जांच आयोग का गठन-केन्द्र, सरकार की पहल

आखिरकार भारत सेवक समाज के विरोध में ऐसा समां बना कि केन्द्रीय सरकार को उसके कार्य-कलाप की जाँच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जस्टिस जे.एल. कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन करना पड़ा। इसकी सूचना एम.एस. गुरुपदस्वामी ने 21 नवम्बर 1968 को लोक सभा में दी जिसके अनुसार कपूर आयोग निम्न विचारणीय विषयों पर अपनी राय देगा।

1. भारत सेवक समाज ने अनुदानों, ऋणों और अन्य पेशगियों के रूप में मिली केन्द्रीय सरकारी सहायता का उपयोग किस सीमा तक निर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए किया है।
2. भारत सेवक समाज को केन्द्रीय सरकार द्वारा दिये गये ऋण तथा पेशगियाँ किस सीमा तक यथोचित रूप में सुरक्षित होती हैं और समय से वसूली करने के लिए कहाँ तक उपाय अपेक्षित हैं।
3. भारत सेवक समाज को दिये गये केन्द्रीय अनुदानों, ऋणों तथा पेशगियों के बारे में उसका लेख विवरण किस सीमा तक तैयार तथा प्रस्तुत किये गये हैं अथवा किये जा सकते हैं और कहाँ तक वे स्वयंसेवी संस्थाओं को सहायता देने के लिए निर्धारित प्रक्रियाओं के अनुरूप हैं, और
4. विचारार्थ विषयों की मद (3) के अंतर्गत आयोग को स्वतंत्रता होगी कि वह इस प्रश्न की भी जाँच करे कि क्या सरकारी अनुदान के लिए पूर्व शर्त के रूप में समेकित लेखों के लिए आग्रह किया जाना चाहिये अथवा नहीं।

उन्होंने आशा की थी कि आयोग अपनी रिपोर्ट 6 महीने के अन्दर दे देगा।

यह सोचना गलत है कि किसी भी रूप में यह कोष सरकार का है। न यह अनुदान है, न ऋण और न ही भारत सेवक समाज को दी गई सरकार द्वारा कोई सहायता राशि ही। शत-प्रतिशत यह भारत सेवक समाज की है-उनके द्वारा अर्जित राशि। कोसी परियोजना नक्शे पर तभी आई, जबकि भारत सेवक समाज ने परियोजना के लिए यह राशि छोड़ दी और अन्य बिलों के साथ इस राशि को वापस नहीं लिया। कोसी परियोजना अथवा किसी भी सरकारी एजेन्सी को इस राशि पर कोई अधिकार नहीं है।यह सारे बहस-मुबाहसे केवल केन्द्रीय स्तर पर दिल्ली में ही चल रहे हों, ऐसा नहीं था। बिहार में भी राजनीतिक स्तर पर भारत सेवक समाज को लेकर काफी सरगर्मी रहती थी और विधान सभा, विधान परिषद, समाचार पत्र तथा अन्य स्थानों पर भी भारत सेवक समाज और उसकी कार्य पद्धति तथा उससे सम्बद्ध लोग चर्चा के विषय थे और बहस का मुद्दा था वही सामूहिक बचत कोष से निकाली गई राशि। बिहार में तो यह मसला दिल्ली के पहले से आकर्षण का केन्द्र था। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानन्द झा ने स्वामी हरिनारायणानन्द, संयोजक बिहार भारत सेवक समाज, को 3 नवम्बर 1961 को पत्रांक 2753 के जरिये आग्रह किया कि, ‘‘भारत सेवक समाज के हित में यह अत्यन्त वांछनीय है कि सार्वजनिक बचत कोष का उपयोग किस रूप में होता है, इस सम्बन्ध में सरकार एक स्पष्ट सार्वजनिक वक्तव्य प्रस्तुत करे। राज्य सरकार कोई निश्चित स्थिति में तभी आ सकती है जबकि कोष के आकूलन की ऑडिट रिपोर्ट प्राप्त हो जाय। मैं आशा करता हूं कि किसी सरकारी एजेन्सी द्वारा ऑडिट कराने के सुझाव का भारत सेवक समाज स्वागत ही करेगा।’’

परन्तु स्वामी जी ने उत्तर में लिखे गये पत्र सं. भा. से. स. 4468/6 ता. 6.11.1961 के द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुये लिखा कि, ‘‘समाज अराजनैतिक एवं गैर-सरकारी संस्था है जिसका उद्देश्य राष्ट्र निर्माण तथा समाज सुधार के कार्यक्रमों के हित में जनमत संगठित करना होता है। ऐसा लगता है कि समाज ने एक स्वतंत्र एजेन्सी द्वारा हिसाब किताब का ऑडिट कराना शुरू कर दिया है, मौजूदा स्थिति में सरकारी एजेन्सी द्वारा ऑडिट करवाने की जरूरत नहीं है।’’ मुख्यमंत्री ने अपने पत्र की एक प्रतिलिपि भारत सेवक समाज के ललित नारायण मिश्र को भेजी थी। ललित नारायण मिश्र ने 9 नवम्बर 1961 को एक पत्र मुख्यमंत्री को लिख कर स्पष्ट किया कि, ‘‘यह सोचना गलत है कि किसी भी रूप में यह कोष सरकार का है। न यह अनुदान है, न ऋण और न ही भारत सेवक समाज को दी गई सरकार द्वारा कोई सहायता राशि ही। शत-प्रतिशत यह भारत सेवक समाज की है-उनके द्वारा अर्जित राशि। कोसी परियोजना नक्शे पर तभी आई, जबकि भारत सेवक समाज ने परियोजना के लिए यह राशि छोड़ दी और अन्य बिलों के साथ इस राशि को वापस नहीं लिया। कोसी परियोजना अथवा किसी भी सरकारी एजेन्सी को इस राशि पर कोई अधिकार नहीं है।”

भारत सेवक समाज के हिसाब-किताब को लेकर राजनीति तभी से चल रही थी जब से समाज ने कोसी परियोजना में काम करना शुरू किया। काम शुरू होने के साथ ही यह मांग आने लगी थी कि समाज का हिसाब-किताब सार्वजनिक हो या कम-से-कम परियोजना का कल्याण अफसर उसका हिसाब-किताब देखे। ललित नारायण मिश्र तभी से इस बात के खिलाफ थे और उनका मानना था कि भारत सेवक समाज और कोसी परियोजना के बीच हुये समझौते में इस तरह का कोई जिक्र ही नहीं है। मजदूरी की दर, बचत की प्रतिशत राशि तथा देख-रेख की दर आदि तय करने में कोसी परियोजना का कोई दखल नहीं था। जब वहाँ दखल ही नहीं था तब किसको क्या दिया जाता है और सामूहिक बचत में क्या जमा होता है आदि मुद्दे भारत सेवक समाज का आन्तरिक मामला था जिसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये।

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