हम और हमारे वन

सुबह हुई
अपने चारों ओर नजर दौड़ाइए। पक्षियों का कलरव शुरू हो गया है। वे अपने नीड़ों से जागकर पेड़ों की शाखों और फुनगियों पर चहचहाने लगे हैं। अपने पंख फैलाकर आसमान में उड़ान भरने लगे हैं। बाग-बगीचों और फूलों की क्यारियों में रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ रही हैं। मधुमक्खियाँ और तमाम कीट-पतंगे उड़ रहे हैं। घास के मैदानों में जानवर चर रहे हैं। वन-बीहड़ों में जंगली जानवर कुलाँचे भर रहे हैं। नदियों में मछलियाँ तैर रही हैं। चारों ओर जीवन की हलचल है।

हम हैं, हमारी प्यारी धरती है और है हमारा आकाश! इस धरती पर जड़ और चेतन का अपना संसार है। हर चीज एक दूसरे से जुड़ी है, उनका एक सन्तुलन बना हुआ है, जहाँ यह सन्तुलन मौजूद है, वहाँ प्रकृति का हर वरदान मिला हुआ है। शुद्ध हवा, धूप, पानी और शान्ति, जहाँ यह सन्तुलन शेष नहीं रहा, वहाँ प्रकृति का श्राप मिल रहा है - जहरीला वातावरण, कर्कश कोलाहल, अनावृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ के रूप में।

हमारी इस धरती पर जीवन है, जीवन की इस धड़कन के आधार हैं- हमारे पेड़-पौधे, हमारी वनस्पतियाँ। ये पेड़ पौधे हमें हरा चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी, औषधियाँ, रेशे, फल और फूल ही नहीं-जिन्दा रहने के लिए साँस भी देते हैं। पेड़ हमारे जीवन के आधार हैं। हम हैं, क्योंकि पेड़-पौधे हैं। पेड़-पौधे न रहें तो धरती पर जीवन की धड़कन ही बन्द हो जायेगी।

इतिहास गवाह है कि वन विनाश होने पर सभ्यताओं का भी विनाश हो गया। अतीत में सिन्धु घाटी सभ्यता विलुप्त हुई। इसी प्रकार से पुरातत्व शोध से पता चलता है कि इस सभ्यता के अवशेष रेत की 7 परतों से ढके हैं अर्थात यहाँ 7 बार सभ्यता स्थापित हुई और खत्म हुई। परसिवल स्पीयर ने अपनी पुस्तक ‘द वण्डर दैट वाज इण्डिया’ में इस तथ्य को उजागर करते हुए लिखा है कि सम्भवतः तत्कालीन मनुष्य का प्रकृति को न समझ पाना ही इस विनाशलीला का कारण था। पेड़-पौधे हमारे कल-कारखानों द्वारा रात-दिन उगले हुए जहरीले धुएँ को पीकर हमें जीवित रहने के लिए प्राणवायु ‘ऑक्सीजन’ देते हैं। पेड़-पौधे न हों तो हम जो धुआँ पैदा कर रहे हैं, उसी में हमारा दम घुट जाए, परन्तु पेड़ों के इस उपकार को कितने लोग याद रखते हैं?

बेरहमी से वनों का सफाया करते और पेड़ों को धराशायी करते समय हम यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं अपने हाथों से सांसों के कारखानों को उजाड़ कर अपने अस्तित्व पर संकट उत्पन्न कर रहे हैं।

आज भौतिक प्रगति की दौड़ में हम पेड़ों का महत्त्व भूल रहे हैं। हमारे लिए पेड़ जीवन का आधार नहीं बल्कि बिक्री का सामान या महज ईंधन बन गया है। जहाँ भी मनुष्य ने यह भूल की है, वहाँ प्राकृतिक विपदाएँ टूट रही हैं। अनुमान है कि एक हेक्टेयर क्षेत्र में उगे हुए वयस्क वृक्ष हर साल 3.7 टन प्रदूषित वायु को सोखकर 2 टन प्राण वायु ‘ऑक्सीजन’ हमें देते हैं। इस प्रकार पेड़-पौधे हमारा हर तरह से उपकार कर रहे हैं।

आइए, पेड़ों के उपकार को पहचानें और अपने घरों के आस-पास, खतों, बाग-बगीचों व खाली भूमि पर सुन्दर उपयोगी वृक्ष पीपल, बरगद, नीम, आम, जामुन, अमलतास, गुलमोहर, महुआ, बेल, इमली, शीशम, सिरस, अर्जुन, कंजी, बबूल, सु-बबूल, विलायती बबूल, यूकेलिप्टस आदि न केवल रोपित करें बल्कि रोपित पौधों की देखभाल शिशु की तरह करें। प्रारम्भ में पौधों को हमारा सहारा चाहिए, बड़े होकर वे हमारा सहारा बनते हैं। वनों से प्रत्यक्ष व परोक्ष लाभ निरन्तर प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय वन नीति 1988 व राज्य वन नीति 1998 के अनुरूप देश व प्रदेश का एक तिहाई भू-भाग वनाच्छादित हो। उत्तर प्रदेश में वनावरण भौगोलिक क्षेत्र का 5.86 प्रतिशत तथा गैर वन भूमि में वृक्षावरण भौगोलिक क्षेत्र का 3.4 प्रतिशत है। इस प्रकार हम देखते हैं कि 33 प्रतिशत भू-भाग में वनावरण के सापेक्ष मात्र 9.26 प्रतिशत भू-भाग में ही वनावरण व वृक्षावरण है।

इन सुन्दर परोपकारी पेड़-पौधों के साथ ही प्यारे और निराले पशु-पक्षियों की एक अपनी दुनिया है। हर सुबह हम पक्षियों के कलरव से जागते हैं और हर शाम इनके मधुर कुंजन के साथ ढलती है। ऋतुराज बसंत का आगमन कोयल की कुहू-कुहू के साथ होता है तो पावस ऋतु की अगवानी मोर अपनी ‘मियांव-मियांव’ के साथ करते हैं। नन्ही गौरय्य्या से लेकर कबूतर, मैना, बुलबुल, तोते, तीतर, हुदहुद, कठफोड़वा, सारस और नीलकंठ आदि तमाम पक्षी हमारी दुनिया को रंगीन बनाते हैं। ये पक्षी हमें अनेक लाभ भी पहुँचाते हैं। इन रंग-बिरंगे पक्षियों के साथ ही हमारे वन-प्रांतरों में सुन्दर वन्य प्राणी कुलाचें भरते हैं। हमने अनेक निरीह वन्य पशुओं का बेरहमी से शिकार किया, लेकिन आज हमें इन मूक पशुओं की संख्या बढ़ाने का संकल्प करके अपनी भूल सुधारने का प्रयास करना चाहिए। हमारे घरों के इर्द-गिर्द उछलती-कूदती नन्हीं गिलहरी हो या दुर्लभ कृष्ण मृग अथवा सघन वन के निवासी शेर, भालू, हाथी ये सभी हमारे पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं। जीने का जितना हक हमें है, उतना ही इन सब प्राणियों को भी है।

