जल - भारतीय प्राचीन ग्रंथों से कुछ तथ्य (Water : some facts from ancient Indian books)


‘सलिलम्सर्व सर्व मा इदम्’ हिन्दुओं की चार प्राचीनतम पवित्र पुस्तकों में से एक ऋग्वेद (एक सहस्र वर्ष इस्वी पूर्व) की महान वैज्ञानिक ऋचा द्वारा प्रतिस्थापित है कि पृथ्वी के प्रारम्भ से जल था। कहा जाता है कि जीवन का आरम्भ जल में हुआ। ईसाईयों से सृष्टि निर्माण का सिद्धान्त भी यह अनुमान करता है कि ईश्वर ने, पृथ्वी और आकाश की प्रथम दिन सृष्टि के बाद दूसरे दिन स्वर्ग एवं जल का निर्माण, तीसरे दिन भूमि एवं पेड़ पौधों की उत्पत्ति द्वारा आगे सृजन कार्य इसी प्रकार से किये।

जल जीवन का अमृत फल है। यह सभी प्राणियों हेतु अनिवार्य है। प्राचीन काल मेें मनुष्य वहीं फला-फूला जहाँ पृथ्वी पर जल की आपूर्ति काफी मात्रा में थी। यह आज भी सत्य है। प्राचीन काल में भारतवासी नगर के मुख्य रास्तों पर पथिकों को जल से तृप्त कर विशेष प्रसन्नता का अनुभव करते थे। धर्म प्राण हिन्दुओं द्वारा कूप का निर्माण बड़ा पुण्य कार्य माना जाता था। बुद्ध के समय वाराणसी में अवस्थित एक ऐसे ही कूप पर यह निर्देश लिखा था कि जो कोई भी मनुष्य इस कूप से जितना जल निकाले उतना ही पास में बने एक नाद या लघु कुंड में भी डाल देवे जिससे जानवरों एवं विकलांगों की भी प्यास बुझे’ (मोतीचन्द्र 1962)। महात्मा बुद्ध के काल की एक और कथा का जिक्र आवश्यक है-

शाक्य और कोलिय जनपदवासियों के बीच एक नदी रोहिणी के पानी को लेकर विवाद पैदा हुआ। प्रश्न यही था कि उस नदी के पानी से कितने खेत सींचे जाएँ। इस विवाद के चलते दोनों जनपदों के बीच युद्ध की नौबत आ खड़ी हुई। करुणामूर्ति तथागत को जब यह पता चला तो वे स्वयं युद्धस्थल पर पहुँचे। उन्होंने युद्ध के लिये तैयार दोनों पक्षों के राजाओं से पूछा पानी का मूल्य अधिक है या रक्त का? ‘रक्त का- उत्तर मिला।

तो फिर तुम लोग पानी के लिये रक्त बहाने पर क्यों उतारू हो? तथागत के इस कथन के फलस्वरूप शाक्य और कोलियों के बीच होने वाला युद्ध टल गया।

एक अन्य पवित्र ग्रंथ ‘विष्णु पुराण’ में स्पष्ट लिखा है कि जो कोई भी कूप, बगीचा तथा बागों की मरम्मत, निर्माण कराता है, यह बहुत उचित कार्य होता है। महर्षि वाल्मीकि ने अपने महान ग्रन्थ ‘रामायण’ में अनेक जल प्राणियों का वर्णन किया है जिनका पूजन भगवान राम ने अपने वनवास के समय स्थान-स्थान पर किया।

जल का उपयोग पीने के अतिरिक्त सिंचाई और उद्योग में भी अनादि काल से होता आ रहा है। हमारे पूर्वजों ने अपेयजल के संक्रामक रोगजनक दोषों का भी पहचाना था।

जल के स्रोत


अत्यन्त प्राचीनकाल मेें भी भारतीयों को जल के विभिन्न स्रोतों का पता था। ऋग्वेद में जल को चार भिन्न-भिन्न भागों में बाँटा गया था। इसके अन्तर्गत 1. आकाश से प्राप्त होने वाला, 2. नदियों एवं जलधाराओं में बहने वाला, 3. खनन द्वारा प्राप्त, 4. भूमि से रिसकर निकलने वाला भूजल। जाहिर है कि वे आकाशीय जल, सतही जल, कूपजल एवं स्रोत जल की ओर इंगित करते हैं। वैदिक शब्दकोष ‘निघंटु’ में कूप को एक ऐसा जलस्रोत बताया गया है जिससे जल को श्रम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह संकेत कूप निर्माण हेतु खनन के श्रम की ओर है। भूजल के अन्य स्रोत के रूप में उत्साह तथा उत्स्त्रुत प्रकार के जल स्रोत होते हैं, इसके साथ-साथ एक दर्जन अन्य प्रकार के कूपों का भी उल्लेख किया गया है।

