जहाँ मृत्यु ने साधना की

महाभारत में एक अन्य कहानी आई है। सृष्टि में पहले मृत्यु नहीं थी, सभी प्राणी सिर्फ जिन्दा रहते थे। कुछ समय तक तो सब ठीक चला मगर बाद में ब्रह्मा को लगा कि जब कोई मरेगा ही नहीं तब तो भारी अव्यवस्था फैल जायेगी। तब पृथ्वी के भार को हल्का करने के लिए ब्रह्मा के तेज से मत्यु की उत्पत्ति होती है जिसे ब्रह्मा सारे प्राणियों के संहार के लिए नियुक्त करते हैं। लाल और पीले रंग की यह नारी जो कि तपाये हुये सोने के कुण्डलों से सुशोभित थी और जिसके सभी आभूषण सोने के थे, यह प्रचण्ड कर्म नहीं करना चाहती थी जिसके लिए उसने बार-बार ब्रह्मा से याचना की पर सफल न हो सकी। अंततः उसने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। अपनी तपस्या के क्रम में मृत्यु ने कौशिकी का आश्रय लिया था,

‘सा पूर्वे कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैधिता
तत्रा वायु जलाहारा च चार नियमं पुनः।’


महाभारत, द्रोणपर्व 54/22

‘तदनन्तर व्रत नियमों से सम्पन्न हो मत्यु पहले पुण्यमयी कौशिकी नदी के तट पर गई और वहाँ वायु तथा जल का आहार करती हुई पुनः कठोर नियमों का पालन करने लगी।’

संहार कर्म से बचने की मृत्यु की यह तपस्या सफल नहीं हुई और अन्ततः उसे ब्रह्मा का आदेश मानना ही पड़ा। पता नहीं मृत्यु की तपस्थली के रूप में वेदव्यास ने कौशिकी को क्यों चुना?

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