हिरोशिमा के रेडियोधर्मी तत्‍व से मिले हिमालयी भूकम्पों से जुड़े कई संकेत

31 Jul 2017
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भारतीय एवं यूरेशियन प्‍लेटों के निरंतर होने वाले टकराव के कारण पिछले 100 वर्षों में पाँच बड़े भूकम्प इस क्षेत्र में आए हैं। डॉ. पेरूमल के अनुसार ‘हिमालय में भी सागरीय निम्‍नस्‍खलन क्षेत्रों जैसी तीव्रता के भूकम्प आते हैं और 1950 के असम-तिब्‍बत भूकम्प का संबंध पूर्वी हिमालय के अग्रभाग में आए अन्‍य भूकम्पों से हो सकता है।’

हिमालय में आए अब तक के सबसे तीव्र भूकम्प के बारे में भारतीय भू-वैज्ञानिकों ने अहम खुलासा किया है। पूर्वी हिमालय के अगले हिस्‍से में वर्ष 1950 में आए 8.6 रिक्‍टर की तीव्रता वाले इस भूकम्प को असम-तिब्‍बत भूकम्प के नाम से जाना जाता है। सतह पर इस भूकम्प के स्‍पष्‍ट संकेत न होने के कारण पहले इसके विस्‍तार और प्रभाव के बारे में भू-वैज्ञानिकों को जानकारी नहीं थी। वैज्ञानिक समुदाय के बीच यह धारणा थी कि इस भूकम्प के लिये जिम्‍मेदार भ्रंश सतह के भीतर हो सकते हैं। अध्‍ययन के बाद पहली बार इस भूकम्प के कारण सतह पर दरार होने का पता चला है।

अध्‍ययन में यह भी स्‍पष्‍ट हुआ है कि इस भूकम्प के कारण हिमालय के इस क्षेत्र में संचित तनाव आंशिक अथवा पूरी तरह से मुक्‍त हो गया है। इसके कारण वैज्ञानिकों का मानना है कि इस क्षेत्र में निकट भविष्‍य में किसी बड़े भूकम्प की आशंका कम हो गई है। यह अध्‍ययन देहरादून स्थित वाडिया इंस्‍टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और संस्‍थानों ने मिलकर किया है।

यूरेशियन और भारतीय भौगोलिक प्‍लेटों में निरंतर टकराव होने के कारण करीब 2500 किलोमीटर की लंबाई में फैले हिमालय में छोटे-बड़े भूकम्प अक्‍सर आते रहते हैं। इन दोनों भौगोलिक प्‍लेटों के निरंतर टकराव से पैदा होने वाला तनाव संचित होता रहता है और इस ऊर्जा के प्रस्‍फुटन से भूकम्पों का जन्‍म होता है। लेकिन हिमालय की जटिल बनावट के कारण इस क्षेत्र में होने वाली भौगोलिक हलचलों और उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव की जानकारी भू-वैज्ञानिकों को आसानी से नहीं मिल पाती है।

अध्‍ययनकर्ताओं की टीम में शामिल डॉ आर जयनगोंडापेरूमल ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि ‘‘आमतौर पर भू-वैज्ञानिक यह आकलन करने में जुटे रहते हैं कि इस तरह के भूकम्प भविष्‍य में हिमालय के किन क्षेत्रों में और कब आ सकते हैं। इसके लिये पूर्व भूकम्पों, भौगोलिक हलचलों और उनके प्रभाव के बारे में जानकारी होना आवश्‍यक है। इस अध्‍ययन से मिली जानकारियों की मदद से भविष्‍य में हिमालय में होने वाली भौगोलिक उथल-पुथल के बारे में कई अन्‍य खुलासे भी हो सकते हैं।’’

अध्‍ययन की एक और खास बात यह है कि इसमें सीएस-137 आइसोटोप को डेटिंग के लिये उपयोग किया गया है। यह रेडियोधर्मी तत्‍व हिरोशिमा नागासाकी पर परमाणु हमले का एक सह-उत्‍पाद है। रेडियोकार्बन डेटिंग संभव न होने के कारण अध्‍ययन के दौरान पूर्वी हिमालय में पाए गए सीएस-137 आइसोटोप को डेटिंग का आधार बनाया गया और पासीघाट क्षेत्र (अरुणाचल प्रदेश) में ट्रेंच बनाकर मल्‍टी-रेडियोमीट्रि‍क विश्‍लेषण किया गया।

डॉ पेरूमल ने बताया कि ‘‘पहली बार इस अध्‍ययन में वर्ष 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी में की गई परमाणु बमबारी के रेडियोधर्मी प्रभावों के भारतीय उप-महाद्वीप में पहुँचने का भी खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों को जापान के इन दोनों शहरों में की गई परमाणु बमबारी से उत्‍पन्‍न सीएस-137 आइसोटोप हवा के जरिये भारतीय उप-महाद्वीप में पहुँचने के प्रमाण मिले हैं। वर्ष 1948 में हवा के बहाव का विश्‍लेषण करने के बाद वैज्ञानिक इस निष्‍कर्ष पर पहुँचे हैं।’’

भारतीय एवं यूरेशियन प्‍लेटों के निरंतर होने वाले टकराव के कारण पिछले 100 वर्षों में पाँच बड़े भूकम्प इस क्षेत्र में आए हैं। डॉ. पेरूमल के अनुसार ‘हिमालय में भी सागरीय निम्‍नस्‍खलन क्षेत्रों जैसी तीव्रता के भूकम्प आते हैं और 1950 के असम-तिब्‍बत भूकम्प का संबंध पूर्वी हिमालय के अग्रभाग में आए अन्‍य भूकम्पों से हो सकता है।’ उन्‍होंने बताया कि ‘हिमालयी क्षेत्र में मुख्य रूप से आठ रिक्टर परिमाण से बड़े भूकम्पों का उद्गम स्थल उच्च हिमालय है। यहाँ पर उत्पन्न हिमालय के अग्रभाग तक चट्टानों को विस्थापित करते हैं।’

वाडिया इंस्‍टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, फिजिकल रिसर्च लैबोरेट्री, सीडैक, कुमाऊं विश्‍वविद्यालय और पॉडिचेरी विश्‍वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा संयुक्‍त रूप से किया गया यह अध्‍ययन हाल में साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

अध्‍ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. पेरूमल के अलावा प्रियंका सिंह राव, अर्जुन पांडेय, राजीव लोचन मिश्रा, ईश्‍वर सिंह, रविभूषण, एस रामाचंद्रन, चिन्‍मय शाह, सुमिता केडिया, अरुण कुमार शर्मा और गुलाम रसूल भट्ट शामिल थे।

Twitter handle : @usm_1984


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