स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारतीयों को भूजल का ज्ञान था। विशेषकर इसका जलोढ़ मैदानों में उपस्थिति का भान था जिस कारणवश ऐसे स्थानों पर आवश्यकतानुसार विपुल मात्रा में कूप निर्माण होते थे। इस तथ्य के प्रमाणस्वरूप अर्जुन द्वारा पृथ्वी को बाणों से भेदकर जल प्राप्त करने वाली घटना है। घटनास्थल कुरुक्षेत्र भी एक जलोढ़ मैदान ही है।

scan0022हमारे अपौरूषेय ग्रन्थ वेदों में जल के उपयोग सम्बन्धी वैज्ञानिक एवं तकनीकी स्तर पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है तथा चारों वेदों से अथर्ववेद में- शंनो देवीरभिष्ट्य आपो भवन्तु पीयते अर्थात दिव्य जल हमें सुख दे। यह ईष्ट प्राप्ति के लिये तथा पीने के लिये हो।

शंनः खनित्रिमाआपः खोदकर निकाला जल अर्थात भौम जल हमेें सुख दे शिवा नः सन्तु वार्षिकी। वृष्टि से प्राप्त जल हमारा कल्याण करने वाला हो। ऋग्वेद में जल चक्र हाइड्रोलॉजिकल साइकिल का संकेत मिलता है। इन्द्रोदीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत्दिवि। विगोभिरद्रि मैरयत अर्थात प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया, जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो। इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा के रूप में आता है।

यजुर्वेद में समुद्र से मेघ, मेघ से पृथ्वी और फिर विभिन्न सरिताओं में जल से बहाव और फिर समुद्र में उसके संचयन एवं वाष्प का वर्णन है। सामवेद में भी सूर्य एवं वायु द्वारा जलवाष्प के रूप मेें मेघ बनाता है जो वर्षा के रूप में मेघ बनाता है और वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आता है।

मानसून का वर्णन यजुर्वेद संहिता में सल्लिवात के रूप में आता है। वेदों से बाद के ग्रन्थ ‘मार्कण्डेय’ पुराण में उल्लेख है कि पृथ्वी पर प्राप्त होने वाला सभी जल सतही अथवा भूजल का स्रोत, सागर है और पृथ्वी तल का सभी जल अन्ततः महासागरों में पहुँचकर ही विलीन हो जाता है।

ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दि के महान शल्यक सुश्रुत ने उल्लेख किया है कि जल के तल से वाष्पीकरण के फलस्वरूप बादल बनते हैं जो वर्षा बनकर पुनः सतह पर आते हैं तथा जिनका एक बड़ा भाग सागर को मिल जाता है। यह और कुछ नहीं उन महर्षि के पश्चात लियोनार्डो-द-विंची सन 1452 ये 1519 महान व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित जलचक्र ही है। सुश्रुत ने वाष्पीकृत जल के स्रोत सागर अथवा नदी को पहचानने हेतु एक टिप्पणी भी की थी कि गंगा नदी के वाष्पीकृत जल को शाली चावल के भात बनाने हेतु उपयोग करने पर 48 मिनट में रंगीन बना देता है जबकि अन्य स्थानों से वाष्पीकृत जल में यह गुण नहीं मिलता। सम्भवतः सुश्रुत का तात्पर्य गंगा को इंगित कर सामान्यतः सभी नदियों से था।

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अतिरिक्त जल के विभिन्न स्रोतों का वर्णन प्राचीन साहित्य जैसे ईसा पूर्व प्रथम शती में विरचित भाष कवि के प्रतिज्ञा योगन्धरायण नामक नाटकों के रचयिता चालुक्य वंश के राजा सोमेश्वर (12वीं शती ई.) ने भी दिव्य तथा अन्तरिक्ष दोनों आकाश से ही प्राप्त होने वाले, प्रथम स्वाती नक्षत्र मेें और दूसरा अन्य नक्षत्रों में जैसे 2. नादेय किसी पर्वती धारा जो मैदान में पुहुँचती हो, 3. पर्वत तल से उद्गमित निर्झर 4. पर्वतीय जलधारा तथा स्रोतों से निकले पानी से एकत्र बने कुण्ड में जहाँ श्वेत अथवा लाल कमल उगे हों, सरस जल 5. कठोर चट्टानों से निकले स्रोतों से चौण्ड जल 6. भूगत से प्राप्त भूजल द्वारा जल के प्रकारों का वर्गीकरण किया है। तत्पश्चात ऐसे जल को जो वर्षा बाद एक कुंड में एकत्र हो जावे तड़ाग तथा नारियल के वृक्ष को ‘जल वृक्ष’ की संज्ञा दी।

