जल-भण्डारण, संरक्षण तथा प्रबन्धन (Water Conservation, Management)


जल, सृष्टि के पंच तत्वों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि पृथ्वी पर जीवन का प्रार्दुभाव जल के द्वारा ही हुआ है। सभी जैविक क्रियाओं के लिए जल आवश्यक है। अतः जीवन के लिये जल एक आवश्यक घटक है। इसीलिए जल और जीवन का अटूट सम्बन्ध है। जल मानवीय मूलभूत आवश्यकता है। दैनिक जीवन में जल का विशेष महत्व है। जल की उपयोगिता असीमित है। जल, प्रकृति का अनूठा वरदान है। विश्व में पृथ्वी चारों ओर जल से घिरी हुयी है। पृथ्वी पर अथाह, असीमित जल उपस्थित है। विश्व में जल ही ऐसा पदार्थ है जो तीनों अवस्थाओं (ठोस, द्रव-जल, गैस-भाप) में पाया जाता है। यह एक विलक्षण घटना है। पृथ्वी पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल अद्भुत वरदान है। जल विभिन्न स्थानों पर भिन्न मात्रा में पाया जाता है। महासागरों में 96.5ः तथा महाद्वीपों पर 3.5% जल पाया जाता है। महाद्वीपों पर भूमिगत जल 0.97%, हिमखण्डों व शिखरों पर 1.74%, धरातलीय जल 0.78%,वायुमण्डलीय जल 0.003%, मिट्टी में नमी 0.002% दलदल 0001%, जैविक जल 0.001% पाया जाता है। जल का उपयोग गृहकार्य, औद्योगिक, तापविद्युत उत्पादन, जल विद्युत उत्पादन, सिंचाई, पशुपालन आदि में किया जाता है। पीने योग्य शुद्ध जल हिमखण्डों, हिमशिखरों, धरातल जल,भूमिगत जल से प्राप्त किया जाता है। जल हमारे जीवन में बहुत ही उपयोगी है। जल के बिना जीवन असम्भव है। जल के अत्यधिक दोहन से, अनुचित भण्डारण, संरक्षण एवं प्रबन्धन की कमी के कारण जल संकट उत्पन्न हो रहा है। इस कुप्रबन्धन, जनसंख्या विस्फोट तथा अत्यधिक अनसुयोजित औद्योगीकरण के कारण भी जल संकट को बढ़ावा मिल रहा है।

भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि भूमिगत व धरातल जल तथा वर्षा जल पर निर्भर है। पर्यावरण के प्रदूषित होने से मौसम में परिवर्तन हो रहा है। इस कारण वर्षा की मात्रा कम और असमय हो रही है। इससे समस्या और जटिल होती जा रही है। इसलिए उचित भण्डारण, संरक्षण, प्रबन्धन की आवश्यकता है। जिन तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए, उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। विकास और धन को अधिक महत्व देने से समस्या और गम्भीर हो गई है। केवल धन अर्जित करने पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है। कुछ जगह तो सतही तथा भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया है। इससे जल समस्या और गहरा गई है। जल भण्डारण, संरक्षण, प्रबन्धन के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। सामूहिक भागेदारी आवश्यक है। तभी जल बच पायेगा। जीवन समृद्ध बन पायेगा। अन्यथा जीवन समाप्त हो जायेगा। प्राकृतिक सम्पदा जल की मात्रा सीमित है। जल की मांग के अनुरूप पूर्ति करने के लिए हैन्ड पम्प, टयूबवेल, सबमर्सेबिल पम्प का उपयोग किया जा रहा है। इनकी संख्या में भी अपार वृद्धि की गई है। भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन और दुरूपयोग से जल की कमी हो रही है। इस कारण नलकूपों की असफलता दृष्टिगोचर हो रही है। भूमिगत जल की गुणवत्ता भी प्रभावित होरही है। भूमिगत जल भी प्रदूषण से ग्रसित है। पर्यावरण अंसतुलन भी समस्या को बढ़ा रहा है।

