हमें चाहिए नयी जमीन, नया जीवन

14 Jun 2010
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धरा को वसुंधरा बनाये रखने के लिए हमें व्यापक बदलाव की ओर कदम उठाना होगा. दुनिया के नीति निर्धारकों को यह सोचना होगा कि मनुष्य की हर समस्या का समाधान आर्थिक अधिनायकवाद में निहित नहीं है. व्यक्ति की स्वतंत्रता, उसकी मूल जरूरत इस आर्थिक अधिनायकवाद के भरोसे पूरी नहीं की जा सकती. हमें नयी जमीन चाहिए. हमें नया जीवन चाहिए. हमें वसुधा को कुटुंब स्वरूप चाहिए जिसमें हम सब साथ मिलकर अपना जीवन जी सकें.

अभी तक हमें जिस जीवन को जीने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है वह पुराना पड़ चुका है. उसकी खामियां उसकी खूबियों पर भारी पड़ गयी हैं. जमीन पर जिंदा रहने के लिए हमें उनके सिखाए तरीके काम नहीं आयेंगे. वे पुराने पड़ चुके हैं. मानवजाति का अस्तित्व बनाये रखने के लिए हमें जीवन के नये तरीकों का विकास करना होगा. इन तरीकों के विकास के लिए उपकरणों की जरूरत नहीं है. हमें एक नयी विश्व दृष्टि चाहिए जो हमें यह बता सके कि हम अपने आप को कैसे देखें, अपनी वसुंधरा के साथ कैसा रिश्ता रखें. बंदर प्रजाति की ऐसी औलाद जो अपनी हर समस्या का समाधान तकनीकि में जाकर निकाल लेना चाहता हो, उससे अधिक अब हमें मनुष्य के रूप में आगे बढ़ने की समझ चाहिए.

आर्थिक अधिनायकवाद ने विश्व को जो आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था दी है उसने मनुष्य के अंदर छिपी लालसा को ललकार दिया. इसी लालसा के वशीभूत 'अंतहीन विकास' की अंधी दौड़ चल रही है. न लालसा का कोई अंत होता है इसलिए विकास की इस प्रक्रिया का भी कहीं कोई ओर छोर नहीं दिखाई नहीं देता. इस अंतहीन विकास से जो संकट पैदा हो रहा है उस हर संकट के समाधान स्वरूप तकनीकि अधिनायकवाद अस्तित्व में आ गया. मानों पर्यावरण और जीवन की हर समस्या का समाधान तकनीकि के रूप में आपके पास मौजूद है. लेकिन छोटी सी अवधि भी नहीं बीती कि यह आर्थिक अधिनायकवाद हांफने लगा है. तकनीकि खुद अपनी समस्याओं में उलझने लगी है और विश्व की तथाकथित भूमंडलीकृत व्यवस्था ध्वस्त होने लगी है.

2008 में वाल स्ट्रीट के जमींदोज होने के साथ ही साफ हो गया कि विश्व व्यवस्था ऐसे आधारहीन वित्तीय आधारों पर टिकाकर नहीं रखे जा सकते. वित्तीय पूंजी को वास्तविक पूंजी (प्राकृतिक संपदा) से महत्वपूर्ण नहीं साबित किया जा सकता. नागरिक और कंपनियों के बीच जारी जंग में कंपनियों का पक्ष लेकर बहुत दिन तक आगे नहीं बढ़ा जा सकता. आर्थिक अधिनायकवाद के समर्थक भी जान लें कि बेलआउट पैकेज देकर इस मृतप्राय व्यवस्था को बहुत दिनों तक टिकाकर नहीं रखा जा सकता क्योंकि यह झूठ की जमीन पर खड़ा है. प्रकृति और मानव को समृद्ध करने की बजाय वित्तीय संस्थानों को मजूबत बनाने से बात नहीं बनेगी. अगर इसी रास्ते आगे बढ़ते रहे तो धरती पर हिंसा का तांडव लगातार बढ़ता जाएगा. आर्थिक तानाशाही के इस स्वरूप से सिर्फ सामाजिक हिंसा का जन्म होगा. भारत इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण बन गया है. दुनिया के स्टील और अल्मुनियम जरूरतों को पूरा करने के लिए खदान कंपनियों को आदिवासी इलाकों में स्थापित करने के लिए वहां के मूल निवासियों को उनके घरों से निकाला जा रहा है. उनकी संस्कृति, उनके संसाधन से उन्हें दूर किया जा रहा है. बदले में क्या सामने आ रहा है? सिर्फ हिंसा.

आर्थिक अधिनायकवाद को संरक्षित करने के लिए भारत सरकार आपरेशन ग्रीन हण्ट चला रही है. इसके लिए 40 हजार जवानों की फौज तैयार की गयी है जो आदिवासियों को उनके घरों से बाहर निकालने के अभियान पर हैं. लेकिन अब आदिवासी विभिन्न तरीकों से अपनी जमीन और अपना जीवन बचाने के लिए हिंसक संघर्ष करने पर उतर आये हैं. हिंसा प्रतिहिंसा का यह दौर भारत को कहां ले जाएगा? आर्थिक अधिनायकवाद के पैरोकार जान लें कि उनका यह रास्ता अब पुराना पड़ चुका है. मृत्युशैया पर पड़े इस आर्थिक विकास के मॉडल को अब और बहुत दिनों तक जीवित नहीं रखा जा सकता. हमें सीमाओं में बंटे स्वार्थी लोकतंत्र की बजाय धरा का लोकतंत्र विकसित करना होगा. भारतीय परंपरा में निहित अहिंसा को अपने जीवन का आधार बनाना होगा ताकि हम एक नयी जमीन विकसित कर सकें. एक नया जीवन गढ़ सकें. इशोपनिषद हमें बता रहा है कि धरा पर सबको जीवित रहने का समान अधिकार प्राप्त है. इसलिए हमें ऐसी विश्व व्यवस्था की ओर आगे बढ़ना होगा जहां सबको समान रूप से जीने का अधिकार प्राप्त हो. इस आर्थिक अधिनायकवाद में तो ऐसा करना बिल्कुल भी संभव नहीं है.

इस धरा पर जो भी जीव जगत में विद्यमान हैं उन सबके लिए स्वच्छ भोजन, पानी, पर्यावरण उपलब्ध हो सके यही इस नयी व्यवस्था की विशेषता होगी. इसके लिए हमें नयी आर्थिक व्यवस्था चाहिए. वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के दायरे में रहकर यह संभव नहीं है.
 
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