं यहां खनन और मॉक डंपिंग का काम धड़ल्ले से अनियमित व अवैज्ञानिक ढंग से जारी है।

आज से पांच साल पहले ही राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आकलन व परिवीक्षा समिति ने जेपी कंपनी को निर्देश दिए थे कि वह वर्ष 2000 में आई बाढ़ के अधिकतम स्तर के भीतर किसी तरह की मॉक डंपिंग न करे और न ही कोई निर्माण कार्य किया जाए। इस निर्देश की धज्जियां उड़ाते हुए सरकारी व सेना की जमीन पर कंपनी अब भी मॉक डंपिंग किए जा रही है। इससे खतरा पैदा हो गया कि कभी भी यदि इस इलाके में बाढ़ आई, तो इस मलबे के बहने से गांव के गांव बह जाएंगे। ऐसी त्रासदी हिमाचल के सोलन में दो साल पहले देखने में आई है जिसके लिए जेपी कंपनी ही जिम्मेदार थी। इसके अलावा जेपी कंपनी ने ही बाल्टरंग नामक गांव में बीचोबीच पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करते हुए एक क्रेशर प्लांट भी लगा लिया है।

करच्छम-वांगतू परियोजना में जेपी कंपनी को खनन के लिए कोई भी प्रमुख खदान मंजूर नहीं की गई है। इस कारण कंपनी रेता, पतर व बजरी नदी किनारे से तथा सुरंगों से निकाले गए मलबे से प्राप्त कर रही है। सुरंगों से निकाले गए मलबे से यदि बजरी आदि कंपनी तैयार करती है, तो कंपनी द्वारा उसके लिए सरकार व संबंधित ग्राम पंचायतों को रॉयल्टी दिए जाने का प्रावधान है। इसके उलट कंपनी ने न तो इसके लिए सरकार से कोई इजाजत ली है और न ही अब तक रॉयल्टी दी गई है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि जिस तेजी से यहां की जनता में प्रतिरोध पनप रहा है, सरकार की दमनकारी नीतियां भी उतनी ही तीखी होती जा रही हैं। पिछले दिनों हिमाचल के चम्बा में हुआ गोलीकांड इसका सबूत है। कंपनियों, ठेकेदारों और सरकारों की मिलीभगत से यहां किसी भी तरह के विरोध को दबाने की भरपूर कोशिशें जारी हैं।

एक ऐसी ही घटना 9 दिसंबर 2006 को घटी जब किन्नौर में ग्रामीण वांगतू नामक स्थान पर पारंपरिक पूजा करने जा रहे थे। लोगों के हाथों में न झंडे थे न बैनर। इसके बावजूद प्रशासन ने उन्हें काक्स्थल नामक स्थान पर रोक लिया। उन पर लाठीचार्ज किया गया और गोलियां बरसाई गईं। स्थानीय लोगों ने वांगतू गोलीकांड की जांच की मांग की, जिसे सरकार ने ठुकरा दिया। बांद में काफी दबाव पड़ने पर एक सदस्यीय जांच कमेटी द्वारा इस गोलीकांड की जांच करवाई गई। नारंग कमेटी ने इस गोलीकांड के लिए अपनी रिपोर्ट में प्रशासन को दोषी ठहराया था। इसके बावजूद आज तक प्रशासन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

सामरिक सुरक्षा से कहीं ज्यादा बड़ा सवाल यहां के जनजातीय समाज में बढ़ रहा असंतोष है, जिसकी एक झलक पिछले पर्यावरण दिवस को किन्नौर के जिला मुख्यालय रिकांग पिओ में देखने को मिली थी। इन परियोजनाओं के खिलाफ समूचे हिमाचल, उत्तराखंड, कश्मीर यानी हिमालयी समाज से हजारों लोग यहां इकट्ठा हुए थे। यह सवाल अब सिर्फ हिमाचल तक सीमित नहीं रह गया है। उत्तराखंड में टिहरी के बाद प्रस्तावित करीब 250 परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन समेत जम्मू-कश्मीर की नाजुक स्थितियां इसके साथ सांस्कृतिक और भौगोलिक स्तर पर जाकर जुड़ती हैं। ऐसा पहली बार हुआ था कि हिमालयी क्षेत्र के परियोजना विरोधी लोग इतनी बड़ी संख्या में एकजुट हुए। वे अब समझ चुके हैं कि उत्तराखंड, हिमाचल या जम्मू-कश्मीर में बांधों व पनबिजली परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन और बरबादी के खिलाफ लड़ाई अलग-थलग रह कर नहीं की जा सकती।