जब हमारे आस-पास पेड़-पौधे होंगे और पशु-पक्षियों की चहल-पहल होगी, तभी हमारी दुनिया में जीवन की असली हलचल होगी। हमारा पर्यावरण पूर्ण होगा और हम माँ प्रकृति के सानिध्य में रहनेका सुख पा सकेंगे।

हमारे जीवन में वनों का महत्व


.वन किसी भी राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण संसाधन होते हैं और उसके सर्वांगीण विकास में योगदान देते हैं। हमारे देश में तो उनका महत्व और भी अधिक है क्योंकि वे आध्यात्मिक चेतना के स्रोत भी हैं। वन किसी देश की भौतिक उन्नति के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। वनों से प्राप्त होने वाले प्रकाष्ठ तथा अन्य पदार्थों पर मानव समाज इतना निर्भर है कि प्रति व्यक्ति काष्ठ का उपयोग समाज की सम्पन्नता का मापदण्ड माना जाने लगा है। वनों से निम्नलिखित लाभ होते हैं:-

(I) प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ


वन मानव जाति को निम्नलिखित प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ पहुँचाते हैं।

(1) ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत
वन, ऊर्जा के महत्त्वपूर्ण नवकरणीय स्रोत हैं। अगले 20 या 25 वर्ष में सम्भावित ऊर्जा दुर्भिक्ष से संसार में ऊर्जा के इस स्रोत का महत्व और भी बढ़ जाता है। यद्यपि भारत में वर्तमान समय में परमाणु तथा सौर ऊर्जा से लेकर जल तथा ताप विद्युत, तेल आदि अनेक स्रोतों से ऊर्जा की आवश्यकता पूरी की जाती है तथापि नगर तथा ग्रामवासियों की घरेलू आवश्यकताओं के लिए अब भी काष्ठ ईंधन सबसे बड़ा स्रोत है। वन ऊर्जा सम्पूर्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस समय भी हमारे देश में जहाँ वन नहीं हैं वहाँ नगरीय तथा ग्रामीण जीवन बहुत कष्टमय है क्योंकि वहाँ न तो भोजन पकाने के लिए ईंधन मिलता है और न मृत व्यक्ति के दाह संस्कार के लिए लकड़ी। ईंधन के अभाव की पूर्ति ग्रामवासी गोबर को कण्डे के रुप में जलाकर करते हैं और इस प्रकार वे खाद के रूप में मिलने वाले गोबर को नष्ट कर देते हैं।

(2) रोजगार के अवसर
ऊर्जा के स्रोत के समान ही वन एक अन्य महत्त्वपूर्ण लाभ-रोजगार के अवसर, प्रदान करते हैं। यद्यपि वन उपज पर आधारित बड़े-बड़े उद्योगों से नगरों और उनके आस-पास रहने वाले व्यक्तियों को रोजगार मिलता है तथापि उससे अधिक महत्व उन रोजगारों का है जो वन, वनवासियों तथा वन के आस-पास ग्रामों में रहने वाले उन अदक्ष तथा अल्पदक्ष मजदूरों को मिलता है जिनके लिए रोजगार की अन्य कोई सुविधा नहीं है।

(3) कुटीर तथा लघु उद्योगों की स्थापना
वनों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ देश के पिछड़े भागों में वन उपजों पर आधारित कुटीर तथा लघु उद्योगों की स्थापना है। उदाहरण के लिए बीड़ी उद्योग में व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है। मैदानों में शहतूत और अर्जुन के पत्तों पर रेशम तथा टसर के कीड़े पालने के उद्योग की स्थापना से अनेक निर्धन ग्रामवासियों को रोजगार और अतिरिक्त आय के साधन ही नहीं मिलते वरन रेशम उत्पादन बढ़ने से उसपर आधारित उद्योगों में भी वृद्धि होती है। इसी प्रकार वनोपज पर आधारित खिलौने बनाने, दियासलाई की सीके बनाने, रस्सी बुनने, हथियारों के दस्ते बनाने, चटाई बुनने, जड़ी-बूटी व साल या अन्य बीजों का संग्रह करने तथा तेल निकालने जैसे विभिन्न कुटीर उद्योगों की स्थापना ग्रामों में होतीहै।

(4) व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति
मनुष्य जीवन पर्यन्त वनों से प्राप्त होने वाले पदार्थों का उपयोग करता है। बचपन में झूले से लेकर बुढ़ापे में आवश्यक लाठी के लिए प्रकाष्ठ वन से ही प्राप्त होता है। शैशवावस्था व्यतीत होने के पश्चात, विद्या आरम्भ करते ही प्रत्येक बालक को वन उत्पाद से प्राप्त होने वाला कागज, कलम, पेन्सिल, तख्ती की आवश्यकता होती है। विद्यालयों में कुर्सी, डेस्क तथा श्यामपट और घरों में भवन निर्माण तथा फर्नीचर आदि के लिए अपेक्षित प्रकाष्ठ वनों से ही मिलता है। प्रातः कालीन समाचार पत्र काष्ठीय वनस्पति से बनता है। हम काष्ठीय मेजों पर भोजन करते हैं, काष्ठीय मेज कुर्सियों पर बैठकर कार्य करते हैं, अपने जीवन का लगभग एक तिहाई भाग कुर्सियों पर बैठकर कार्य करने में व्यतीत करते हैं और अपने जीवन का लगभग एक तिहाई भाग काष्ठीय पलंगों पर ही सोकर व्यतीत करते हैं। यद्यपि इस देश के ग्रामवासियों को अभी इतने प्रकाष्ठ की आवश्यकता नहीं होती तथापि उनकी झोपड़ियों के लिए लकड़ी, उनके कृषि उपकरणों के लिए काष्ठ तथा पशुओं के लिए चारा वन ही देते हैं।

(5) उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति
व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त वन अनेक महत्त्वपूर्ण उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चे माल की पूर्ति करते हैं। इन उद्योगों में कागज, कलम, पेन्सिल, दियासलाई, पैकिंग केस, प्लाईवुड, कृषि उपकरणों के दस्ते (हैन्डिल), फर्नीचर, मोटर/लॉरी के ढाँचे, लीसा (रेजिन), बीड़ी, लाख, कत्था, औषधि उद्योग प्रमुख हैं। रेल पथ के लिए स्लीपर, रेलगाड़ी के डिब्बों के लिए प्रकाष्ठ तथा नौकाओं और समुद्री जहाजों के लिए प्रकाष्ठ भी वन से ही प्राप्त होता है। देश में प्रतिरक्षा उपकरणों के निर्माण में लगे उद्योगों के लिए अपेक्षित काष्ठ की पूर्ति भी वन ही करते हैं। रेयान, लुगदी (पल्प) उद्योग के लिए कच्चेमाल का स्रोत भी वन ही है। इस प्रकार देश के बढ़ते हुए उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

