जिद्दी विकास के खतरे

इन दिनों पूरे देश की नजर उत्तराखंड पर है, नेताओं, प्रशासकों, पर्यावरणविदों से लेकर आम आदमी तक सिर्फ इसी भयावह त्रासदी की चर्चा है। सभी अपनी-अपनी ओर से सलाहकारों की भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन इस विनाश का पछतावा या इसकी पुनरावृत्ति सबंधी चिंता या तो शून्य मात्र है या अल्पकालिक है। इसका कारण ‘हमारे न सुधरने’ की प्रवृत्ति है। उत्तराखंड में आई त्रासदी की यह कोई पहली घटना नहीं है, इसका इतिहास अपने आप में कई दिल दहला देने वाली घटनाओं को समेटे हुए है। वर्ष 2002 में टिहरी के बूढ़ा केदार के समीप अगुंडा गांव में भूस्खलन से लगभग पूरा गांव तबाह हो गया और 28 लोगों की मौत हो गई थी। 2003 में उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत में हुए भूस्खलन से शहर के दजर्नों होटल व भवन जमींदोज हो गए थे।

ऐसा नहीं है कि विकास गलत है, लेकिन यह पर्यावरण या लोगों की जान की कीमत पर नहीं होना चाहिए। इससे पहले कि यह ‘विकास’ विनाश का अतिविकराल रूप धारण करे। हमें इससे सबक ले लेना चाहिए। विकास के इन मुरीदों को यह बात कब समझ में आएगी, कहना मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने ‘हम नहीं सुधरेंगे’ की कसम जो खाई है।2004 में चमोली जिले में लामबगड़ व पीपलकोटी में भूस्खलन से बदरीनाथ राजमार्ग का 300 मीटर का हिस्सा पूरी तरह ध्वस्त हो गया था, जिसमें करीब 17 लोगों की जानें गईं और 2012 में उत्तरकाशी में बादल फटने से भारी तबाही हुई जिसने 39 लोगों की जानें ली व दजर्नों मकानों सहित 600 करोड़ की सम्पत्ति का विनाश कर दिया था। इसी वर्ष रुद्रप्रयाग में भूस्खलन से 76 लोगों की मौत हुई व तीन गांवों में दजर्नों घर इसकी भेंट चढ़ गए।

उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन का गठन 2000 में इस राज्य के साथ ही हो गया था किन्तु पिछले वर्षो में इन घटनाओं को रोकने के लिए ठोस योजनाओं को बनाने या उन पर अमल करने में इसने कितनी संजीदगी दिखाई इसका प्रमाण आज इस प्रलयकारी विनाश के रूप में सामने है। इस घटना से पूरे राज्य का ढांचा चरमरा गया है।

लगभग 2000 गांव तबाह हुए, हजारों लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी हैं। बाढ़ से मिट्टी चारों तरफ बह गई है, जाहिर है इससे खेती पर प्रभाव पड़ेगा। जो फसलें तैयार हैं उन्हें बाजार पहुंचाना असंभव है क्योंकि सड़कें नष्ट हो गई हैं, पुल बह गए हैं। पीने के पानी के स्रोत खत्म हो गए हैं और गंदे पानी व कीचड़ के बीच महामारी के प्रकोप की भी आशंका है। सरकार के लिए ये महज 2014 के चुनावों में बाजी मार लेने की दौड़ है जिसमें बारी-बारी से बयानबाजी करके सभी नेता अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

मौसम विभाग व प्रबंधन तंत्र इस मामले में अब तक नहीं जागा था तो आगे जागेगा, इसकी क्या गारंटी है? यदि जाग भी गया तो कितनी सक्रियता दिखायेगा इसमें अभी संदेह है। अब जनता, जिसने अपना कुछ माल-असबाब व प्रियजनों को खोया है उनके लिए घरों में इस विनाशलीला के किस्से सुनाने के लिए बच जाएंगे। रही बात प्रदेश के पुनर्निर्माण की तो जिन लोगों ने विकास के नाम पर इसके विनाश को बढ़ावा दिया है वो फिर से अपने कार्यो में लगकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करते नजर आएंगे।

जैसा कि हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अवैध खनन को लेकर एक साक्षात्कार में कहा है कि खनन हमारी जरूरत है क्योंकि इसके आधार पर हम बड़ा मुनाफा प्राप्त करते हैं, लेकिन यह चयनात्मक और वैज्ञानिक होना चाहिए। उनकी कही बातें किस हद तक सही साबित होंगी कहा नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे संवेदनशील मसलों को दरकिनार करना इनकी आदत में शुमार है। इसके कई प्रमाण हैं- गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक 135 कि.मी. पट्टी को केन्द्र सरकार ने पारिस्थितिकी संवेदनशील घोषित किया था मगर उत्तराखंड सरकार ने विकास के नाम पर इसकी अनदेखी कर दी थी।

इसके अलावा अलकनंदा-भागीरथी पर 70 बांध बनाने के विरोध के बावजूद कोई पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ। तमाम आपत्तियों के बावजूद टिहरी बांध बनकर रहा। इस प्रकार के निर्माण पर्वतों को तो कच्चा करते ही हैं साथ ही साथ इनका प्रभाव अन्य सटे हुए प्रदेशों में भी देखने को मिलता है, लेकिन इन स्थितियों को अनदेखा कर प्राकृतिक संपदा का दोहन बेलगाम होता रहा और विकास की अंधी दौड़ नहीं रुकी।

ऐसा नहीं है कि विकास गलत है, लेकिन यह पर्यावरण या लोगों की जान की कीमत पर नहीं होना चाहिए। इससे पहले कि यह ‘विकास’ विनाश का अतिविकराल रूप धारण करें, हमें इससे सबक ले लेना चाहिए। विकास के इन मुरीदों को यह बात कब समझ में आएगी, कहना मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने ‘हम नहीं सुधरेंगे’ की कसम जो खाई है।

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