उपयोग


यह भलीभाँति ज्ञात है कि जल के अनेक उपयोग हैं। काफी अरसे से जल का उपयोग पीने एवं सिंचाई हेतु होता आ रहा है। यह भी प्रतिस्थापित है कि प्राचीन सभ्यता नदी घाटियों में विकसित हुई जहाँ जल भरपूर मात्रा में उपयोग हेतु उपलब्ध था। जलस्रोतों विशेषकर नदियों, कूपों एवं स्रोतों के स्थल पर अनेक धार्मिक मेले भी होते आ रहे हैं। ऐसे अनेक स्रोतों, कूपों के जल अपने चिकित्सकीय गुणों हेतु भी विख्यात हैं। इनमें पटना का राजगृह कुंड, कांगड़ा जिला, हिमाचल प्रदेश का मणिकरन कुण्ड, उत्तर प्रदेश के चमोली जिले का गोरीकुण्ड तथा वाराणसी का वृद्धताल है। ई.पू. की सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों की खुदाई में अनेक कूप, कुंड तथा नहरें प्राप्त हुई हैं।

चौथी शती ई.पू. के महान वैयाकरण पाणिनी ने शकन्थु कूपों का वर्णन किया है जो मध्य एशिया के शक लोगों द्वारा उपयोग में लाया जाता था (अगरवाल, 1955) इन कूपों में जल स्तर तक उतरने हेतु सीढ़ियों की व्यवस्था की। बाद में इन कूपों का चलन बावड़ी रूप में हमारे देश में भी हुआ जिसमें जानवर एवं मनुष्य भी एक ढालुआँ रास्ते से अथवा इच्छानुसार सीढ़ियों द्वारा जलस्तर तक पहुँच सकते थे। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि गुजरात में विशेषकर उत्तरी भाग में एक प्रकार की बावड़ी जिसे वाव कहते थे जो 70 मीटर तक गहरी और जलस्तर तक निर्मित सीढ़ियों से युक्त बनाई जाती थी। ये सीढ़ीदार कूप वातानुकूलित कक्षों का काम देते थे जिनके चारों ओर चौड़ी बारहदरी बनी होती थी। ये वाव 7 शती ईस्वी तक प्राचीन और सौराष्ट्र क्षेत्र में 1935 तक आधुनिक काल में भी बनाए जाते रहे।

कौटिल्य (तीसरी शती ईस्वी पूर्व) ने अपने अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ में जनता को पीने के पानी हेतु शासक के आवश्यक कार्यों में कूपों, तालाबों तथा नहरों का निर्माण बतलाया है। समाज के श्रेष्ठजनों द्वारा यह एक पवित्र कार्य माना जाता था। ऐसे कार्य हेतु काठियावाड़ में उस युग के एक तालाब पर शिलालेख द्वारा जो निर्देशित है। उससे यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप मेें सीमित वर्षा तथा कठोर चट्टानों के कारण भूजल के दोहन की समस्या होने के कारण जल के भण्डारण हेतु तालाबों का निर्माण बहुत प्रचलित माना जा सकता है। गर्मी के मौसम में जल की कमी को दूर करने हेतु वर्षाजल को लाभप्रद रूप में एकत्र किया जाता रहा। पाकिस्तान में पेशावर के पास अरा नामक स्थान पर बने एक कूप पर खोष्टीलिपि में यह स्पष्ट लिखा है कि इसका निर्माण अपने पूर्वजों एवं पारिवारिक सदस्यों के मान हेतु तथा सभी जीवों को सभी जन्मों में लाभ हेतु कराया गया।

लगभग उसी समय कावेरी का विशाल एनीकट भी बनाया गया जो कि तमिलनाडु के तंजौर (जिसको तंजाउर भी लिखा जाता है) जिले की पीने के पानी एवं सिंचाई की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। सुश्रुत ने अपनी संहिता में जल के चिकित्सकीय गुणों का वर्णन किया है। उसके अनुसार वायुमण्डलीय जल न तो कफ कारण है और न ही शरीर में दुःस्थित अवस्था का जनन करता है। कूप का जल पित्तकारक एवं भूख को बढ़ाने वाला होता है। उत्सुत जल पित्तकारक तथा दलदलीय जल शरीर के सभी अंगों में अनुपंकित स्राव बढ़ाता है। महर्षि सुश्रुत ने अन्यान्य विषयों के साथ यह भी लिखा है कि गर्मी के दिनों में जल को ठंडा रखने हेतु कपड़े के एक टुकड़े को साइफन की क्रिया द्वारा परिचालित करते रहना चाहिए। रत्नों जैसे गारनेट, मोती, कमल की जड़, कटक का फल, स्ट्राइकनोस रोटेटोरम अथवा लिनन के टुकड़े से जल की शुद्धीकरण हेतु जल रखा जावे वह पात्र मूंज घास की बनी झिल्ली पर रखा जाना चाहिए।