(6) पर्यटन विकास
वन से होने वाले लाभों में एक लाभ पर्यटन विकास भी है। पर्यटन उद्योग आजकल संसार के महत्त्वपूर्ण उद्योगों में से एक है। वनों में पाए जाने वाले विशालकाय हाथी तथा गैण्डा, बल तथा चपलता में अद्वितीय बाघ, चौकड़ी भरते हुए हिरन, इन्द्र धनुषी रंगों को फैलाकर नाचते मोर, कलरव करते विभिन्न पक्षी, पर्यटकों के लिए रोमांचक होने के कारण पर्यटन उद्योग के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। राष्ट्रीय उद्यान व वन्य जीव विहार पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र होने के साथ ही पर्यावरण शिक्षण व राजस्व के महत्त्वपूर्ण स्रोत भी हैं।

(II) परोक्ष लाभ


वनों से प्राप्त होने वाले परोक्ष लाभ पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

(1) सीमित स्थानों की जलवायु पर अनुकूल प्रभाव
वन अपने छत्र के नीचे तथा अपने आस-पास के क्षेत्र की जलवायु पर अनुकूल प्रभाव डालते हैं क्योंकि वे वहाँ के ताप को सम, वर्षा के वितरण में वृद्धि तथा वायु के वेग को कम करते हैं।

(2) बाढ़ और सूखे पर नियन्त्रण
वन वर्षा के वितरण को ही प्रभावित नहीं करते वरन उसके पूर्ण उपयोग का भी प्रबन्ध करते हैं क्योंकि वे वर्षा के जल के प्रवाह को रोककर उसको भूमि में प्रविष्ट होने के लिये बाध्य करते हैं। जब वर्षा का जल किसी वनस्पति-विहीन ढाल पर पड़ता है तो उसमें से अधिकांश बह जाता हैं। इस कारण वर्षा ऋतु के बाद नाले सूख जाते हैं। अधिक प्रवाह के कारण वर्षा का जल, पर्वतीय ढालों की भूमि में प्रविष्ट नहीं होने के कारण मैदानों में बाढ़ का प्रकोप होता है। इसके विपरीत, वनाच्छादित ढाल पर वृक्षों के छत्र, वर्षा का वेग कम करते हैं, फिर वह बूँद-बूँद करके शाखाओं और तने के सहारे बहता है या झाड़ियों आदि में से होता हुआ टपकता है। भूमि पर पहुँच कर सड़े गले पत्तों के स्तर द्वारा सोख लिया जाता है और धीरे-धीरे भूमि में प्रविष्ट हो जाता है, केवल अतिरिक्त जल ही नालों में बहता है। वर्षा की करोड़ों बूँदों की प्रचण्डता तथा उत्पात की चुनौती का सामना करने के लिए वृक्षों की नितांत आवश्यकता है। उन्हीं से वर्षा ऋतु की विनाशकारी बाढ़ें और वर्षा के बाद होने वाला सूखा रोका जा सकता है। वनाच्छादित पर्वत ढालों में संचित वर्षा का जल नालों को सदानीरा बनाता है और मैदानों की भूमि का जल तल ऊॅचा रखता है।

(3) मृदा संरक्षण
वन, मृदा क्षरण रोकने, मृदा जनन व मृदा संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। वन मृदा रक्षा के लिये तीन स्तरीय मोर्चा बनाते हैं। सबसे ऊपर वृक्षों के छत्र वर्षा की बूँदो को भूमि पर सीधे आघात करके मृदाक्षरण करने से रोकते हैं। उसके नीचे वन तल पर पड़ा पत्तों का सड़ा स्तर वर्षा जल को सोखकर उसकी गति व मात्रा को कम करता है जिससे मृदा क्षरण न्यून हो जाता है। सबसे नीचे भूमि में वृक्षों की जड़ें मृदा को बाँधकर मृदाक्षरण को बहुत कम कर देती हैं। सूखे क्षेत्रों में भी वृक्ष और वन वायु के वेग को कम करके मृदाक्षरण नहीं होने देते। इसके विपरीत निर्वनीकरण से मृदा क्षरण तीव्र गति से होता है। वनों का मृदा संरक्षण पर अनुकूल प्रभाव का महत्व उन नदी घाटियों में विशेष रूप से बढ़ जाता है जिनमें बहुउद्देशीय बाँध बनाए गए हैं क्योंकि ऐसी नदियों के जलागम क्षेत्रों में मृदाक्षरण बाँधों का सेवा जीवन बहुत घटा देता है।

(4) पर्यावरण प्रदूषण पर प्रभाव
जनसंख्या और औद्योगीकरण में तीव्र गति से वृद्धि होने के परिणामस्वरूप पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है। इस प्रदूषण के कारण कार्बन डाईऑक्साइड तथा कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, फ्लोराइड, धूल, आदि की मात्रा में वृद्धि है। पर्यावरण में इन प्रदूषकों की मात्रा बढ़ने से मानव जीवन गम्भीर रूप से दुष्प्रभावित होता है। विदेशों में तो इस प्रदूषण को रोकने के लिए अधिक व्यय से बनाए गये अभियांत्रिकीय उपाय काम में लाये जाते हैं जिनकी लागत बहुत अधिक होती है। इस समस्या का समाधान करने में वृक्ष और अन्य वनस्पतियाँ बहुत उपयोगी हैं। वे पर्यावरण प्रदूषण रूपी विष का पान कर मानव जाति को दीर्घजीवी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वृक्षों और अन्य पौधों के पत्ते वायु को छानते हैं और इस प्रकार टनों धूल अपने ऊपर रोककर उसे मनुष्यों की श्वास नलिकाओं में जाने या आँखों में पड़ने की सम्भावना कम कर देते हैं। वृक्ष वायुमण्डल में कार्बन मोनोऑक्साइड व अन्य हानिकारक गैसों की सान्द्रता को कम कर पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। मार्गों के किनारे वृक्षों की दो पट्टियाँ स्थानीय वायुमण्डल में इस प्रदूषित गैसों की सान्द्रता को लगभग 4 प्रतिशत कम कर देती है। वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड वृक्षों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण में कच्चे माल के रूप में काम में लाई जाती है। निर्वनीकरण से जहाँ एक ओर सौर विकिरण को सोखने का एक स्रोत कम होता है, वहीं दूसरी ओर कार्बन डाइ-ऑक्साइड का सकेन्द्रण बढ़ने से उसका एक ऐसा स्तर वायुमण्डल में बन जाता है जिसमें से सौर विकरण भूमि की ओर आ सकता है परन्तु परावर्तित होकर वापस नहीं जा सकता। इससे जहाँ एक ओर पृथ्वी पर ऊष्मागृह जैसा प्रभाव पड़ता है वहाँ दूसरी ओर वायु दाब में इतना परिवर्तन आ जाता है कि मानसून अत्यन्त अनियमित हो जाता है जिससे कहीं तो अचानक मूसलाधार वर्षा के परिणाम स्वरूप अत्यन्त विनाशकारी आकस्मिक बाढ़ें आ जाती है और कहीं सूखा पड़ जाता है।

