पहाड़ों पर संकट

9 Jul 2020
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अधिकांश लोग पहाड़ों को पर्यटन स्थल के रूप में मानते आए हैं, जहां वें शहरों की भागदौड़ और प्रदूषण भरी जिंदगी से निकलकर सुकून के दो पल बिताने जाते हैं। एक बड़ा तबका, जो पहाड़ों को काफी करीब से जानता और समझता है, या कहें कि दिल की गइराईयों से प्रकृति से जुड़ा है, इन पहाड़ों को पृथ्वी के प्राण और हृदय (दिल) मानता है। वास्तव में पृथ्वी के प्राण ही हैं पहाड, जो न केवल पर्वतीय इलाकों के लोगों को, बल्कि मैदानी इलाकों को भी शुद्ध हवा देते हैं। पहाड़ों से निकलने वाले प्राकृतिक जलस्रोत और सदानीरा नदियां, हर इंसान को जल प्रदान करती हैं। औषधीय वनस्पतियों का घर हैं पहाड़। यहां हर प्रकार की बीमारी के उपचार के लिए औषधि उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने उत्तराखंड़ की वादियों में ही आए थें। जैवविविधता की दृष्टि से पहाड़ स्वर्ग है, लेकिन इन पहाड़ों को शायद किसी की नजर लग गई है, जिस कारण दुनिया को पानी देने वाला पहाड़ खुद पानी के लिए तरस रहा है। कभी हमेशा पानी से भरे रहने वाले पहाड़ों की कोख लगातार सूखती जा रही है। यहां के बाशिंदे कई इलाकों में बूंद बूंद के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं। कई इलाकों में खेती के लिए तक पर्याप्त पानी उपलब्ध नही हैं। जिस कारण लोग खेती छोड़ रहे हैं। ऐसा ही कुछ हाल उत्तराखंड का है, जहां सरकार और प्रशासन को पहाड़ों के सूखने का कारण तो पता है, लेकिन उनकी तरफ से ऐसी कोई पहल होती नजर नहीं आ रही है, जिससे पहाड़ों की सूखती कोख में फिर से पानी भरा जाए।

कहते हैं जंगल के लिए पानी बेहद जरूरी है, लेकिन ‘जंगल’ किस प्रकार का हो, इस पर कोई चर्चा नहीं करता है। फाॅरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘उत्तराखंड़ का कुल भौगोलिक क्षेत्र 53483 स्क्वायर किलोमीटर है। इसमें 24303 (45.44 प्रतिशत) स्क्वायर किलोमीटर में वन क्षेत्र है।’’ राज्य में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधें और वनस्पतियां हैं, लेकिन पहाड़ों का अधिकांश हिस्सा चीड़ के पेड़ों से घिरा है। चीड़ के पेड़ के कई प्रकार के लाभ हैं, लेकिन ज्यादा संख्या में चीड़ नुकसानदायक साबित होता है। एक प्रकार से उत्तराखंड का दुश्मन बना हुआ है चीड़। दरअसल उत्तराखंड में चीड़ पहले नहीं था। औपनिवेशिक काल में पहाड़ की आर्थिकी मजबूत करने के नाम पर चीड़ लगाया गया। अंग्रेजों ने चीड़ से खूब लाभ कमाया। वक्त के साथ जैसे जैसे चीड़ का फैलाव हुआ, उत्तराखंड़ के पहाड़ों पर संकट मंडराना शुरु हो गया। संकट का एक बड़ा कारण घनी आबादी भी है।

वैसे तो पलायन पहाड़ का दर्द है, लेकिन बढ़ता जल संकट पहाड़ को जख्म दे रहा है। अधिकांश नौले, धारे और गदेरे सूख गए हैं। खेत बंजर होते जा रहे हैं। जलते जंगल बची हुई खुशहाली छीन लेते हैं। इस कारण भी लोग रोजगार की तलाश में पलायन कर मैदानों का रुख करते हैं, लेकिन आज भी कई लोग पहाड़ के संघर्ष को चुनौती देते हुए बदलाव की अलख जगाने के प्रयास में लगे हुए हैं। इन्हीं प्रयासों में कई लोग जल संरक्षण की ओर कदम बढ़ाते हुए चाल, खाल और खंतियां बना रहे हैं। 

 

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