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हिमालय

हिमालय पर्वतमाला भारत के उत्तर में भारत और तिब्बत के मध्य में सिंध एवं ब्रह्मपुत्र नदियों से घिरी हुई विश्व की सबसे विशाल पर्वतमाला है। यह उत्तर में तिब्बत और भारत एवं दक्षिण में भारत, सिक्किम, भूटान के मध्य प्राकृतिक रोध का कार्य करता है तथा भारत को उत्तर में शेष एशिया से पृथक्‌ करता है। बरमा के उत्तरी सिरे पर यह पर्वतप्रणाली दक्षिण पश्चिम की ओर दोहरा मोड़ लेती हैं और पटकोइ श्रेणी एवं पहाड़ी के रूप में आराकान योमा तक चली जाती है। इस पर्वतमाला की लंबाई 2,500 किमी, चौड़ाई 100 से लेकर 400 मी तथा क्षेत्रफल लगभग 5,00,000 वर्ग किमी है। इस पर्वतमाला के कुछ शिखर विश्व के सर्वेच्च शिखर हैं। सिंध नद के उत्तर पश्चिम में इस पर्वतमाला का जो क्षेत्र हिंदूकुश की ओ पामीर से दक्षिण में फैला हुआ है ट्रैंस हिमालय कहलाता है। हिमालय पर्वतमाला पश्चिम से पूर्व की ओर धनुषाकार फैली हुई है और इसका उत्तलभाग भारत के उत्तरी मैदान की ओर है। हिमालय एक पर्वतमाला नहीं है वरन्‌ इसमें कई पर्वतश्रेणियाँ है।

प्राचीन भूगोलविद् भी इस पर्वतमाला से परिचित थे। वे इस पर्वतमाला को इमस (Imaus) या हिमस (Himaus) तथा हीमोड के नाम से जानते थे। इमस या हिमस नाम इस पर्वतमाला के पश्चिमी भाग और हीमोड नाम पूर्वी भाग के लिए प्रयुक्त होता था। सिकंदर के साथ आए यूनानियों ने इसे भारतीय कॉकेशस (Indian Caucasus) नाम से पुकारा था।

उच्च उभाड़, हिमाच्छादित शिखर, गहरी कटी हुई स्थलाकृति, पूर्ववर्ती अपवाह, जटिल भूवैज्ञानिक संरचना तथा उपोष्ण अक्षांश में समृद्ध शीतोष्ण वनस्पति हिमालय की विशेषताएँ हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर फैली इन पर्वतश्रेणियों के दो भागों में विभक्त किया गया है : (1) पश्चिमी हिमालय तथा (2) पूर्वी हिमालय। काली नदी पूर्व में पश्चिमी हिमालय की सीमा बनाती है जबकि सिंगालित्मा की ऊँची अनुप्रस्थ श्रेणी पूर्वी हिमालय की पश्चिमी सीमा बनाती है। उत्तर से दक्षिणी की ओर हिमालय पर्वतमाला को तीन भागों में विभक्त किया गया है : (1) उत्तर में वृहत्‌ हिमालय या हिमाद्रि (2) दक्षिण में शिवालिक या बाह्म हिमालय।

(1) बृहत्‌हिमालय या हिमाद्रि- ये उत्तर में हिमालय की सर्वोच्च और प्रधान श्रेणियाँ हैं। बृहत्‌ हिमालय नया नाम है। प्राचीन नाम हिमाद्रि था। इन श्रेणियों को पूर्व और पश्चिम दो भागों में बाँट सकते हैं। पश्चिमी भाग कराकोरम है। समुद्रतल से इस भाग की औसत ऊँचाई 8,000 मी से अधिक है। इस भाग का सर्वोच्च शिखर ऑस्टिन या के2 (8,611 मी) है। पूर्वी भाग में माउंट एवरेस्ट (8.848 मी) तथा कांचनजुंगा (8,598 मी) आदि स्थित हैं। यह पर्वतीय चाप पश्चिम और पूर्व में एकाएक समाप्त होकर अध:स्थायी शैलों की अक्षसंधि (Syntaxial) मोड़ की समानरूपता को प्रकट करता है। ये श्रेणियाँ असममित हैं जिनमें दक्षिण की ओर अत्यल्प पर्वतस्कंध (Spurs) हैं। इसकी उत्तरी ढाल धीरे धीरे ढालवाँ होती है और कुछ महत्वपूर्ण नदी घाटियों में चली जाती है। ये घाटियाँ बहुत दूर तक समांतर चली गई हैं। हिमाद्रि के क्रोड में ग्रेनाइट है तथा इसके पार्श्व में रूपांतरित तलछट हैं। इसकी दक्षिणी ढाल से सतलज एवं सिंध नदी तथा इसके पूरब से ब्रह्मपुत्र एवं सानपों नदी निकलती है।