वृक्ष और वन


वृक्ष
.वृक्ष एक प्रकार पौधा है। यदि पौधों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाये तो वे निम्न तीन वर्गों में विभाजित किये जा सकते है:

(1) बूटी या शाक (2) क्षुप या झाड़ी (3) वृक्ष

बूटियाँ वे पौधे हैं जिनकी ऊँचाई साधारणतया एक मीटर से अधिक नहीं होती। इनके तने सदैव कोमल और हरे रहते हैं। जीवन-अवधि के अनुसार वे वार्षिक द्वि वार्षिक तथा बहुवार्षिक कहलाते हैं। झाड़ियाँ वे पौधें है जिनकी ऊँचाई साधारणतया 6 मीटर से अधिक नहीं होती। एक ही जड़ से इनमें कई तने निकलते हैं और वे बूटियों के तनों की अपेक्षा कुछ अधिक मोटे और काष्ठीय होते हैं। उनमें पतली-पतली शाखाएँ भी होती हैं।

उपर्युक्त दोनों प्रकार के पौधों से मूल्यवान वन उपज प्राप्त होती है। आकार में बहुत छोटे होने के कारण इनसे प्रकाष्ठ प्राप्त नहीं होता, परन्तु झाड़ियाँ ईंधन के रूप में उपयोगी में लाई जाती है। इसके विपरीत, वृक्ष वे पौधे हैं जिनमें साधारणतया एक मोटा, लम्बा और काष्ठीय तना होता है। पृथ्वी से कुछ ऊँचाई पर उनके तनों से शाखाएँ निकलती है जो उपशाखाओं में विभाजित होकर अन्त में वृक्ष के ऊपरी भाग में पत्तों का एक छत्र बनाती हैं।

वन


परिभाषा
सामान्यतया, वन प्रकाष्ठ या अन्य वनोपजों के उत्पादन हेतु अलग रखे गये क्षेत्र या वे क्षेत्र जिन्हें जलवायु या रक्षात्मक जैसे कतिपय अप्रत्यक्ष लाभों, जो वह देता है, के लिए काष्ठीय वनस्पति से आच्छादित रखा गया है, के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस परिभाषा में वन में होने वाले प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाभों पर बल दिया गया है परन्तु पारिस्थितिकीय में वन प्रधान रूप में वृक्षों तथा अन्य काष्ठीय वनस्पति से बने, प्रायः बन्द छत्र वाले पादप समुदाय के रूप में परिभाषित किया जाता है। वास्तव में वन वृक्षों, झाड़ियों तथा घास और बूटियों का ऐसा समुदाय है जिसमें वृक्ष सबसे ऊँचे और सबसे अधिक स्थान घेरने के कारण उसका प्रधान अंग होते हैं। दूसरे शब्दों में छत्र घनत्व 0.4 या अधिक होने पर क्षेत्र को सघन वन कहते हैं अन्यथा वह क्षेत्र खुला वन कहलाता है।

विधिक दृष्टि से वन वह क्षेत्र है जिसे किसी वन अधिनियम द्वारा वन घोषित किया गया हो।

प्रदेश में पाए जाने वाले वृक्ष समुदायों की विविधता का अनुमान प्रदेश में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के वनों से लगाया जा सकता है। प्रदेश में पाए जाने वाले वनों का विवरण निम्न प्रकार है:

(1) तराई वन


.ये वन हिमालय के तराई क्षेत्र में सीमित है। इनमें मुख्य रूप से साल के शुद्ध विविध पतझड़ी वन हैं। इसमें अरूना, धौसी हल्दू, सेमल, कंजू, गुटेल, खैर व शीशम आदि के वन पाए जाते हैं। दुधवा राष्ट्रीय उद्यान, कतरनियाघाट, सोहेलवा एवं सोहागी बरवा वन्य जीव विहार इस क्षेत्र के प्रतिनिधि संरक्षित क्षेत्र हैं।

(2) ऊष्ण शुष्क पतझड़ी वन


यद्यपि इन वनों में साल भी पाया जाता है, परन्तु अधिकांश भाग में खैर, असना, तेंदू करधई तथा सलाई के वृक्ष पाए जाते हैं। विन्ध्यन क्षेत्र में कुछ स्थानों पर सागौन भी पाया जाता है। कैमूर, रानीपुर एवं चन्द्रप्रभा वन्य जीवन विहार इस क्षेत्र के प्रतिनिधि वन्य जीव विहार हैं।

(3) ऊष्ण काँटेदार वन


इस प्रकार के वन प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जिसमें खुली गुल्मिकाएँ जैसे बबूल, रिओंजा, छियोंकर, हिंगोर, पीलू आदि शामिल हैं। राष्ट्रीय चम्बल वन्य जीव विहार इस क्षेत्र काप्रतिनिधि संरक्षित क्षेत्र है।

(4) बुन्देलखण्ड के वन


इस प्रकार वनों के अन्तर्गत रानीपुर, महावीर स्वामी एवं विजयसागर वन्य जीव विहार प्रतिनिधि संरक्षित क्षेत्र हैं।

(5) गंगा-जमुना मैदान के जलाशय


गंगा यमुना के विशाल मैदान में नदियों एवं जलाशयों के किनारे कृषि फसलों की जंगली किस्में पायी जाती हैं। हस्तिनापुर, पार्वती अरगा, नवाबगंज, समसपुर, सांडी, लाख बहोसी, सूरसरोवर, पटना, समान वन्य जीव विहार इस प्रकार के वनों के प्रतिनिधि संरक्षित क्षेत्र हैं।