scan0037राजा सोमेश्वर ने अपने ग्रन्थ मानसोल्लास में विभिन्न स्रोतों से जल की भिन्न-भिन्न संज्ञाओं को बताते हुए स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रत्येक जल के गुणों का भी वर्णन किया है। जैसे सरस को बसन्त ऋतु में, निर्झर को गर्मी के समय, भूजल को वर्षा ऋतु में क्योंकि अनेक स्तरों से छनता हुआ आने से यह प्रदूषणरहित होगा, स्वाति नक्षत्र का दिव्य जल शरद में, तड़ाग का जल शिशिर तथा नादेय जल हेमंत ऋतु में पान करना चाहिए।

सिंधु घाटी सभ्यता के काल से ही भारतीयों का मुख्य जीविका साधन कृषि चला आ रहा है। हड़प्पा काल से ही किसान सतही एवं भूजल का उपयोग करते आ रहे हैं। अनेक स्थलों की पुरातात्विक खुदाई इस तथ्य के प्रमाण हैं। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त कपड़े के टुकड़े पर बने ढेंकुली का चित्र तथा पत्थर इस सम्बन्ध में प्रमाणस्वरूप हैं। उपरोक्त ढेंकुली का चलन भारत में रहा है तथा यह लाट या पिक्षोटाह कहलाती थी जो अति प्राचीन काल से पानी उठाने की प्रक्रिया का अंग है। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त चित्र में एक व्यक्ति को शेडूफ का उपयोग करते दिखाया गया है। लेखक को इस प्रकार के और प्रमाण गुजरात में लोथल नामक स्थान में भी मिले हैं। उसने ईस्वी 1500 में तालाबों में एकत्र जल द्वारा सिंचाई की अति प्राचीन पद्धति बताई है यद्यपि उस समय कूपों का प्रचलन काफी था। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग सिंचाई हेतु नहरों का उपयोग करते थे और यहाँ तक कि वर्षा के देवता इन्द्र का नाम पुरन्दर या नहरों के विनाशक तथा नहरों के विध्वंसक नाम से भी पुकारा जाता है (देव 1977)।

अर्वाचीन इतिहास में जनता के कल्याणार्थ नहरों के निर्माण का विवरण मिलता है। तुगलक के शासनकाल में की गई और बाद में शाहजहाँ द्वारा दिल्ली तक ले जाई गई। मुगल शासनकाल के अन्तिम दिनों में (18वीं शती ईस्वी) बादशाह मुहम्मद शाह ने पूर्वी यमुना नहर का निर्माण कराया था। यहाँ तक कि ब्रिटिश राज्यकाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में लोअर गंगा कैनाल का निर्माण कराया था। यहाँ पर यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि विदेशी शासक जो नहरों के निर्माण हेतु यद्यपि उत्सुक थे, उत्तरी भारत के भूजल के दोहन एवं उपयोग हेतु उत्साहित नहीं थे। द्वितीय दुर्भिक्ष आयोग (सन 1898 ईस्वी) की एक रिपोर्ट में इस तथ्य का आभास मिलता है, यह भी विचारणीय है कि शासन वैज्ञानिक अनुदान रूप में धन सम्भवतः न दे क्योंकि कूप निर्माण से जल प्राप्ति होगी या नहीं? साथ ही वर्तमान काशिराज के प्रथम पुरुष राजा महीप नारायण सिंह जी द्वारा सन 1788 ईस्वी में पड़ने वाले अकाल में गरीब किसानों को लगभग 40000 रुपए की राशि बतौर तकावी कूप निर्माण हेतु विभीषिका से बचने हेतु बाँटी गई थी। आनुषंगिक रूप से ब्रिटिश शासकों द्वारा यह कार्य उनके अकाल हेतु राहत कार्यों में उचित कार्यक्रम नहीं माना गया था।

हमारे पूर्वजों ने कूप से जल निकालने हेतु यांत्रिक विधियों का सहारा लिया था। पश्चिम ईरान से भारत आने वाले लोग रहट लाये। सदियों से चली आ रही यह विधि आज भी प्रचलित है। मन्दसौर (मध्य प्रदेश) के एक गाँव में किसी कूप पर छठी शती ईस्वी के एक शिलालेख में से कई उद्धरण सदृशः उद्धृत है-

