हर जगह पानी है, लेकिन

28 Apr 2016
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भाखड़ा बाँध पूरे देश को खिला सकता है। लेकिन बड़े बाँध बनाना जरूरी नहीं है क्योंकि ये घर-द्वार और चूल्हा-चक्की से उजाड़ दिये लोगों को बसाने की समस्या पैदा करते हैं। छोटे और अलग-अलग जगहों पर बने बाँध उतने ही काम के हो सकते हैं, भले ही उनसे बेहतर न हों। नर्मदा बाँध की ऊँचाई को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन का यही निष्कर्ष था। वह सफल नहीं हो पाईं, हालांकि सरकार की ओर से तैयार कराई हुई जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज की रिपोर्ट ने कहा है कि बाँध से होने वाला फायदे सालों से रहने वाले लोगों को उजाड़ने से होने वाले घाटे के मुकाबले बहुत कम है। मैंने एक अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता से कहा था कि हमारी असली समस्या जनसंख्या है। उसने इसका खण्डन किया और कहा- पानी आपकी बड़ी समस्या बनने वाली है। हम लोग आने वाले सालों में भारत के सामने आने वाली तकलीफों पर चर्चा कर रहे थे। काफी लम्बी बहस के बाद भी हमारे बीच सहमति नहीं हो पाई। महाराष्ट्र जैसे सम्पन्न राज्य के लातूर में जो हुआ उसने उस अमेरिकी की चेतावनी दोहरा दी है। घड़ों और बर्तनों को लाइन में रखवाने के लिये धारा 144 लगानी पड़ी और इसने मुझे उस चेतावनी की याद दिला दी।

लेकिन उस अमेरिकी ने मुझे एक आशावादी पक्ष भी दिखाया था कि यमुना-गंगा योजना में पानी का समन्दर है जो निकाले जाने का इन्तजार कर रहा है। मुझे पता नहीं कि यह कितना सच है। अगर ऐसा होता तो सरकार ने इस जमा पानी को नापने के लिये वैज्ञानिक अध्ययन कराया होता। मैंने ऐसी किसी योजना के बारे में अभी तक नहीं सुना है।

शायद इस साल महाराष्ट्र में सबसे पीड़ित राज्य है। पिछले साल कुछ दूसरे राज्यों की हालत ऐसी ही थी। ज्यादातर राज्य या जहाँ तक इसका सवाल है, देश की अर्थव्यवस्था मानसून पर काफी निर्भर है। हमें आकाश में काले बादल ढूँढ़ते रहना पड़ेगा। पानी हमारे लिये बहुत मायने रखता है- अनाज उगाने और पीने के लिये।

पंजाब-हिमाचल प्रदेश में भाखड़ा बाँध ने हरियाणा समेत पूरे क्षेत्र को भारत के अनाज-भण्डार के रूप में बदल दिया है। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भाखड़ा बाँध को मन्दिर कहते थे। उन्होंने उस समय कहा था कि भारत के परम्परागत मन्दिर रहेंगे, लेकिन आर्थिक विकास के लिये हमें नए मन्दिरों, जिसका अर्थ था बाँध और औद्योगिक परियोजनाएँ, का निर्माण करना होगा।

यह भाखड़ा बाँध पूरे देश को खिला सकता है। लेकिन बड़े बाँध बनाना जरूरी नहीं है क्योंकि ये घर-द्वार और चूल्हा-चक्की से उजाड़ दिये लोगों को बसाने की समस्या पैदा करते हैं। छोटे और अलग-अलग जगहों पर बने बाँध उतने ही काम के हो सकते हैं, भले ही उनसे बेहतर न हों।

नर्मदा बाँध की ऊँचाई को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन का यही निष्कर्ष था। वह सफल नहीं हो पाईं, हालांकि सरकार की ओर से तैयार कराई हुई जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज की रिपोर्ट ने कहा है कि बाँध से होने वाला फायदे सालों से रहने वाले लोगों को उजाड़ने से होने वाले घाटे के मुकाबले बहुत कम है।

लेकिन कई साल बाद बाँध बनाया जाने लगा, जब गुजरात सरकार ने यह वायदा किया कि उजाड़े गए किसानों और अन्य लोगों की भरपाई के लिये वह जमीन देगी। यह अलग बात है कि राज्य सरकार अपना वायदा पूरा नहीं कर पाई क्योंकि वह उतनी जमीन ढूँढ ही नहीं पाई।