पारिस्थितिकी


.पारिस्थितिकी अंग्रेजी शब्द ‘इकोलॉजी’ का हिन्दी रूपान्तर है। इकोलाॅजी शब्द दो ग्रीक शब्दों, ‘ओइकास तथा लोगोस’ से मिलकर बना है। ओइकास का अर्थ है ‘घर अथवा आवास’ तथा लोगोस का अर्थ है ‘अध्ययन’। इस प्रकार वनस्पतियों, जन्तुओं और उनके पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों तथा निर्भरता का अध्ययन ही पारिस्थितिकी कहलाता है। प्रकृति में सभी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अतः पारिस्थितिकी का आधार वनस्पति, जन्तु, सूक्ष्म जीव और उनके वातावरण सभी के सहअस्तित्व में निहित है।

प्रकृति के सभी जैविक तथा अजैविक घटकों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। उदाहरण स्वरूप हरे पेड़-पौधे भूमि से जल तथा पोषक तत्व प्राप्त करते हैं। इनकी पत्तियों, फल और अन्य अंगों को शाकाहारी जन्तु जैसे खरगोश, हिरण आदि खाते हैं। इन जन्तुओं की मृत्यु होने पर बैक्टीरिया तथा कवक जैसे सूक्ष्म जीव इनके मृत शरीर से पोषण प्राप्त करते हैं। इनके शरीर के शेष बचे अंश नाइट्रोजन, सल्फर, कार्बन जैसे सूक्ष्म अणुओं में अपघटित होकर वापस भूमि में मिल जाते हैं। इस तरह उक्त सभी घटकों के परस्पर जुड़ाव का एक चक्र पूरा होता है।

प्रकृति में इस तरह के बहुत सारे चक्र हैं और पारिस्थितिकी विषय इन सबको समग्रता से समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

पारिस्थितिकी समूह:


एक पारिस्थितिकी समूह जीवों का एक ऐसा गतिज तंत्र है जिसमें विभिन्न जीव पारस्परिक तौर पर जैविक, रासायनिक तथा भौतिक रूप से जुड़े होने के साथ-साथ अजैविक घटकों से भी जुड़े रहते हैं। यह पारस्परिक जुड़ाव समूह को स्थिर रखता है और बदलती हुई स्थितियों के अनुसार व्यवहार करने की स्वीकृति भी देता है। इस प्रकार पारिस्थितिकी समूह समुदाय, इसके अजैविक घटकों तथा उनके परस्पर सम्बन्धों को दर्शाता है। दुधवा राष्ट्रीय उद्यान का पारिस्थितिकी तंत्र अथवा पारितंत्र उद्यान में उपस्थित विभिन्न जीवों तथा वातावरण के अजैविक घटकों यथा मृदा, चट्टानों, जल आदि के बीच परस्पर सम्बन्धों को दर्शाता है। पारितंत्र के विभिन्न स्तरों में पदार्थ के साथ-साथ ऊर्जा का प्रवाह भी होता है। यह ऊर्जा हरे पौधे सूर्य द्वारा प्राप्त करते हैं।

अब तक व्याख्या से स्पष्ट है कि ‘पारिस्थितिकी’ के अध्ययन का आधार जीव स्तर है। पारिस्थितिकी को दो भागों में बाँटा जा सकता है (1) स्वपारिस्थितिकी इसमें एक विशेष जीव या किस प्रजाति विशेष के वातावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं। (2) समुदाय पारिस्थितिकी में जीव समुदाय और वातावरण के बीच सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं। यद्यपि स्वपारिस्थितिकी में एक जीव के व्यवहार, पारिस्थितिकी आदि का विस्तृत अध्ययन होता है तथापि विश्व में सिर उठा रही पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं को समाधान ढ़ूँढ़ने में ‘समुदाय पारिस्थितिकी’ अधिक महत्त्वपूर्ण है। समुदाय पारिस्थितिकी द्वारा किसी तंत्र को सम्पूर्ण रूप में समझा जा सकता है। पर्यावरण की दशा को सुधारने के काफी प्रयोग इसीलिए असफल हुए हैं क्योंकि इसमें समस्याओं के सम्पूर्ण रूप को नहीं देखा गया है। मलेरिया उन्मूलन के लिए डी.डी.टी. का प्रयोग एक ऐसा ही उदाहरण है। हमारी एक क्रिया की कई प्रतिक्रियायें हो सकती हैं। इन जटिलताओं को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि एक पारिस्थितिक तंत्र कैसे बना और इसके विभिन्न घटक किस प्रकार एक दूसरे से जुड़े हैं?

पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न घटक


(i) जैविक घटक: पोषण के आधार पर पारिस्थितिक तंत्र के सभी जैविक घटकों को उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक तीन श्रेणियों में बाँटा गया है।

(1) उत्पादक (स्वपोषी) - ये वातावरण में उपलब्ध अकार्बनिक पदार्थों का उपयोग करके अपने लिए आवश्यक कार्बनिक पोषक पदार्थों का निर्माण स्वयं करते हैं, जैसे भूमि पर पाये जाने वाले हरे पौधे तथा जलीय पारिस्थितिक तन्त्र में पाये जाने वाले छोटे शैवाल ‘प्रकाश संश्लेषण’ की क्रिया द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं।

(2) उपभोक्ता - वे जीव जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन उत्पादकों द्वारा उत्पादित या संचित भोजन का प्रयोग करते हैं। उपभोक्ता (परिपोषी) कहलाते हैं।

(3) वे जीव जो उत्पादकों तथा अपघटक उपभोक्ताओं के मृत अंशों शरीरों से पोषण प्राप्त करते हैं, अपघटक कहलाते हैं।

(ii) अजैविक घटक: किसी भी पारितन्त्र या पारिस्थितिक तन्त्र के अजैविक घटकों में वे सभी भौतिक तथा रासायनिक कारक आते हैं जो जैविक घटकों को प्रभावित करते हैं, इनके उदाहरण हैं वायु, जल, मृदा, चट्टाने आदि। ये सभी जैविक घटकों पर व्यापक प्रभाव डालते हैं। किसी भी अजैविक घटक की प्रचुरता या कमी समष्टि की वृद्धि पर दुष्प्रभाव डालती है। यह लिमिटिंग फैक्टर प्रिंसिपल या निर्धारक सिद्धान्त कहलाता है। उदाहरण स्वरूप यदि किसी खेत की मृदा में फास्फोरस की मात्रा बहुत कम हो तो उस पर उगाये जाने वाले गेहूँ के पौधे छोटे कद के (बौने) रह जाते हैं। नाइट्रोजन, पोटेशियम तथा जलस्तर की अनुरूपता के बाद भी फास्फोरस की कमी के कारण ये बढ़ नहीं पाते। इस प्रकार फास्फोरस इनकी वृद्धि का निर्धारक बन जाता है। इसी प्रकार किसी वन क्षेत्र में आवरण, भोजन की उपलब्धता होने पर भी जल की अनुपलब्धता लिमिटिंग फैक्टर हो सकता है।

पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा


सभी पारिस्थितिक तन्त्रों में ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य है। पृथ्वी पर ऊष्मा तथा प्रकाश के रूप में पहुँचने वाली ऊर्जा जैवस्तर द्वारा अवशोषित ऊर्जा तथा पृथ्वी पर विकिरण से होने वाली ऊष्मा के बराबर होती है (ऊष्मागतिकी की प्रथम नियमानुसार)।

जब भी सौर ऊर्जा पृथ्वी पर पहुँचती है, यह ऊष्मा के रूप में बदलती है। सूर्य के प्रकाश का मात्र एक प्रतिशत अंश ही हरे पौधों द्वारा अवशोषित करके भोजन में (कार्बनिक तत्व) में बदल दिया जाता है। भोजन के रूप में एकत्र ऊर्जा जीवों की शृंखला के माध्यम से पूरे पारितन्त्र में भ्रमण करती है।

सभी जीव अपने जीवित या मृत रूप में, दूसरे जीवों के लिए भोजन के सम्भावित स्रोत हैं। जैसे एक खरगोश हरी घास को खाता है। खरगोश को भेड़िया खा जाता है। मरने पर ये सभी जीव (बैक्टीरिया, कवक इत्यादि) अपघटकों का भोज्य बनते हैं।

खाद्य शृंखलाएँ


किसी भी पारितन्त्र में भोजन प्राप्त करने और फिर स्वयं किसी का भोजन बनने की क्रमिक प्रक्रिया खाद्य शृंखला कहलाती है। यही वह प्रक्रिया है जो निर्धारित करती है कि किसी पारितन्त्र में ऊर्जा किस प्रकार एक जीव से दूसरे जीव में जाती है। ऊर्जा प्रवाह का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है कि यह एक दिशीय तथा अधिक या प्रथम ऊर्जा स्तर से कम ऊर्जा स्तर की दिशा में होता है। एक खाद्य शृंखला में ऊर्जा (कार्बनिक तत्व के रूप में) एक ऊर्जा स्तर से दूसरे ऊर्जा स्तर पर स्थानान्तरित होती है। आदर्श स्थिति में ऊर्जा का यह प्रवाह सूर्य से हरे पौधों की अर्थात उत्पादकों तक, फिर उत्पादकों से प्राथमिक उपभोक्ताओं तक और वहाँ से आगे अनिश्चित स्तरों तक 100 प्रतिशत प्रभावशाली होना चाहिए। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता क्योंकि प्रत्येक स्तर पर ऊर्जा स्थानान्तरण में 80-90 प्रतिशत ऊर्जा ऊष्मा के रूप में मुक्त हो जाती है। ऊष्मागातिकी के द्वितीय नियमानुसार प्रत्येक स्तर पर ऊर्जा के इस क्षरण के कारण जीवों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती जाती है। उदाहरणार्थ देखें तो मांसाहारियों की संख्या, शाकाहारियों की तुलना में कम होती है। प्रायः यही क्रिया, खाद्य शृंखला में ऊर्जा स्तरों की संख्या भी सीमित कर देती है।

सभी जीव खाद्य शृंखला का एक अंग होते हैं, लेकिन वे एक से अधिक खाद्य शृंखलाओं के अंग भी हो सकते हैं। एक खाद्य शृंखला में सामान्यतः उत्पादक, प्राथमिक उपभोक्ता, द्वितीय उपभोक्ता, तृतीयक उपभोक्ता तथा अपघटक होते हैं।

खाद्य शृंखलाओं के प्रकार


यद्यपि सभी खाद्य शृंखलाओं में सजीवों का एक क्रम होता है जो भोजन अर्थात ऊर्जा के लिए एक दूसरे पर आश्रित होते हैं, फिर भी सभी खाद्य शृंखलाएँ सदा एक समान नहीं होती। प्रकृति में प्रमुखतः दो प्रकार की खाद्य शृंखलाएँ पाई जाती है। एक खाद्य शृंंखला हरे पौधों से प्रारम्भ होती है और शाकाहारियों से होती हुई मांसाहारियों तक जाती है। यह शृंंखला ‘ग्रेजिंग’ या ‘घास स्थलीय’ (चारे वाली) खाद्य शृंंखला कहलाती है। दूसरे प्रकार की खाद्य शृंंखला मृत कार्बनिक पदार्थों से प्रारम्भ होकर अन्य कई तरह के जन्तुओं तक जाती है, जिनमें मांस भक्षी, कीट तथा सूक्ष्मजीव सभी शामिल हैं, इस शृंंखला को मृतोपजीवी (डिट्रिटस) खाद्य शृंंखला कहते हैं।

.यही बाद में हरे पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं। चारे वाली खाद्य शृंंखला के मृत जीव (डिट्रिटस) खाद्य शृंंखला का आधार हैं। चारे वाली तथा मृतोपजीवी खाद्य शृंंखलाएँ परस्पर जुड़ी हैं। इसी प्रकार से कई खाद्य शृंंखलाएँ मिलकर एक जाल जैसी रचना बनाती हैं। कई खाद्य शृंंखलाओं के परस्पर जुड़ने से ‘खाद्य जाल’ बनता है।

अतः पारितन्त्र में प्रत्येक जीवधारी को एक विशेष खाद्य स्तर पर रखा जा सकता है, जो एक विशेष पोषी अथवा ऊर्जा स्तर को इंगित करता है। इस प्रकार किसी पारितन्त्र के एक पोषी स्तर पर वे सभी जीव होते हैं, जो ऊर्जा के मूल स्रोत से समान दूरी पर होते हैं। अतः हरे पौधे (उत्पादक) प्रथम पोषी स्तर पर हैं, शाकाहारी (द्वितीय उपभोक्ता) द्वितीय पोषी स्तर पर हैं। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है।

पोषक तत्वों का चक्रीकरण


जीवों को वृद्धि तथा प्रजनन की आवश्यकता होती है। किसी भी जीव को जीवन, वृद्धि तथा प्रजनन के लिए जिन तत्वों की आवश्यकता होती है वे पोषक तत्व कहलाते हैं। वे पोषक तत्व जिनकी आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है महापोषक तत्व कहलाते हैं जैसे कार्बन, आॅक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन तथा फास्फोरस। वे पोषक तत्व जिनकी आवश्यकता कम मात्रा में होती है सूक्ष्म पोषक तत्व कहलाते हैं जैसे- लोहा, जिंक, ताम्बा, आयोडीन, प्रकृति में ये सभी पोषक तत्व तथा इनके यौगिक लगातार अजैविक वातावरण से जीवित घटकों में तथा जीवित घटकों से अजीवित वातावरण में घूमते रहते हैं। इन पोषक तत्वों का इनके स्थाई स्रोतों से जीवों तक तथा जीवों से वापस इन्हीं स्रोतों (वायु, जल, मृदा) तक के चक्र को पोषक तत्वों का चक्रीकरण या जैव भू-रासायनिक चक्र कहते हैं। इन पोषक तत्वों में कार्बन, आॅक्सीजन, नाइट्रोजन फास्फोरस सल्फर तथा जल के चक्र प्रमुख हैं जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सूर्य की ऊर्जा तथा गुरुत्व से कार्य करते हैं।