(2) लघु हिमालय- यह बृहत्‌ हिमालय के दक्षिण में स्थित हिमालय की मध्यश्रेणी है। इसकी अधिकतम ऊँचाई लगभग 5,000 मी और चौड़ाई 75 किमी है। काश्मीर की घाटी और नेपाल में काठमांडू की घाटी बृहत्‌ एवं लघु हिमालय के मध्य में स्थित हैं। काश्मीर की घाटी समुद्रतल से 1,700 मीटर ऊँची, 150 किमी लंबी तथा 80 किमी चौड़ी है। यह श्रेणी अत्यधिक संपीडित एवं परिवर्तित शैलों की बनी है। इनका निर्माणकाल ऐल्गॉङ्‌किन (Algonkin) काल से लेकर आदिनूतन (Ecocene) तक है। यहाँ के कुछ शिखर वर्ष भर हिमाच्छादित रहते हैं। इस श्रेणी का प्राचीन नाम हिमाचल है।

(3) बाह्य हिमालय- यह पर्वतमाला हिमालय का बाह्यतम गिरिपाद है। इसे शिवालिक पर्वत भी कहते हैं। यह लघु हिमालय एवं गंगा के मैदान के मध्य में स्थित हैं। इसकी औसत ऊंचाई 600 मी से लेकर 1,500 मी तक है। इस श्रेणी को हिमालय से निकलकर मैदान में बहनेवाली अनेक नदियों ने कई भागों में बाँट दिया है। यह श्रेणी उत्तर पश्चिम में शिवालिक, उत्तर प्रदेश के उत्तर पूर्वी भाग में डुंदवा और बिहार में चुरिया आदि के नाम से प्रसिद्ध है। शिवालिक पहाड़ियाँ तृतीय काल के नवीनतम शैल हैं। इस पर्वतप्रणाली का नाम देहरादून के समीप की शिवालिक पहाड़ियों के नाम पर पड़ा है। यह पर्वतमाला सुदूर उत्तर में उठते हुए हिमालय की नदी के निक्षेप से बनी है। बाद में पृथ्वी की हलचल के कारण यह दृढ़ीभूत, वलित एवं भ्रंशित हुई। मध्यनूतन (Miocene) से लेकर निम्न अत्यंत नूतन (lower pleistocene) तक के हिमालय के उत्थान के च्ह्रि इसपर मिलते हैं। कगारभ्रंश (fault scarps), अपनत शीर्ष (anticlinal crest) तथा अभिनत पहाड़ियाँ (Synclinal hills) शिवालिक की विशेषताएँ हैं। शिवालिक पहाड़ों के शिखरों पर कगार हैं तथा ढाल के उतार पर चौरस संरचनात्मक घाटियाँ हैं जिन्हें दून (dunes) कहते हैं। शिवालिक के आंतरिक भाग में समांतर कटकों और संरचनात्मक घाटियों की श्रेणियाँ हैं। शिवालिक पहाड़ियों में स्तनी वर्ग के समृद्ध जीवाश्म पाए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं : डिनोथेरियम, मैस्टोडोन, इलेफ़स, स्टेगोडोन, हिप्पोपोटमस, इड्रेथेरियम, सिवथेरियम्‌ पल-हयेना, जिराफ़, हिप्परिऑन तथा एप।

पश्चिम हिमालय पश्चिम हिमालय को पश्चिम से पूर्व की ओर चार क्षेत्रों में विभाजित किया गया है : उत्तरी काश्मीर हिमालय, दक्षिणी काश्मीर हिमालय, पंजाब हिमालय और कुमायूँ हिमालय।काश्मीर हिमालय- हिमालय का सबसे चौड़ा भाग काश्मीर में है। यह पश्चिम से पूर्व की ओर 700 किमी लंबा तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 500 किमी चौड़ा है। इसके पर्वतीय क्षेत्र का क्षेत्रफल 3,50,000 वर्ग किमी है। यहाँ की ऊँचाई, जंगलों, मिट्टियों, जलवायु एवं अभिगम्यता में बड़ा वैषम्य है। काश्मीर क्षेत्र में संपूर्ण हिमालय की अपेक्षा अधिक हिम और हिमनद हैं। इसके भी प्रमाण हैं कि भूतकाल में पहलगाम से लेकर काश्मीर की घाटी तक में हिमनदी ने बड़े भूभाग को घेर रखा था। वृहद् हिमालय की श्रेणी को उत्तरी काश्मीर और दक्षिणी काश्मीर के मध्य विभाजनरेखा मान सकते हैं।

