जानलेवा कचरे का अधूरा निपटान

29 Nov 2015
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भोपाल गैस कांड पर विशेष


सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने का घातक कचरा पीथमपुर में निपटाया जाना शुरू कर दिया गया है लेकिन पर्यावरणविद और विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कचरा स्थानीय पर्यावरण को बहुत अधिक हानि पहुँचा सकता है।

.सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद यूनियन कार्बाइड कारखाने का विषाक्त कचरा निपटाने की प्रक्रिया इन्दौर के निकट पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में शुरू कर दी गई है। लेकिन विषय विशेषज्ञों का कहना है कि कचरा निपटाने के लिये समुचित मानकों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है जो आसपास की आबादी के लिये घातक हो सकता है।

दरअसल यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा तीन दशक बाद भी विवाद का विषय बना हुआ है। इस कचरे को दुनिया का कोई भी देश अपने यहाँ निपटाने को तैयार नहीं है। हालांकि बीच में जर्मनी की एजेंसी जीईजेड इस कचरे को जर्मनी ले जाकर कुशलतापूर्वक नष्ट करने को तैयार थी लेकिन बाद में अज्ञात कारणों से उससे करार नहीं हो सका।

तमाम कवायद के बाद कचरा निपटाने का ठेका एक देसी कम्पनी रामके को दिया गया है। रामके की विशेषज्ञता जाँचने के लिये सर्वोच्च अदालत ने निर्देश दिया था कि वह कुल 350 टन कचरे में से पहले 10 टन कचरा जलाकर उसकी रिपोर्ट सौंपे। उस रिपोर्ट को देखकर ही यह फैसला किया जाएगा कि उसे आगे कचरा जलाने दिया जाये या नहीं।

यद्यपि रामके ने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी है लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि रामके द्वारा कचरा जलाने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला तरीका दोष रहित नहीं है और इससे भारी मात्रा में प्रतिबन्धित रसायनों के हवा में मिलने का जोखिम है।

पीथमपुर औद्योगिक संगठन के अध्यक्ष गौतम कोठारी के मुताबिक किसी भी संयंत्र की तकनीकी क्षमता का आकलन तभी हो सकता है जब उसे उसकी पूरी क्षमता के साथ चलाया जाये। रामके के पीथमपुर संयंत्र की कचरा जलाने की वास्तविक क्षमता करीब 15,000 किलो प्रति घंटे की है। लेकिन प्रायोगिक तौर पर कम्पनी ने केवल 90 किलोग्राम कचरा ही प्रति घंटा जलाया।

जाहिर है इस आधार पर ही उसने वह रिपोर्ट तैयार की जिसे देश की ऊपरी अदालत के समक्ष पेश किया जाना है। चूँकि कचरे को वास्तविक क्षमता से अत्यन्त धीमी गति से जलाया गया इसलिये रिपोर्ट में जहरीले रसायनों के उत्सर्जन के जो परिणाम सामने आये हैं उनको किसी भी स्थिति में विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

कोठारी आगे कहते हैं कि वे इस मामले को आगे वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के समक्ष उठाने की तैयारी कर रहे हैं। यदि वहाँ पर इस मामले को गम्भीरता से नहीं लिया जाता है तो उच्चतम न्यायालय में अपील भी की जा सकती है। कोठारी की इस दलील का समर्थन तकनीकी जानकार लोग भी करते हैं।

उधर, भोपाल में गैस पीड़ितों के लिये काम करने वाले भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन के कार्यकर्ता सतीनाथ षडंगी कहते हैं, 'भोपाल के कचरे में ऐसे पदार्थ हैं जो जलाने पर डायऑक्सिन बनाते हैं। जर्मन कम्पनी का संयंत्र क्लोज्ड लूप संयंत्र था जिसमें से हवा में कुछ भी नहीं मिलता सब कुछ संयंत्र में ही सोख लिया जाता। देश का कोई भी संयंत्र डायऑक्सिन को सोखने में सक्षम नहीं हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मान चुका है कि पीथमपुर के आसपास परीक्षण में काफी मात्रा में डायऑक्सिन बरामद हुआ है।'

इतना ही नहीं पीथमपुर संयंत्र के 200 मीटर के दायरे में घनी बसावट है। जबकि खतरनाक कचरा निपटाने के मानकों पर बात करें तो आबादी के 500 मीटर के दायरे में ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। इसके स्पष्ट दिशानिर्देश हैं।

खुद राज्य शासन के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया ने 2012 में यह माना था कि कचरा निपटाने की जगह यशवंत सागर बाँध के बहुत करीब है और इसकी वजह से उसका पानी प्रदूषित हो सकता है। इस पानी की आपूर्ति इन्दौर शहर में पेयजल के रूप में की जाती है।

. भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के आसपास की मिट्टी और पानी का प्रदूषण भी अलग चिन्ता का विषय बना हुआ है। इस जहरीले कचरे का स्तर भी मानक से कई गुना ज्यादा है और सालों से तमाम बीमारियों की वजह बनता रहा है।

इस कचरे से निपटने में सरकार की लापरवाही की ओर इशारा करते हुए षडंगी कहते हैं कि इतने वर्षों तक कचरा नहीं निपटाने का नतीजा यह हुआ कि यह कचरा मिट्टी और पानी में मिलता चला गया।

इतना ही नहीं सन् 1990 से लेकर 2013 के बीच सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने इसे लेकर 17 से अधिक शोध कराए। उनसे पता चला कि इस परित्यक्त संयंत्र से करीब साढ़े तीन किलोमीटर की परिधि में 100 फुट की गहराई तक पानी प्रदूषित हो चुका है। इसके अलावा यहाँ की मिट्टी में भी कीटनाशकों और भारी धातुओं का प्रभाव है जो इंसानी जान के लिये बहुत घातक हो सकती है।

दो और तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने से हुए गैस रिसाव के कारण भीषण तबाही मची थी। आधिकारिक तौर पर 5295 लोगों की मौत हुई थी जबकि हजारों लोग विकलांग भी हुए।

कीटनाशक बनाने वाला यह कारखाना सन् 1969 में स्थापित किया गया था। कारखाने की शुरुआत की समय ही इससे निकलने वाले घातक कचरे को निपटाने के लिये परिसर में ही 21 गड्ढे बनाए गए थे। सन् 1969 से 77 तक इन गड्ढों में ही वह कचरा डाला गया।

जब कचरा बहुत अधिक बढ़ गया तो 32 एकड़ क्षेत्र में एक सौर वाष्पीकरण तालाब बनाया गया। जब घातक रसायन इसमें जाता तो पानी तो वाष्पीकृत होकर उड़ जाता जबकि रसायन मिट्टी में मिलता चला जाता है। इसके बाद ऐसे दो और तालाब बनाए गए। हादसे के बाद इनको मिट्टी से ढँक दिया गया। इस कचरे को निपटाने के लिये भी अभी कोई अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सका है।
 

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