जैविक आवर्धन


ऊर्जा तथा पोषक तत्वों के स्थानान्तरण के साथ-साथ कई बार कुछ विषैले पदार्थ भी एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर पर स्थानानतरित हो जाते हैं। इन विषैले पदार्थों की सान्द्रता पोषी स्तर के साथ बढ़ती जाती है। प्रत्येक स्तर पर बढ़ने वाले विषैले पदार्थों का यह सान्द्रण ‘जैविक आवर्धन’ कहलाता है।

‘जैविक आवर्धन’ का एक सामान्य उदाहरण एक खाद्य शृंंखला के विभिन्न स्तरों पर डी.डी.टी. का पहुँचना है। मच्छरों के नियंत्रण के लिए अमेरिका के एक द्वीप पर डी.डी.टी. का चयन अत्यन्त सावधानी पूर्वक किया गया था और यह मछलियों तथा अन्य वन्य जीवों के लिए प्राणघातक नहीं था, (जैसा कि सोचा गया था)। यह विषैला तत्व मृतोपजीवी द्वारा अवशोषित हो गया और यहाँ से ये मृतोपजीवी से पोषण लेने वाले जीवों के ऊतकों में तथा छोटी मछलियों में अपेक्षाकृत अधिक सान्द्रता में जा पहुँचा। इसके ऊपर के पोषी स्तर यानि मछलियाँ खाने वाली चिड़ियों में इसकी सान्द्रता और बढ़ गई। इसके फलस्वरूप इन चिड़ियों के अण्डों के खोल कमजोर होने लगे, और भ्रूण की रक्षा करने में अक्षम हो गये। जिस कारण एक भी चूजा नहीं बन पाया। अन्ततः इसने शिकारी चिड़ियों की पूरी समष्टि को ही समाप्त कर दिया जिससे उस द्वीप का पारितन्त्र ही बिगड़ गया। इस तरह जो कुछ हानि रहित माना जाता है वही किसी पोषी स्तर पर पहुँचकर ‘विषैला’ बन सकता है।

जीव तथा अनुकूलन


सभी जीवों में वातावरण के साथ अनुकूलित होने की क्षमता होती है, और वातावरण में कोई परिवर्तन होने पर ये अनुक्रिया भी करते हैं। जीवों द्वारा अपने वातावरण के प्रति की गई ये क्रियाएँ ‘अनुकूलन’ कहलाती हैं। ‘अनुकूलन’ जीव को वातावरण के साथ सामन्जस्य बिठाने में सहायता करते हैं। उदाहरण के तौर पर ग्रीष्म काल में जल की कमी के प्रति की गई यह प्रतिक्रिया वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करता है, तथा पेड़ों को गर्मियों के लिए अनुकूलित करती है (वाष्पोत्सर्जन की दर पत्तियों के क्षेत्रफल को सीधा समानुपाती होती है)। कुछ घास के बीजों में अनुकूलन के कारण ऊँचे तापमान को सहने की शक्ति होती है। जंगल में आग लगने या तापमान बहुत अधिक बढ़ने से बीज निष्क्रिय अवस्था में चले जाते हैं और तापमान के अनुकूल होने पर वे निष्क्रियता त्यागकर अंकुरित होना प्रारम्भ कर देते हैं। इस प्रकार के अनुकूलन लघुकालिक या अस्थायी अनुकूलन कहलाते है। अनुकूलन दीर्घकालीन या स्थाई भी हो सकते हैं। जैसे ‘मैंग्रोव’ पौधे लवणीय जल में उगने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनमें श्वसन के लिए, श्वसन जड़ें मैंग्रोव पौधों को वायुमण्डल से ऑक्सीजन ग्रहण करने में सहायता देती हैं। यह विकासीय अनुकूलन हैं जो धीरे-धीरे आनुवांशिक हो गये हैं।

प्रजातियों की कुछ विशिष्टताएँ


जीवों की तरह प्रजाति में कुछ ऐसे लक्षण होते हैं जिनके आधार पर उन्हें समष्टि तथा समुदाय से अलग पहचाना जा सकता है। इनमें प्रमुख लक्षण हैं-

(क) आवास
किसी भी प्रजाति द्वारा प्राकृतिक रूप से अपनाया गया पर्यावरण ही उसका आवास है। जैसे उत्तर प्रदेश का कॉर्बेट उद्यान ‘बाघ’ का आवास है। एक ही प्रजाति के जीव अपने आवास की सभी पारिस्थितिक दशाओं (जैविक तथा अजैविक) के लिए अनुकूलित होते हैं। उदाहरणार्थ नागफनी के पौधे पानी की कमी होने पर भी जीवित रह सकते हैं।

(ख) पारिस्थितिक निश
किसी जाति द्वारा घेरा गया स्थान, समुदाय में इसकी क्रियात्मकता तथा वातावरण के तापमान, नमी, पी.एच., मृदा तथा अन्य घटकों के बीच इसकी स्थिति इन सभी को समन्वित तौर पर एक पारिस्थितिक निश कहा जाता है।

दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि किसी भी पारितन्त्र में, किसी प्रजाति को जीवित रहने तथा प्रजनन के लिए जिन भौतिक, रासायनिक तथा जैविक कारकों की आवश्यकता होती है, पारिस्थितिक निश उन सभी को विश्लेषित कर स्पष्ट करता है। प्रत्येक पारितन्त्र में हर प्रजाति का एक निश्चित और विशेष काम होता है। अतः किसी भी क्षेत्र में कोई दो प्रजातियाँ लम्बे समय तक एक जैसे पारिस्थितिक निश को नहीं प्राप्त कर सकतीं। प्रत्येक प्रजाति का एक निश्चित आवास तथा निश होता है जो उस प्रजाति तथा पर्यावरण के बीच परस्पर सम्बन्धों के फलस्वरूप बनता है।