दक्षिणी काश्मीर हिमालय- जम्मू पहाड़ियाँ काश्मीर शिवालिक का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये पहाड़ियाँ झेलम नदी से लेकर रावी तक फैली हुई हैं। ये पहाड़ियाँ बहुत कटी हुई हैं और अभिनत घाटियाँ प्राय: कटक (ridge) बनाती हैं। इन पहाड़ियों के दक्षिण में शुष्क पथरीली धरातल की झालर (fringe) है जिसे कंडी कहते हैं। इस कंडी में धरातल पर सिंचाई के लिए जल नहीं हैं। जम्मू पहाड़ियों के पीछे पुंछ पहाड़ियों हैं जो प्रारंभिक बलुआ पत्थर एवं शैल की बनीं हैं। इनकी अधिकतम ऊँचाई 3,000 मी है। इन पहाड़ियों का झुकाव शैल के नतिलंब (Strike) के अनुरूप है। जम्मू पहाड़ियों के उत्तर में लघु हिमालय की प्ररूपी श्रेणियाँ हैं। इस पट्टी की औसत ऊँचाई 3,000 मी एवं औसत चौड़ाई 100 किमी है। इस पट्टी की विशेषता इसका ऊबड़ खाबड़पन तथा स्पष्ट उभार है। इस पट्टी के निम्नतल, 400 मी में मुज्फ्फराबाद के सीप जेहलम महाखड्ड है। श्रीनगर से 50 किमी दक्षिण पश्चिम में पीर पंजाल का 4,743 मी ऊँचा शिखर है। काश्मीर के इस खंड की अधिकांश रेटिक्क श्रेणियाँ अनुदैर्ध्य प्ररूप की हैं और ये या तो बहुत हिमालय से द्विशाखित होती हैं या उससे तिरछी फैली हैं तथा कई अनुप्रस्थ श्रेणियाँ हैं। पीर पंजाल पहले प्रकार का उदाहरण है। यह बृहत्‌ हिमालयश्रेणी से नंगा पर्वत के 100 किमी दक्षिण पश्चिम से निकलकर पूर्व की ओर 400 किमी में फैला हुआ है। क्षेपभ्रंश (thurst faulting) के कारण पीर पंजाल की व्युत्पत्ति हुई है। इस श्रेणी में पीर पंजाल (3,494 मी) तथा बनिहाल (2,832 मी) नामक दो प्रसिद्ध दर्रें हैं। बनिहाल दर्रा भारत के मैदानी भाग से काश्मीर की घाटी में जाने का प्रमुख मार्ग है। यह श्रेणी चनाब, जेहलम तथा किशनगंगा से भंग हो गई है। पीर पंजाल की औसत ऊँचाई 4,000 मीटर है पर इसके कुछ शिखर, विशेष: लाहुल में, वर्ष भर हिमाच्छादित रहते हैं।

उत्तरी काश्मीर हिमालय- सिंध नद काश्मीर को विकर्णत: पार करता है और यहाँ इसकी कुल लंबाई 650 किमी है। यह तिब्बत में 250 किमी लंबे बृहत्‌ वक्र में बहने के उपरांत दमचौक के दक्षिण पूर्व में कश्मीर में प्रवेश करता है। दमचौक से शकार्दु तक असममित घाटी में बहने का कारण यह है कि नदी का दाहिना किनारा ग्रैनाइट शैल का एवं बाया किनारा तृतीय काल के चूनापत्थर एवं शेल का है। इस नदी में बाएँ किनारे पर जास्कार, द्रास एवं अस्तोर नदियाँ तथा दाहिने किनारे पर श्लोक एवं शिगर नदियाँ मिलती हैं।

