जैव विविधता संरक्षण में आदिवासियों को सहभागिता

अभी तक दुनिया भर में 25 हजार औषधीय पौधों और जड़ीबूटियों और उनके तत्वों से तैयार फार्मूले ही सूचीबद्ध किये जा सके है। इससे स्पष्ट है कि जैव विविधता के क्षेत्र में अनुसंधान और अध्ययन के क्षेत्र में अभी काफी काम किया जाना है। इस काम में आर्थिक लाभ और मानव कल्याण का पुण्य दोनों ही है।

भोपाल (हेडलाईन) जैव विविधता अर्थात पृथ्वी पर उपलब्ध जीव जंतुओं तथा वनस्पतियों की असंख्य प्रजातियों और नदी, वन, समुद्र, पर्वत, भूमि जैसी समस्त प्राकृतिक संपदा का यथा रूप संरक्षण करते हुए उनका मानव कल्याण और विकास के लिये उपयोग करना आज की दुनिया की आवश्यकता बन गई है। पिछले तीन सौ वर्षों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया में हुए नये-नये अविष्कारों और अनुसंधानों ने मनुष्य को ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों में अपनी सफलता के झंडे फहराने का अवसर प्रदान किया है। विज्ञान मनुष्य के सनातन संस्कारों और सोच को भी बदल डाला हैं। दुनिया के सभी धर्मों ने मनुष्य को प्रकृति की संतान कहा है। इसी कारण प्राचीन मनुष्य ने सदा प्रकृति से साहचर्य के संबंध स्थापित रखे, लेकिन अपने ज्ञान से प्रगति पथ पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य ने अब स्वयं को प्रकृति का स्वामी और नियन्ता मान लिया है। इस स्वार्थी सोच का परिणाम यह हुआ कि अपने लाभ के लिये मनुष्य ने प्रकृति और समस्त प्राकृतिक जीवों, संसाधनों के साथ निर्मम और विनाशकारी छेड़छाड़ का खेल खेलना शुरू कर दिया है।

लेकिन यह विनाशकारी खेल मनुष्य के लिये ही घातक परिणाम देने वाला साबित हो रहा है। तेजी से विकास और अपने लिये सुख सुविधाओं के साधन जुटाने के लिये मनुष्य ने जंगल, जमीन, जल, जानवर और समस्त मूर्त अमूर्त प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करना शुरू किया है। यही कारण है कि आज दुनिया के विकसित और संपन्न देशों में जल और वायु के प्रदूषण की मारक स्थिति निर्मित हो रही है। पृथ्वी पर जीव और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं और अनेक लुप्त होने की कगार पर हैं। वर्षों तक प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजे भोगने वाले संपन्न देशों ने ही 1992 में पहली बार ब्राजील की राजधानी रिंयोडी जनेरों में हुए पृथ्वी शिखर सम्मेलन में जैव विविधता तथा पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया। इसके बाद से दुनिया भर में प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को पुनः परिभाषित करने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के प्रति नई चेतना का उदय हुआ है। पहली बार दुनिया के जैव संसाधनों और विविधताओं का सामूहिक अध्ययन भी प्रारंभ हुआ है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी पर जलचर, थलचर, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की एक करोड़ चालीस लाख प्रजातियों के होने की संभावना का आंकलन किया गया हैं, लेकिन रिपोर्ट में बतया गया हैं कि अभी तक 17,50,000 जैव वनस्पति प्रजातियों का ही पता चल पाया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुनिया भर में अब तक अज्ञात जैव विविधताओं के सर्वेक्षण का अभियान भी शुरू किया है। पता चला है कि इस अभियान के तहत दुनिया में बीस हजार नये जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों का पता इस वर्ष के प्रारंभ तक लगाया जा चुका है। जहां तक भारत का प्रश्न हैं, जैव विविधता विशेषज्ञ मानते है कि भारत की भौगोलिक विविधता की बर्फ से ढकी चोटियां, हिमनद, ऊंचे पहाड़, हजारों किस्म के पेड़-पौधे, वनस्पतियां उनमें जीवन व संरक्षण पाने वाले जीव जंतु, पुष्प, औषधियाँ, राजस्थान के रेगिस्तान, केरल व उत्तर पूर्व के सदाबहार वन, सैकड़ों पर्वत चोटियाँ, नदियां, प्राकृतिक झीलें, समुद्र उनमें पलते जीव-जंतु, करोड़ों सूक्ष्म जीव, पठारी क्षेत्र, वेटलैंड अर्थात इस भौगोलिक विविधता में हमारी जैव विविधता के साक्षात दर्शन होते है। लगभग डेढ़ दशक पूर्व कराये गये सर्वेक्षण के मुताबिक भारतीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इन क्षेत्रों में जीव जंतुओं की करीब 75 हजार, पेड़ पौधे की 45 हजार, स्तनपायी जीवों की 340, पक्षियों की 1200 सरीसृपों की 420, उभयचरों की 140, प्रजातियां लगभग 4000 समुद्री सीप (घोंघे) व अन्य सूक्ष्म जीव (ज्ञात) लगभग 50 हजार कीड़े-मकोड़ों की प्रजातियां मानता है। इनके अलावा वानस्पतिक जगत में वन पर्यावरण मंत्रालय 15 हजार पुष्पीय पौधे, पांच हजार समुद्री वनस्पतियाँ (शैवाल आदि) 20 हजार फफूंद (फंगस), 16 हजार लाइकेन, 27 हजार ब्रायोफाईट्स और लगभग 600 टेरिडोफाईट्स प्रजातियां है।