भारत में सात बड़ी नदियाँ-गंगा, ब्रम्हपुत्र, सिंधु, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी और इन नदियों में जल पहुँचाने वाली अनेक छोटी नदियाँ हैं। इन नदियों के इस्तेमाल ही नहीं, बल्कि उनसे बिजली पैदा करने के लिये नई दिल्ली ने केन्द्रीय जल और बिजली आयोग बना रखा है। इसने बहुत हद तक काम भी किया है। लेकिन भारत के कई हिस्सों में इससे ऐसे गम्भीर विवाद पैदा हुए हैं जो दशकों से सुलझाए नहीं जा सके हैं।

इस स्थिति ने एक राज्य से दूसरे राज्य के लोगों के बीच दूरी भी बना दी है। उदाहरण के लिये कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल के बँटवारे का मामला सालों से लटका हुआ है। तमिलनाडु को कुछ क्यूसेक (जल की मात्रा मापने का पैमाना) पानी देने के सूप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद ऐसी हालत है।

पास में ही, पंजाब ने राजस्थान को पानी देने से मना कर दिया है। यह सिंधु जल समझौते के समय अपनाई गई नई दिल्ली की दृष्टि के खिलाफ है। उस समय परियोजना के धन दे रहे विश्व बैंक के सामने भारत ने दलील दी थी कि राजस्थान के बलुआही इलाकों को सींचने के लिये उसे बहुत ज्यादा पानी चाहिए।

यह हास्यास्पद है कि नई दिल्ली की ओर से राजस्थान के पक्ष में फैसला होने के बाद भी पंजाब ने अब उसे पानी देने से मना कर दिया है। विश्व बैंक ने उस समय भारत की यह दलील स्वीकार कर ली थी कि भारत-पाकिस्तान को पानी नहीं दे सकता क्योंकि उसे राजस्थान के बालू के टीलों वाली जमीन वापस पाने के लिये पानी की जरूरत है। हमारे पास इसका क्या जवाब है जब राजस्थान को पानी देने अपने वायदे से पंजाब मुकर जाता है? यह माना जाता है राजस्थान पहुँचने वाले पानी से वहाँ कई अनाज पैदा किये जा सकते हैं, लेकिन पंजाब और हरियाणा के कुछ इलाकों को जो पहले से सिंचित हैं, को पानी नहीं मिलेगा। यही विसंगतियाँ अन्तरराज्यीय जल-विवादों के लिये जिम्मेदार है। आजादी के सत्तर साल बाद भी इन विवादों को सुलझाया नहीं जा सका है।

जब केन्द्र और राज्यों, दोनों में कांग्रेस शासन कर रही थी तो समस्या ने इतना भद्दा रूप नहीं लिया था। भारतीय जनता पार्टी के पास उस समय कुछ लोक सभा सीटें थीं और उसकी कोई ज्यादा गिनती नहीं करता था। आज हालात एकदम अलग हैं। अभी जब संसद में इसका बहुमत है तो वह चाहती है कि इसके शासन वाले राज्यों को ज्यादा फायदा मिले, नियम से, बिना नियम से।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से यह घोषणा जरूर की थी भारत एक है और दूसरी पार्टियों के शासन वाले राज्यों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन जमीन का सच यह है नहीं है। कांग्रेस पार्टी भी, जो अब विपक्ष में है, संसद तक को चलने नहीं दे रही है।

राज्यसभा कई सत्रों तक स्थगित होती रही जब तक पार्टी ने खुद ही यह महसूस नहीं किया कि सदन में बहस के जरिए वह सरकार से अपने मतभेदों को ज्यादा बेहतर ढंग से सामने ला सकती है। अभी ऐसा लगता है कि पार्टियों के बीच यह समझ बन गई है कि संसद को चलने दिया जाये। यह उम्मीद करनी चाहिए कि पार्टियाँ अपने बीच बनी इस आम सहमति पर कायम रहेंगी और पहले की तरह गम्भीरता से मुद्दों पर बहस करेंगी।

अगर इस भावना के अनुसार काम होता है तो संसद में कोई बाधा नहीं पैदा होगी और चुने हुए प्रतिनिधि, जिन्होंने अपने हंगामा वाले व्यवहार से जनता को हताश कर दिया है, अपने ध्यान देश की बीमारियों पर लगाएँगे। तब कोई भी विवाद सत्र को नहीं रोकेगा चाहे वह जल का हो या और किसी समस्या से सम्बन्धित।

(लेखक जानेमाने स्तम्भकार हैं)

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