जापान में तबाही: परमाणु ऊर्जा पर सवाल

जापान के सेन्दाइ प्रांत में आई सुनामी से हुई तबाही को हम ठीक से स्वीकार भी नहीं कर पाए थे कि परमाणु बिजली-केन्द्रों के धराशायी होने की अकल्पनीय खबर आनी शुरु हो गई है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उत्तर-पूर्वी जापान के तीन अणु ऊर्जा केन्द्रों – फ़ुकुशिमा, ओनागावा और तोकाई में कुल छह अणु-भट्ठियों में गम्भीर हादसों की खबर आ चुकी है। इनमें सबसे ज़्यादा तबाही फ़ुकुशिमा में हुई है जहाँ कुल दस रिएक्टर स्थित हैं। इनमें से कम-से-कम दो रिएक्टरों (दाई-इचि, युनिट 1 और 3), में विस्फ़ोट हो चुका है परमाणु ईंधन को क्षति पहुंची है जिससे भारी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व सीज़ियम-137 और आयोडीन-131 का रिसाव हुआ है। युनिट एक और दो के साथ-साथ युनिट तीन में भी अत्यधिक तापमान बना हुआ है। इन तीनों रिएक्टरों में उपयोग किये जाने वाले आपातकालीन शीतक-यन्त्र शुरु में ही सुनामी द्वारा नाकाम कर दिये गए और बैटरी-चालित शीतन ने भी जल्दी ही साथ छोड़ दिया। फिर रिएक्टर की चिमनी से रेडियोधर्मिता-मिश्रित भाप बाहर निकाली गई लेकिन अणु-भट्ठी का ताप इससे कम नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की कभी कल्पना नहीं की गई थी और तब टोक्यो बिजली उत्पादन कम्पनी (TEPCO) ने इन अणु-भट्ठियों में समुद्र का पानी भरने की बात सोची, जो बिल्कुल ही लाचार कदम था। समुद्र का पानी भारी मात्रा में और तेज गति से रिएक्टर के केन्द्रक (core) में डाला जाना था जो अफ़रातफ़री के माहौल में ठीक से नहीं हो पाया। अपेक्षाकृत कम मात्रा में रिएक्टर के अन्दर गये पानी ने भाप बनकर अणु-भट्ठी के बाहरी कंक्रीट-आवरण को उड़ा दिया है। इस विस्फ़ोट में अणु-भट्ठी के अन्दर ईंधन पिघलने की और रेडियोधर्मिता फैलने की खबर तो आ ही रही है साथ ही अमेरिकी डिजाइन से बने इन रिएक्टरों में बचा ईंधन भी, जो ऊपरी हिस्से में रखा जाता है और अत्यधिक रेडियोधर्मी होता है के भी बाहरी वातावरण के सम्पर्क में आने की गंभीर आशंका व्यक्त की जा रही है।

फ़ुकुशिमा दाइ-इचि युनिट-दो की अणु-भट्ठी प्लूटोनियम-मिश्रित ईंधन पर चलती है और वहाँ हुए विस्फोट से और भी बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी जहर फैलने वाला है। इन विस्फोटों से कम-से-कम आठ कामगारों की मौके पर ही मृत्यु हो गई है। ओनागावा और तोकाई स्थित परमाणु-केंद्रों में भी तापमान विनाशकारी स्थिति तक बढ़ गया है और इस पर काबू पाने की कोशिश की जा रही है। अमेरिकी चैनल सीबीएस ने तो जापानी अधिकारियों के हवाले से खबर दी है कि जापान के सात रिएक्टर पिघलने की आशंका से जूझ रहे हैं।

जापान के प्रधानमंत्री नाओतो कान ने इसे राष्ट्र के समक्ष दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ी चुनौती करार दिया है और परमाणु आपातकाल की स्थिति की घोषणा कर दी है। दो लाख से अधिक लोगों को इन परमाणु-दुर्घटना त्रस्त इलाकों से निकाला जा रहा है लेकिन सुनामी से तबाह यातायात और राहत व्यवस्था से इसमें मुश्किल आ रही है। पूरे इलाके में सामान्य स्थिति की तुलना में हज़ारों गुना ज़्यादा रेडियेशन पाया जा रहा है। तीन दिनों के अंदर ही जापान के नागरिक समूहों और पर्यावरणविदों ने मापा है कि रेडियेशन छह सौ किलोमीटर दूर तक फैल चुका है जबकि सरकार इससे अभी तक इनकार कर रही है। जापानी सरकार और एजेंसियाँ इस पूरे घटनाक्रम की नियंत्रित खबरें ही दे रही हैं। वैसे परमाणु दुर्घटनाओं के मामले में बाकी सरकारों की तरह जापान भी अपनी जनता से झूठ बोलता रहा है। लीपापोती के ऐसे ही एक मामले में 2002 में TEPCO के अध्यक्ष को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। रविवार शाम को जापानी नागरिकों के एक समूह CNIC की प्रेसवार्ता में फ़ुकुशिमा के इंजीनियर रह चुके मसाशी गोतो ने बताया कि रिएक्टर में मौजूद गैस के दबाव की मात्रा की निर्माण के वक्त कल्पना भी नहीं की गई थी।