हिमाचल के इस सुदूर इलाके में पारंपरिक रूप से शांत रहने वाला समाज अब भीतर से खदबदा रहा है। आंतरिक सुरक्षा के मसले पर मध्य भारत में अपने ही लोगों से लड़ रही सरकार के लिए यह एक और खुलता हुआ मोर्चा हैकिन्नौर, या कहें समूचे हिमाचल में लोगों के प्रतिरोध आंदोलन का स्वरूप बाकी देश के आंदोलनों से जरा भिन्न है। यहां हमें उस किस्म के आंदोलन और उनके कारण देखने को नहीं मिलते हैं, जैसे झारखंड, उड़ीसा या किसी भी मध्य या पूर्वी भारत के राज्य में मौजूद हैं। यहां का समाज पर्याप्त पढ़ा-लिखा है। लोगों के पास अपनी जमीनें हैं और वे काम भर का उगा-खा लेते हैं। हिमाचल के गांवों में वैसी गरीबी या भुखमरी देखने को नहीं मिलती जिसके आदी हम बिहार या झारखंड में देखने के हैं।

यह तथ्य जान कर अचरज होगा कि केंद्रीय प्रशासनिक सेवाओं में इस क्षेत्र के प्रमुख जनजातीय समुदाय नेगी की संख्या राजस्थान के मीणा के बाद सबसे ज्यादा है। और इससे भी दिलचस्प बात यह है कि किन्नौर में परियोजना विरोधी आंदोलनों का नेतृत्व यहां के रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में है।

इन आंदोलनों के प्रमुख नेता और रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी आर.एस. नेगी कहते हैं, “सवाल किन्नौरी लोगों के अस्तित्व का है। आखिर किन्नौर किसका है? किन्नौरियों का या कंपनियों का? जब तक यहां से कपनियों को भगाया नहीं जाएगा, किन्नौर का बचना मुश्किल है।”

पहाड़ों में पारंपरिक रूप से मातृसत्तात्मक जनजातीय समाज रहा है। और जहां कहीं भी महिलाओं ने किसी आंदोलन में शिरकत की है, उस आंदोलन का सफल होना तय रहा है। इस मामले में हम उत्तराखंड के शराबबंदी आंदोलन को गिन सकते हैं जहां महिलाओं ने बड़ी कामयाबी कुछ साल पहले हासिल की थी और अपने-अपने इलाकों में शराब के ठेके बंद करने पर प्रशासन को मजबूर कर डाला था। किन्नौर के आंदोलन की भी खास बात इसमें महिलाओं की भागीदारी है। रिकांग पिओ में पर्यावरण दिवस पर आयोजित रैली में करीब सत्तर फीसदी स्थानीय महिलाओं ने शिरकत की, जो बताता है कि यहां का आंदोलन चेतना के स्तर पर काफी संपन्न है।

हिमाचल के इस सुदूर इलाके में पारंपरिक रूप से शांत रहने वाला समाज अब भीतर से खदबदा रहा है। आंतरिक सुरक्षा के मसले पर मध्य भारत में अपने ही लोगों से लड़ रही सरकार के लिए यह एक और खुलता हुआ मोर्चा है जिसे नजरअंदाज करना उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है। पहली वजह तो यही है कि सीमांत इलाकों के आंदोलन रणनीतिक और सामरिक स्तर पर सरकार के खिलाफ एक बड़ी दिक्कत पैदा करने की क्षमता रखते हैं। दूसरे, हिमालय के पर्यावरण का सवाल सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। समूची दक्षिण एशियाई पारिस्थितिकी के लिहाज से हिमालयी पर्यावरण और समाज की सेहत निर्णायक है। नदियों को जल देने से लेकर मैदानी इलाकों में धन-धान्य पैदा करने की क्षमता हिमालयों से ही आती है। सीमापार निर्माण कार्यों के जवाब में इस ओर भी अंधाधुंध निर्माण का होना दरअसल एक गलती के जवाब में दूसरी गलती को दुहराना है। दोनों से नुकसान सिर्फ स्थानीय जीवन और आजीविका का ही होगा।

किन्नौर के आंदोलन को आज देश भर के विभिन्न जनांदोलनों ने अपना समर्थन दिया है। चाहे वह झारखंड हो, पूर्वोत्तर के राज्य अथवा छत्तीसगढ़, मूल सवाल एक ही है जो हिमालयी क्षेत्रों पर भी लागू होता है- प्राकृतिक संसाधनों का निजी पूंजी द्वारा दोहन और जनता की बदहाली। अंतर सिर्फ स्थानीयता का है। यही वजह है कि आज हिमालयी क्षेत्र के आंदोलनों में जितनी दिलचस्पी यहां के लोगों की है, उससे कहीं ज्यादा झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा आदि के जनांदोलनों के लोकप्रिय चेहरों की है।

मध्य और पूर्वी भारत के जनांदोलन आज काफी परिपक्व हो चुके हैं और वे ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि हिमाचल के इन आंदोलनों को अपने अनुभवों से समृद्ध कर सकें। इस बात की अहमियत किन्नौर की जनता समझती है। ऐसा शायद पहली बार हुआ होगा कि इतने सुदूर क्षेत्र में आयोजित विरोध रैली ने एक स्वर में ऑपरेशन ग्रीनहंट की निंदा की। जैसा कि एक किन्नौरी नौजवान कहता है- “हमें हर सवाल का जवाब चाहिए। और इसके लिए हम सबके पास जाएंगे। हमें किसी से कोई परहेज नहीं। आखिर सवाल हमारे जीवन और आजीविका का है।”

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