जब तक कि सागर अपने ज्वारभाटा की ऊँची लहरों से स्वकिरणों तथा समुद्रों के साथ मैत्री रखने के कारण और भी मोहक तथा सुन्दर लगने वाले चाँद को लिपटाती रहे उस समय तक यह विशाल कूप, जिसमें रहट जो कि मानव खोपड़ी के कंकाल की माला समान ही है, अमृत तुल्य जल की आपूर्ति देता रहेगा।

‘खोपड़ी की माला’ से तात्पर्य रहट में लगी बाल्टियों से है। 11वीं शती के ‘कृषिपाराशर’ नामक ग्रन्थ में जल संसाधनों से सिंचाई के साधनों के सभी विवरण मिलते हैं, प्राचीन भारत में कृषि पर यही एकमात्र साहित्य प्राप्त हुआ है। (गोपाल 1980)

सांगानेर (जिला जयपुर, राजस्थान) के कपड़ा उद्योग में 16वीं शती के सुल्तान (राजा आमेर) के राज्यकाल से ही रंगाई हेतु वानस्पतिक रंजकों का खुलकर उपयोग होता आ रहा है। कहा जाता है कि इन वानस्पतिक रंजकों को उस स्थान पर बहने वाली थूथ नदी के जल में घुले कुछ खनिजों द्वारा ही आभा प्राप्त होती है (आहूजा 1970)।

अपेयजल


किसी भी नदी के जलग्रहण क्षेत्र से प्राप्त जल एवं भूजल का स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोग बतलाते हुए सुश्रुत ने जल से उत्पन्न अनेक बीमारियों का विस्तार से वर्णन किया है। इस प्रकार उन्होंने कुछ स्थानों के जल का उपयोग वर्जित किया है। उदाहरणार्थ विन्ध्य क्षेत्र का जल पीलिया एवं कोढ़ कारक, मालवा पहाड़ियों (मलय पर्वत) का जल कीट एवं अंत्र कीटाणु कारक, पश्चिमी घाट की वर्षाजल चर्म द्वारा रोग संक्रमण कारक, महेन्द्र पर्वत (पश्चिमी घाट का उत्तरी भाग) का जल एलीफेंटाइसिस और जलोदर रोगों वाला, इत्यादि बतालाया गया है। हिमालय क्षेत्र का जल उनके अनुसार घेंघा, हृदयरोग तथा एन्जाइना पेक्टोरिस इत्यादि रोगों के जनकवाला बतलाया गया है। अवन्तिका नगरी (आज के उज्जैन) के पूर्व में बहने वाला जल बवासीर का कारण कहा गया।

भूजल की अवस्थिति


हमारे पूर्वज सतह के जल के साथ-साथ भूजल की भी खोज में पीछे न रहे। संस्कृत ग्रन्थों जैसे अथर्ववेद, तैतरीय आरण्यक तथा वाराहमिहिर (छठी शती ईस्वी) की वृहत्संहिता में चीटी के ढूहे एवं भूजल स्तर में एक सीधा सम्बन्ध बतालया गया है। इन विवरणों का एक ठोस वैज्ञानिक आधार है और दिलचस्प बात यह है कि आस्ट्रेलिया, रूस, अफ्रीका में हुए अनेक आधुनिक अन्वेषणों की कसौटी पर भी खरे उतरे हैं। वाराहमिहिर ने सतह पर अनेक वनस्पतियों एवं सब्जियों को भूजल को इंगित करने वाला यहाँ तक कि उसकी उपस्थिति की गहराई तक का विवरण दिया है और-तो-और जल दोहन हेतु वेधन की रीतियों का भी वर्णन वाराहमिहिर ने किया है तथा वेधन की बर्मी को धारदार बनाने की विधियों का भी वर्णन है। उनके बहुत पहले से ही हड़प्पा एवं महाभारत काल में भी अन्य रीतियों द्वारा भूजल प्राप्त करने के प्रमाण मिलते हैं। भीष्म की शर शैय्या के पास अर्जुन द्वारा बाण बेधन से जल की धारा फूट निकलने का कथ्य सर्वविदित है।

अन्ततः पृथ्वी सम्बन्धित अनेक पहलुओं पर हमारे बहुत से प्राचीन ग्रन्थ बहुमूल्य सूचनाओं के भण्डार हैं। उनमें से कुछ थोड़े बहुत तथ्य निकालकर यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं।

साभार: विज्ञान पत्रिका
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