सिंध नदी के उत्तर में कराकोरम पर्वत स्थित है। इसे संस्कृत साहित्य में कृष्णगिरि कहा गया है। यह ऊँचे शिखरों एवं बहुत से हिमनदों का क्षेत्र है। कराकोरम के अनेक हिमनदों की धाराएँ तीव्र गति से बहनेवाली तथा मध्यस्थ हिमोढ़ (mdial moraines) है। सायचेन (Siachen) हिमनद इस प्रकार का है और नुब्रा नदी को जल प्रदान करता है। रिमो (Rimo) हिमनद अपने प्रकार का है और इसके द्वारा एक ही साथ उत्तर में बहनेवाली यारकंद नदी तथा दक्षिण में बहनेवाली श्योक नदी का जलभरण होता है। यहाँ की सर्वोच्च आबाद घाटी ब्रल्दु (Braldu) हिमालय का द्वितीय सर्वोच्च शिखर के2 (8,611 मीटर) पश्चिमी कराकोरम में है। इसके अतिरिक्त हिडेन पीक (8,068 मी) ब्राड पीक (8,047 मी) तथा गशरब्रुम द्वितीय (8,035 मी) अन्य शिखर हैं। संसार के आठ हजार मीटर से ऊँचे 14 शिखरों में से चार कराकोरम में हैं। रकपोशी (Rakposhi 7,788 मी) यहाँ के अन्य प्रसिद्ध शिखर हैं। कराकोरम की घाटियाँ ग्रीष्म में बड़ी गर्म रहती हैं पर यहाँ की रातें, विशेषकर शीतकाल में, अत्यधिक ठंढी रहती हैं।

लद्दाख पठार काश्मीर हिमालय के उत्तर पूर्वी भाग में है। तथा इसकी औसत ऊँचाई 5,300 मीटर है। यह भारत का सर्वोच्च पठार है। 5,300 से लेकर 5,800 मी की ऊँचाई तक तीन समप्राय भूमि (pene plain) के अवशेष इस पठार में हैं। यह भारत के अगम्य, उच्च एवं शुष्क भागों में से एक है। यहाँ का संपूर्ण भूभाग सोपाननुमा है। चांगचेन्मो (Chang chenmo) श्रेणी लद्दाख को दो स्पष्ट भागों में विभाजित करती है। चांग चेन्मो श्रेणी के उत्तर में चांग चेन्मो नदी असममित तथा चौरस तलवाली घाटी में पश्चिम की ओर बहती है। यहाँ अनेक गर्म स्रोत हैं। ऊँची ढालों पर पर्वतीय झीलें हैं। सुदूर उत्तर में आंतर अपवाह बेसिन है, जो मध्यजीवी (Mesozoic) कल्प के चूनापत्थर और शेल के कटने से बनी है। इस बेसिन में अनेक लवणजलीय झीलें हैं जिनका अपवाह अभिकेंद्री है। यह पठार पर्वत एवं मैदानों में विभाजित है। दक्षिण से उत्तर की ओर लिंग्जितांग (Lingzitang) मैदान, लोकजुंग (Lokzhung) पर्वत ऑक्साइ (Aksai) श्रेणी तथा सोडा (Soda) मैदान हैं। यहाँ के मैदानों में भूतकालीन हिमनदक्रिया के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। ये मैदान पूर्णत: शुष्क एवं वनस्पतिरहित हैं। यहाँ खानाबदोश भी चरागाह की खोज में घूमने का साहस नहीं करते है।

पंजाब हिमालय- हिमालय का वह भाग जो पंजाब और हिमाचल प्रदेश में पड़ता है पंजाब हिमालय कहलाता है। इसमें हिमालय के तीनों खंड, बृहत्‌ हिमालय, लघु हिमालय तथा बाह्य हिमालय, स्पष्टत: विद्यमान हैं। सिंध और जेहलम के अतिरिक्त पंजाब के मैदानश् को उपजाऊ बनानेवाली सभी नदियाँ हिमालय के इसी भाग से निकली हैं।

काश्मीर की पीर पंजाल श्रेणी रावी के नदीशीर्ष से कुछ उत्तर में हिमाचल प्रदेश में प्रवेश करती है और पूर्व की ओर 120 किमी तक चली गई है तथा उत्तर में चिनाव और दक्षिण में व्यास एवं रावी की जलविभाजक बनती है। यहाँ पीर पंजाल का उच्चतम शिखर 5,000 मी ऊँचा है और सदा हिमाच्छादित रहता है। रावी के दक्षिण में व्यास की घाटी की ओर चापाकार हिमाच्छादित सवलाधर (Dhaoladhar) श्रेणी है और इसका उत्तल भाग काँगड़ा की घाटी की ओर है। धवलाधार का सर्वोच्च शिखर 5,000 मीटर से कुछ अधिक ऊँचा है। काँगड़ा घाटी व्यास नदी के जरा दक्षिण से धवलाधर श्रेणी के पाद से लेकर हमीरपुर पठार के उत्तरी छोर तक चली गई है। हिमालय के इस भाग का महत्व संभावित खनिज तेल संपदा के कारण बढ़ गया है। व्यास के ऊपर का भाग कुलु घाटी कहलाता है और यह रोहतांग दर्रें (Rohtang pass) द्वारा लाहुल एवं स्पिटी घाटी से संबंधित है। कुल के दो उच्च शिखर शिखर देओ तिब्वा (Deo Tibba, 6,001 मी) तथा इंद्रासन (6,220 मी) हैं।