भारत में अब तक पशु-पक्षियों की लगभग 400 और वनस्पतियों की 650 प्रजातियां पिछले 300 वर्षों में पूरी तरह नष्ट हो गई है और लगभग 1200 जीवों और 3600 वनस्पतियों के लुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है। भारत में जैव विविधता संरक्षण और अध्ययन का काम नये सिरे से पिछले एक दशक से ही शुरू हुआ है, लेकिन यह कार्य वनपुत्रों अर्थात आदिवासियों की सक्रिय सहभागिता के बिना पूरा नहीं हो सकता। इस तथाकथित सभ्यता के दौर में आज भी भारत में 15 से 20 करोड़ जनसंख्या दुर्गम और कठोर पर्वत तथा वन क्षेत्रों में प्रकृति से सहचर्य बनाये हुए रह रही है। यह वनवासी, आदिवासी, जनसमाज पूरी तरह से प्रकृति पर आश्रित हैं और स्वयं को अन्य जीव जंतुओं तथा वनस्पतियों की तरह ही प्रकृति की संतान मानता है। इन वनवासियों, आदिवासियों को अपने आसपास की जैव विविधता का व्यवहारिक ज्ञान होता है। अतः जैव विविधता के अध्ययन और नई-नई प्रजातियों की खोज के काम में इनकी सेवाएं ली जानी चाहिए। खेद है कि सरकार की ओर से इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किये जा रहे है।

भारत सरकार ने 2002 से जैव विविधता के संरक्षण, अध्ययन और 2004 में बौद्धिक संपदा अधिकार सुधार अधिनियम एवं उनके लोकोपचार के ज्ञान को सहेजकर रखने के कानून और नियम बनाये है। मध्यप्रदेश में भी सरकार ने जैव विविधता बोर्ड का गठन किया है लेकिन अभी इस क्षेत्र में काम प्रारंभिक अवस्था में ही है। पारम्परिक जैव ज्ञान को बौद्धिक संपदा घोषित किया गया है और इस संपदा के क्रय-विक्रय से होने वाली आय का भारत सरकार और इसके संरक्षण में संलग्न व्यक्ति या संस्था में समान रूप से बँटवारे की व्यवस्था की गई है। इसके साथ ही जैव विविधता क्षेत्र में शोध और उसके उपयोग के बारे में विदेशियों को सरकार से अनुमति लेने का प्रावधान भी कानून में किया गया है लेकिन इन प्रावधानों के बावजूद मध्यप्रदेश सहित भारत के अनेक वन संपदा वाले राज्यों से भारी मात्रा में जैव विविधता के नमूनों और उनके उपयोग की जानकारी की चोरी हो रही है।

जैव विविधता संरक्षण और बौद्धिक संपदा अधिकार संबंधी कानूनों में एक यह भी प्रावधान है कि सरकार जैव विविधता कोष स्थापित करेगी। इस कोष के धन का उपयोग संरक्षण और अध्ययन की योजनाओं में खर्च किया जायेगा। साथ ही इस धन का उपयोग औषधीय उपयोग की वनस्पतियों और जड़ीबूटियों का क्रम बार लेखा-जोखा डिजीटल लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा जायेगा। चूंकि 2001 में विश्व व्यापार संगठन अधिनियम लागू हो गया है और इसके तहत दुनिया भर में मुक्त व्यापार और माल की आवाजाही बेरोकटोक होने की व्यवस्था भी लागू हो गई है। ऐसे में भारत और विशेषकर मध्यप्रदेश जैसे पिछड़े राज्य में जैव विविधता संरक्षण और उसके अवैध व्यापार को रोकना मुश्किल हो गया हैं। जरूरत इस बात की हैं कि हम अपनी जैव विविधता संपदा के संरक्षण और उसके व्यापार का अपने हित में लाभ लेने के लिये सावधानीपूर्वक कानूनी और प्रशासनिक उपाय करें। जहां तक मध्यप्रदेश में जैव विविधता के अध्ययन और इस संपदा का लेखा-जोखा तैयार करने का प्रश्न हैं, इस महत्वपूर्ण काम में राज्य के आदिवासी अंचलों में परम्परा से जैव विविधता का ज्ञान रखने वाले आदिवासियों और वनवासियों का सक्रिय सहयोग लिया जाना चाहिए।

आज भी बड़ी संख्या में अज्ञात औषधीय महत्व की वनस्पतियों की तलाश का काम अधूरा पड़ा हैं। वनस्पति वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भारत में 80 हजार से ज्यादा वनस्पतियों और जड़ीबूटियों का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन इनमें से हजारों प्रजातियों का सभ्य दुनिया को पता ही नहीं है। इसीलिए अभी तक दुनिया भर में 25 हजार औषधीय पौधों और जड़ीबूटियों और उनके तत्वों से तैयार फार्मूले ही सूचीबद्ध किये जा सके है। इससे स्पष्ट है कि जैव विविधता के क्षेत्र में अनुसंधान और अध्ययन के क्षेत्र में अभी काफी काम किया जाना है। इस काम में आर्थिक लाभ और मानव कल्याण का पुण्य दोनों ही है।
 

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