(ग) प्रजातियों का विकास तथा विनाश
वर्तमान प्रजातियों का विनाश और नई प्रजातियों का विकास एक प्राकृतिक घटना है। पुरानी प्रजातियों के विकास द्वारा नई प्रजातियाँ बनती हैं। विकास तथा विनाश की प्रक्रिया बहुत धीमी गति से होती है तथा इन्हें पूरा होने में काफी समय लगता है। वर्तमान में मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण विनष्ट होने वाली प्रजातियों की संख्या, विकसित होने वाली प्रजातियों की संख्या से बढ़ गई है। यह प्रजाति क्षरण अब पूरे विश्व की चिन्ता का विषय है। यही कारण है कि ‘प्रजाति खतरे में’ ‘खोई हुई दुनिया’ जैसे वाक्यांश कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि में सुर्खियों में दिखाई देते हैं।

समुदाय के प्रमुख लक्षण


.कई प्रजातियों के जीव जब एक दूसरे के निकट आकर आपस में सम्बन्ध बनाने लगते हैं तब समुदाय का विकास होता है। समुदाय की पहचान प्रभावी प्रजाति, प्रजाति विविधता, पारस्परिक आवर्तन व जैविक पारस्परिकता से होती है -

प्रभावी प्रजाति: किसी भी समुदाय में जिस प्रजाति के जीवों की संख्या अधिक होती है। उस समुदाय में वह प्रजाति प्रभावी कही जाती है।

प्रजाति विविधता: प्रत्येक समुदाय में विभिन्न प्रजातियों का एक समूह होता है। प्रजातियों की यह विविधता ही समुदाय की प्रजातीय विविधता है जैसे-घास के समुदाय में पाई जाने वाली जैव प्रजातियाँ, मरुस्थल या नदी के मुहानों पर पाये जाने वाले समुदायों की जैव प्रजातियों से भिन्न होगी।

पारिस्थितिक आवर्तन: किसी क्षेत्र में सामान्यतः समुदाय की विभिन्न प्रजातियाँ समय के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। समुदाय की क्रियात्मकता और बनावट में होने वाला यह क्रमिक परिवर्तन, ‘पारिस्थितिक आवर्तन’ कहलाता है। पारिस्थितिक आवर्तन द्वारा प्रजातियाँ अपने वातावरण में होने वाले परिवर्तनों को दर्शाती हैं। यह आवर्तन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और यह विभिन्न प्रजातियों तथा वातावरण के पारस्परिक क्रिया-कलापों द्वारा प्रेरित होती है। बाह्य शक्तियों से अप्रभावित, पारिस्थितिक आवर्तन नए और कमजोर समुदायों को परिपक्व, विकसित तथा स्थाई बनाता है। प्राकृतिक पारिस्थितिक आवर्तन की एक निश्चित दिशा तथा भविष्य होता है।

जैविक पारस्परिकता: एक समुदाय की विभिन्न जातियाँ एक दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं रह सकतीं। अगर किन्हीं दो जीवों की कुछ क्रियाएँ या आवश्यकताऐं समान हैं, तो वे आपस में क्रियाएँ करते हैं। यदि यह क्रिया एक ही प्रजाति के जीवों में होती है तो यह सजातीय तथा अलग प्रजातियों के जीवों के आपस में सम्बन्ध को अंतः जातीय सम्बन्ध कहा जाता है। यह जैविक सम्बन्ध पर भक्षण, प्रतिस्पर्धा व सहजीविता के रूप में परिलक्षित होते हैं।

सामुदायिक वानिकी एवं ग्रामीण विकास


सामुदायिक वानिकी:
.‘सामुदायिक वानिकी’ परम्परागत वनों के बाहर तथा उनसे दूर स्थित ग्रामों तथा नगरों के निवासियों के जीवन स्तर को सुधारने के उद्देश्य से किये जाने वाले वानिकी कार्यों को कहते हैं।

सामुदायिक वानिकी वन सीमा के अन्दर खाली क्षेत्रों के अतिरिक्त वन सीमा के बाहर भी अपनाना चाहिये। इससे वनों से दूर स्थित ग्राम निवासियों के लिये ईंधन चारा तथा कृषि एवं झोपड़ी के लिए उपयोगी काष्ठ की पूर्ति होती है। कृषि की रक्षा के लिए अनुकूल सूक्ष्म जलवायु तथा पारिस्थितिकीय दशायें बनती है व नगर तथा ग्राम निवासियों के मनोरंजन के लिये फलों तथा हरियाली से भरे क्षेत्र का निर्माण होता है। इसके साथ ही स्थानीय निवासियों के जीवन स्तर में सुधार होता है।

सामुदायिक वानिकी में निम्न कार्य सम्मिलित है:
फार्म वानिकी, विस्तार वानिकी, कृषि वानिकी, मनोरंजन वानिकी, शहरी वृक्षारोपण, पटरी वृक्षारोपण एवं उजड़े हुए वनों का पुनर्वनीकरण।

सामुदायिक वानिकी क्यों?


वन मनुष्य के लिए एक बेमिसाल तथा कीमती प्राकृतिक संसाधन है। मनुष्य वनों पर कई प्रकार से आश्रित रहता है। लकड़ी, जो वनों की एक मुख्य पैदावार है, कई प्रकार से बड़े पैमाने पर प्रयोग की जाती है। इमारती लकड़ी, कृषि के उपयुक्त लकड़ी, ईंधन की लकड़ी, चारा, चराई, मनोरंजन आदि की आवश्यकताओं को पूरा करने में सामुदायिक वानिकी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

वृक्ष कृषि योग्य भूमि तथा बेकार पड़ी भूमि को कई प्रकार से प्रभावित करते हैं। वे भूमि कटाव को रोकने में सबसे बड़ा, सस्ता तथा प्रभावशाली हथियार सिद्ध होते हैं। वृक्ष वातावरण को शुद्ध करने में हमारी कई प्रकार से सहायता करते हैं। अतः सामुदायिक वानिकी ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में कई प्रकार से सहायक होती है। आज लकड़ी की आवश्यकता हर प्रकार से महसूस की जा रही है। इसकी माँग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसका कारण जनसंख्या में लगातार वृद्धि के कारण वनों पर जैविक दबाव बढ़ना है। इनको सुव्यवस्थित बनाने हेतु हमें अपनी वन सम्पदा का उचित प्रबन्धन व कृत्रिम वनों के लिये सामुदायिक वानिकी को महत्व देना आवश्यक है।

सामुदायिक वानिकी कहाँ पर अपनायी जाय?
सामुदायिक वानिकी का क्षेत्र बहुत विशाल है तथा इसको सही रूप से अपनाकर हम चारों ओर हरियाली ला सकते हैं। सामुदायिक वानिकी के अन्तर्गत गाँव की सांझी तथा बेकार भूमि, नहरों के दोनों किनारों, सड़कों के किनारों, ग्राम पंचायत की भूमि व रेल पटरियों के किनारे स्थित भूमि पर सुविधानुसार वृक्षारोपण किया जा सकता है।

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