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी द्वारा आयोडीन की गोलियाँ बँटवाने और आबादी खाली करने के क्षेत्र को तीन से दस फिए बीस किलोमीटर तक बढा़ने से ही पता चलता है कि रेडियेशन का खतरा बहुत गम्भीर है। इन रेडियोधर्मी किरणो की चपेट में आने से कैंसर के अलावा ल्यूकीमिया और थायरायड जैसे घातक रोग बड़े पैमाने पर होते हैं और जन्मजात अपंगता, बांझपन इत्यादि पीढियों तक दिखने वाले दुष्प्रभाव होते हैं। रेडियेशन का असर प्रभावित इलाकों में सैकडों हज़ारों साल तक रहता है। जापान में तो सुनामी से पैदा हुई बाढ ने स्थिति और बिगाड़ दी है, साथ ही विशेषग्यों की आशंका है कि आने वाले दिनों में हवाओं के रुख और प्रशान्त महासागर की लहरों के हिसाब से रेडियेशन चीन, कोरिया, हवाई, फिलीपीन्स और आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक दूर-दूर के देशों में पहुंच सकता है।

हर तरफ़ इस दुर्घटना से हड़कम्प मचा हुआ है और चेर्नोबिल तथा थ्री-माइल आइलैंड सरीखी तबाहियों की याद सबको आ रही है। जर्मनी में रविवार को स्वतःस्फ़ूर्त हज़ारों लोगों ने परमाणु-विरोधी प्रदर्शन किया और दुनिया भर के जनांदोलनों, पर्यावरणविदों और विशेषग्यों ने परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार करने की मांग की है। लेकिन मुनाफ़े के लालच में अंधी कम्पनियां एवं केन्द्रीकृत ऊर्जा-उत्पादन के मायाजाल से ग्रस्त सरकारें शायद ही इससे कुछ सीखें। इस दुर्घटना के बाद भारत के परमाणु-अधिष्ठान भरोसा दिलाया है कि हमारे देश के रिएक्टर में ऐसे हादसे नहीं होंगे। परमाणु ऊर्जा उद्योग से जुड़ा अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार तंत्र भी यही समझाने में जुटा है कि जापान सुनामी अप्रत्याशित रूप से भयावह थी वहाँ के रिएक्टर पुराने डिजाइन के थे, जबकि हाल तक जापानी अणु-ऊर्जा उद्योग को पूरी तरह सुरक्षित और उच्च तकनीक से लैस बताया जाता था। सोमवार सुबह जब जापान में दूसरे विस्फोट की खबर आई तब भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर महाराष्ट्र की विधानसभा में जैतापुर अणु-ऊर्जा प्रकल्प को ज़रूरी ठहरा रहे थे। इस योजना के खिलाफ़ रत्नागिरि जिले के किसान, मछुआरे और आमजन पिछ्ले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं और सरकार ने भारी दमन इस्तेमाल किया है। दर्जनों लोगों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं। जिले से बाहर के आन्दोलनकारियों को बाहरी, देशविरोधी-विकासविरोधी और भड़काऊ बताकर घुसने नहीं दिया जा रहा जबकि उस इलाके के आन्दोलनकारियों को जिलाबदर कर दिया गया है – सरकार के लिए एकमात्र देशभक्त फ्रान्सीसी परमाणु कम्पनी अरेवा है जो लोगों को विस्थापित कर रही है और पूरे इलाके के पर्यावरण और जानमाल को खतरे में डाल रही है। जैतापुर का प्रकल्प फ़ुकुशिमा से कई गुना बड़ा होगा और यह भी दुर्घटना-सम्भावित समुद्र तट पर बनाया जा रहा है। देश में पहले ही कलपक्कम, कूडन्कुलम, तारापुर और नरोरा जैसे अणु-ऊर्जा केंद्र हैं जो भूकम्प और दुर्घटना सम्भावित इलाकों में बने हैं और कभी भी भयाअह हादसों को जन्म दे सकते हैं।