कुमायूँ हिमालय- हिमालय का यह भाग उत्तर प्रदेश राज्य में है। इस भाग में गंगा एवं यमुना नदियों के स्रोत हैं। कुमायूँ हिमालय का क्षेत्रफल लगभग 38,000 वर्ग किमी है और हिमालय के तीनों खंड, बृहत्‌ हिमालय, लघु हिमालय तथा बाह्य हिमालय, इस क्षेत्र में है।

कुमायूँ हिमालय में बृहत्‌ हिमालय का क्षेत्रफल लगभग 6,600 वर्ग किमी है। गंगोत्री हिमाल गंगोत्री एवं केदारनाथ हिमनदों का और नंदादेवी हिमाल माइलम एवं पिंडारी हिमनदों का भरण करते हैं। गंगोत्री हिमनद 30 किमी लंबा है और इसके चार सहायकों में से प्रत्येक 8 किमी लंबा है। बद्रीनाथ के ठीक ऊपर नीलकंठ है। कुमायूँ हिमालय का सर्वोच्च शिखर नंदादेवी (7,817 मीटर) है। नंदादेवी के पूर्वी एवं पश्चिमी शिखरों को 3 किमी लंबे एव 7,500 मी ऊँचे भयावह क्रकची कटक जोड़ते हैं। दूनागिरि (7,066 मी) उत्तरी भुजा के दक्षिणी सिरे पर तथा त्रिशूल (7,120 मी) दक्षिणी भुजा पर है। यहाँ अन्य शिखर नंदकोठ (6,861 मी), नंदाकना (6,309 मी) तथा नंदाद्युंती (6,063 मी) है। सुदूर पश्चिम में जास्कार श्रेणी पर कामेट हिमाल है जिसका कामेट शिखर 7,756 मी ऊँचा है। विष्णुगंगा के पश्चिम में गंगोत्री हिमालय के ऊपर शिखरों का दूसरा समूह है जिसमें निम्नलिखित शिखर सम्मिलित हैं : सटोपंथ (7,084 मी), बद्रीनाथ (7,138 मी), केदारनाथ (6,940 मी), गंगोत्री (6,614 मी) तथा श्रीकंठ (6,728 मी)।

कुमायूँ हिमालय के लघु हिमालय के खंड में मुख्यत: दो रेखीय श्रेणियाँ हैं। मसूरी और नागतिब्बा। मसूरी श्रेणी मसूरी नगर से लैंसडौन तक 120 किमी लंबाई में फैली हुई है। इस श्रेणी की 2,000 मी से 2,600 मी की ऊँचाई तक की चोटियों पर अनेक पहाड़ी नगर हैं। देहरादून से यह दक्षिणी खड़ी ढाल सहित समतल शीर्षवाली श्रेणी दिखाई पड़ती है। मसूरी हिमालय के पहाड़ी नगरों की रानी कहलाता है। नैनीताल के समीप अनेक ताल हैं जिनमें से नैनीताल एवं भीमताल उल्लेखनीय हैं। नैनीताल से 30 किमी उत्तर में दूसरा पहाड़ी नगर रानीखेत है।

कुमायूँ हिमालय अर्थात्‌ शिवालिक श्रेणियाँ, गंगा एवं यमुना नदियों के मध्य में 74 किमी तक फैला हुआ है और जंगलों से अच्छादित इसकी ढालें और समतल चोटियाँ 900 मी से लेकर, 1,000 मी तक ऊँची हैं। शीर्ष सामान्यत: कठोर संगुटिकाश्म का बना हुआ है और ढालें कोमल चूनापत्थर के बनी हैं। हरद्वार से ऋषिकेष तक शिवालिक माला में गहरी ढालों एवं कगारों के अनुक्रम हैं। शिवालिकमाला के पीछे संरचनात्मक गर्त समांतर चले गए हैं और ये पश्चि में पूर्व की अपेक्षा अधिक विकसित हैं। पश्चिम में देहरादून प्ररूपी संरचनात्मक गर्त है जो 75 किमी लंबा और 15-20 किमी चौड़ा है।

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