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इंद्रधनुष

इंद्रधनुष आकाश में संध्या समय पूर्व दिशा में तथा प्रात:काल पश्चिम दिशा में, वर्षा के पश्चात्‌ लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला, तथा बैंगनी वर्णो का एक विशालकाय वृत्ताकार वक्र कभी-कभी दिखाई देता है। यह इंद्रधनुष कहलाता है। वर्षा अथवा बादल में पानी की सूक्ष्म बूँदों अथवा कणों पर पड़नेवाली सूर्य किरणों का विक्षेपण (डिस्पर्शन) ही इंद्रधनुष के सुंदर रंगों का कारण है। इंद्रधनुष सदा दर्शक की पीठ के पीछे सूर्य होने पर ही दिखाई पड़ता है। पानी के फुहारे पर दर्शक के पीछे से सूर्य किरणों के पड़ने पर भी इंद्रधनुष देखा जा सकता है।

स्पष्ट है कि सूर्य किरणों का पानी की बूँदों के भीतर बिंदु क पर वर्तन (रफ्रैक्शन), ख पर संपूर्ण परावर्तन (टोटल रिफ़्लेक्शन) तथा पुन: ग पर वर्तन होता है। प्रकाश के नियमानुसार क पर श्वेत सूर्यकिरणों में मिश्रित विभिन्न तरंगदैर्घ्यो की प्रकाशतरंगें विभिन्न दिशाओं में बूँद के भीतर करती हैं।

चित्र में स्पष्ट है कि लाल वर्ण की प्रकाश किरणों कम तथा बैंगनी की अत्याधिक मुड़ जाती हैं।

यदि क पर किरण का आपात कोण आ तथा वर्तन कोण व हो तो गणित द्वारा सिद्ध किया जा सकता है कि जब विचलन कोण वि न्यूनतम होता है तब यदि उक्त समीकरण में का मान लालवर्ण के लिए 1.329 रख दें तो कोण आ का मान 59.6 तथा कोण व का मान 40.50 प्राप्त होता है। यदि का मान बैंगनी रंगों के लिए 1.343 लें तो आ 58.80तथा व 39.60है। इसके अतिरिक्त लाल तथा बैंगनी रंगों का न्यूनतम विचलन (डीविएशन) क्रमानुसार 137.20तथा 139.20होता है अन्य वर्णो के विचलनों का मान इन दोनों के बीच रहता है। यह भी सिद्ध है कि आपात किरण के समांतर प्रत्येक रंग की समस्त किरणें, पानी की बूँद से बाहर आने पर भी, संनिकटत: समांतर बनी रहती हैं, क्योंकि विचलन न्यूनतम होने के कारण आपात कोण में थोड़ा परिवर्तन होने पर भी विचलन कोण में विशेष अंतर नहीं होता।

कल्पना करें कि दर्शक द पर खड़ा है तथा सूर्य की किरणें दिशा स द में आ रही हैं। प1 प2 प3 पानी की तीन बूँदें ऊर्ध्वाधर रेखा पर हैं।

यदि किरणें बूँदों से निकलकर द पर पहुँचती हैं तो स्पष्ट है कि उनकी ओर देखने परी दर्शक को रंग दिखाई पड़ेंगे। प1 से वे लाल किरणें आएँगी जिनका विचलन कोण 137.20है तथा प3 से वे बैंगनी किरणें आएँगी जिनका विचलन कोण 139.20है। अत: ऊपर की ओर लाल तथा नीचे की ओर बैंगनी रंग दिखाई पड़ेगा। इस भाँति इंद्रधनुष बनता है, जिसमें लाल तथा बैंगनी वृत्तों की कोणीय त्रिज्याएँ क्रमानुसार 180. 137.20042.80 तथा 180-139.2040.80होती हैं।

यदि बूँद के भीतर किरणों का दो बार परावर्तन हो, जैसा चित्र ३ में दिखाया गया है, तो लाल तथा बैंगनी किरणों का न्यूनतम विचलन क्रमानुसार 2310तथा 2340होता है। अत: एक इंद्रधनुष ऐसा भी बनना संभव है जिसमें वक्र का बाहरी वर्ण बैंगनी रहे तथा भीतरी लाल। इसको द्वितीयक (सेकंडरी) इंद्रधनुष कहते हैं।

जैसा चित्र२ से स्पष्ट है, दर्शक के नेत्र में पहुँचनेवाली किरणों से ही इंद्रधनुष के रंग दिखाई देते हैं। अत: दो व्यक्ति ठीक एक ही इंद्रधनुष नहीं देख सकते-प्रत्येक द्रष्टा को एक पृथक्‌ इंद्रधनुष दृष्टिगोचर होता है।

तीन अथवा चार आंतरिक परावर्तन से बने इंद्रधनुष भी संभव हैं, परंतु वे बिरले अवसरों पर ही दिखाई देते हैं। वे सदैव सूर्य की दिशा में बनते हैं तथा तभी दिखाई पड़ते हैं जब सूर्य स्वयं बादलों में छिपा रहता है। इंद्रधनुष की क्रिया को सर्वप्रथम दे कार्ते नामक फ्रेंच वैज्ञानिक ने उपर्युक्त सिद्धांतों द्वारा समझाया था। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्रथम इंद्रधनुष के नीचे की ओर अनेक अन्य रंगीन वृत्त भी दिखाई देते हैं। ये वास्तविक इंद्रधनुष नहीं होते। ये जल की बूँदों से ही बनते हैं, किंतु इनका कारण विवर्तन (डफ्ऱैक्शन) होता है। इनमें विभिन्न रंगों के वृतों की चौड़ाई जल की बूँदों के बड़ी या छोटी होने पर निर्भर रहती है। (अ.मो.)

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