परमाणु ऊर्जा बिजली का सबसे महंगा और खतरनाक स्रोत है। बिना भारी सरकारी मदद और सब्सिडी के यह उद्योग दुनिया में कहीं भी नहीं चल पा रहा है। आतंकवादी हमले, प्राकृतिक दुर्घटनाएँ, तकनीकी लापरवाही इस परमाणु-भट्ठियों को पल भर में जलजला बना सकते हैं। आजकल परमाणु ऊर्जा के समर्थन में जलवायु परिवर्तन का तर्क दिया जाता है और अणु-ऊर्जा को कार्बन मुक्त बताया जाता है। एक तो अणु-ऊर्जा के उत्पादन में युरेनियम खनन, उसके परिवहन से लेकर रिएक्टर के निर्माण तक काफी कार्बन खर्च होता है जिसकी गिनती नहीं की जाती, साथ ही फ़ुकुशिमा ने यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन का समाधान होने की बजाय अणु-ऊर्जा केन्द्र दरअसल बदलते जलवायु और भौगोलिक स्थितियों को झेल नहीं पाएंगे क्योंकि इन्हें बनाते समय वे सारी स्थितियां सोच पाना मुमकिन नहीं जो जलावायु-परिवर्तन भविष्य में अपने साथ लेकर आ सकता है। चालीस साल पहले फ़ुकुशिमा के निर्माण के समय जापान में इतनी तेज सुनामी की दूर-दूर तक सम्भावना नहीं थी, वैसे ही जैसे भारत में कलपक्कम अणु-ऊर्जा केंद्र को बनाते समय सुनामी के बारे में नहीं सोचा गया था। अधिकतम साठ साल तक काम करने वाले इन अणु-बिजलीघरों में उसके बाद भी हज़ारों सालों तक रेडियोधर्मिता और परमाणु-कचरा रहता है। ऐसे में, इतने लम्बे भविष्य की सभी भावी मुसीबतों का ध्यान रिएक्टर-डिजाइन में रखा गया है, यह दावा आधुनिकता और तकनीक के अंध-व्यामोह के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है।

अमेरिका से परमाणु सौदे के बाद सरकार देश में दर्जनों अणु-ऊर्जा केन्द्र बनाने की तैयारी कर रही है जिनमें से ज़्यादातर समुद्र तटों पर स्थित होंगे – पश्चिम बंगाल में हरिपुर, आंध्र में कोवाडा, गुजरात में मीठीविर्डी और महाराष्ट्र में जैतापुर। इन बिजलीघरों से बनने वाली बिजली काफ़ी कम, बहुत महंगी होगी और ज़्यादातर बड़े शहरों और औद्योगिक केंद्रों को बिजली दी जाएगी। ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता और प्रचुरता हासिल करने के कई विकेंद्रीकृत उपाय जानकारों ने सुझाए हैं लेकिन इसके लिये ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति, ऊर्जा-कार्पोरेटों के खिलाफ़ जाने की हिम्मत और विकास की वैकल्पिक समझ हमारे सत्ता-तंत्र में नहीं है।

जापान की इस भयावह त्रासदी में जापानी नागरिकों के लिये दुआ और उनकी यथासम्भव मदद करने के साथ ही यह भी ज़रूरी है कि इस हादसे से हम सबक लें। हिरोशिमा में अणु बम की विभीषिका झेल चुके इस देश ने परमाणु के ’शांतिप्रिय’ उपयोगों से मुक्ति नहीं पाई. एक बडे़ अर्थ में सोचें तो द्वितीय विश्व-युद्ध, जो मूलतः पूंजीवादी लालच और होड़ का नतीजा था, में बर्बाद होकर भी इस देश ने केंद्रीकृत पूंजीवादी विकास को ही अपनाया, वस्तुतः बाकी दुनिया को इस रास्ते पर रिझाने को ही अपनी सफ़लता माना और परमाणु के शांतिपूर्ण अवतार को इस सबके केंद्र में रखा। पिछले कुछ सालों में पूंजीवाद की अनिवार्य बीमारी आर्थिक मंदी झेलता हुआ जापान आज जिस विनाश के मुहाने पर खड़ा है, इससे दरासल हिंसक आधुनिक सभ्यता के हर हिस्से पर गम्भीर सवाल खडे़ होते हैं – लगभग वही सवाल जो पिछली सदी की शुरुआत में गांधीजी ने हिंद स्वराज में हमारे सामने रखे थे।
 

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