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इंद्रप्रस्थ

इंद्रप्रस्थ वर्तमान दिल्ली के समीप इंदरपत गाँव का प्राचीन नाम। यह नगर शक्रप्रस्थ, शक्रपुरी, शतक्रतुप्रस्थ तथा खांडवप्रस्थ आदि अन्य नामों से भी अभिहित किया गया है। इसके उदय और अभ्युदय का रोचक वर्णन महाभारत (आदिपर्व, २०७अ.) के अनेक स्थलों पर किया गया है। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतकर जब पांडव हस्तिनापुर में आने लगे तब धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों के साथ उनके भावी वैमनस्य तथा विद्रोह की आशंका के विदुर के हाथों युधिष्ठिर के पास यह प्रस्ताव भेजा कि वह इद्रंवन या खांडववन को साफ कर वहीं अपनी राजधानी बनाएँ। युधिष्ठिर ने इस प्रस्ताव को मानकर इंद्रवन को जलाकर यह नगर बसाया। महाभारत के अनुसार मय असुर ने १४ महीनों तक परिश्रम कर यहीं पर उस विचित्र लंबी चौंड़ी सभा का निर्माण किया था जिसमें दुर्योधन को जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम हुआ था। इस सभा के चारों ओर का घेरा १०,००० किस्कु (८,७५० गज) था। ऐसी रूपसंपन्न सभा न तो देवों की सुधर्मा ही थी और न अंधक वृष्णियों की सभा ही। इसमें ८,००० किंकर या गुह्यक चारों ओर उत्कीर्ण थे जो अपने मस्तकों पर उसे ऊपर उठाए प्रतीत होते थे। राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का विधान इसी नगर में किया (महाभारत, सभापर्व, ३०-४२ अध्याय) जिसमें कौरवों ने भी अपना सहयोग दिया था। ऐसी समृद्ध नगरी पर पांडवों को गर्व तथा प्रेम होना स्वाभाविक था और इसीलिए उन लोगों ने दुर्योधन से अपने लिए जिन पाँच गाँवों को माँगा उनमें इंद्रपस्थ ही प्रथम नगर था :

इंद्रप्रस्थं वृक्रप्रस्थं जयंतं वारणावतनम्‌।

देहि में चतुरो ग्रामान्‌ पंचमं किंचिदेव तु।।

आज इस महनीय नगरी की राजनीतिक गरिमा फिर से दिल्ली और नई दिल्ली की भारतीय राजधानी में संचित हुई है। पद्मपुराण ने इंद्रप्रस्थ में युमना को अतीव पवित्र तथा पुण्यवती माना है :

यमुना सर्वसुलभा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
इंद्रप्रस्थे प्रयागे च सागरस्य च संगमे।।

यहाँ यमुना के किनारे 'निगमोद्बोध' नामक तीर्थ विशेष प्रसिद्ध था। इस नगर की स्थिति दिल्ली से दो मील दक्षिण की ओर उस स्थान पर थी जहाँ आज हुमायूँ द्वारा बनवाया 'पुराना किला' खड़ा है।

सं.ग्रं.पारसनीस कृत दिल्ली अथवा इंद्रप्रस्थ (मराठी)। (ब.उ.)

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