प्रदूषण भी जल संकट को बढ़ावा दे रहा है। नदियों के जल में औद्योगिक कचरा, शहरों का मल-मूत्र जल और कचरा मिलाया जा रहा है। नदियों के उपरान्त जल स्रोतों में तालाबों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। तालाब जल को संग्रहित करते हैं। पूर्वज जल संरक्षण तथा प्रबन्धन के प्रति सजग थे। परन्तु शहरीकरण और विकास की आंधी में तालाब, बावड़ी, कुएं अन्र्तध्यान हो गये। जिससे जल संकट बढ़ता जा रहा है। विकास का लाभ तभी मिलेगा। जब जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होगा। इसके लिये जल भण्डारण, संरक्षण, प्रबन्धन उचित दिशा में आवश्यक है। पुरातन लोग आज की तुलना में कहीं अधिक समझदार थे। वे भविष्य तथा सबका ध्यान रखते थे। परन्तु आजकल के लोग पैसे को अधिक महत्व देते हैं। विकास के नाम पर गल्तियों को छिपा देते हैं। भविष्य व सबकी नहीं सोचते। केवल अपनी सोचते हैं। जल भण्डारण, संरक्षण, प्रबन्धन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। केवल विकास के नाम पर कंकरीट-सीमेन्ट के जंगल उगाये जा रहे हैं। वाहनों की संख्या बढ़ गई है। अत्यधिक अनियोजित औद्योगिक क्रान्ति ने भी जल संकट बढ़ाया है। जल भण्डारण न होने पर भविष्य में जल नहीं होगा तब जीवन नहीं होगा। भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है। इसके कई कारण हैं। प्रथम, सफाईव्यवस्था समुचित नहीं है। दूसरे, कृषि में उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरक(खाद), कीटनाशक का उपयोग किया जाता है। उर्वरक और कीटनाशक पृथ्वी में रिसकर भूमिगत जल में मिल जाते हैं। इसके प्रमाण भूमिगत जल में पोटेशियम और नाइट्रेट अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। तीसरा, औद्योगिक कचरा है जो भूमि पर पड़ा रहता है। उपयोगी अवयव रिस कर भूमिगत जल में मिल जाते हैं। प्रदूषित जल भूमिगत जीवन के लिये संकट उत्पन्न करता है। मिट्टी की सतह अपने भौतिक और रासायनिक गुणों के अनुसार ही वर्षा जल को ग्रहण करती है। धीरे बहते या रूके हुए जल का एक बड़ा भाग धीरे-धीरे रिसकर भूमिगत जल में मिल जाता है। भूमि के गुणों के अनुसार 20ः वर्षा जल का प्राकृतिक रूप में भूमिगत जल पुर्नभरण करता है। सदियों से वर्षा जल का संचय होता रहा है। परन्तु आजकल जल भण्डारण, संरक्षण और प्रबन्धन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। केवल उपयोग और दोहन किया जा रहा है।

पुरातन काल में भूमि कच्ची हुआ करती थी। फलस्वरूप वर्षा जल रिस-रिस कर पृथ्वी के अन्दर संग्रहीत होता रहता है। आजकल जनसंख्या विस्फोट के कारण पृथ्वी का कंक्रीटकरण हो गया है। शहर तो शहर गाँव में भी आधुनिक सुविधाएं पहुँच गई है। अधिकतर भूमि की सतह पक्की होने के कारण वर्षाजल रिसकर अन्दर नहीं जा पाता। भूमिगत जल का रिचार्ज होना लगभग असम्भव हो रहा है। जो एक गम्भीर चिन्ता का विषय है। जल भण्डारण, संरक्षण और प्रबन्धन के लिये सरकारी तंत्र पर आश्रित न होकर सामूहिक साझेदारी का योगदान होना चाहिए। सदियों से चली आ रही वर्षा जल का भण्डारण व संरक्षण की परम्परा समाप्त हो गई है। जल भण्डारण में तालाब, बावड़ी, स्टेप वेल, घिरी लेक, टैंक का उपयोग किया जाता है। ये सब जल संगह निकाय है। इनका घरेलू और सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करने में उपयोग होता है। प्राचीन काल में मानव समाज जल स्रोतों के रखरखाव का ध्यान स्वयं करते थे। सरकारी तंत्र पर निर्भर नहीं करते थे। कालान्तर में ऐसा नहीं रहा। मानव के गैर उत्तरदायी व स्वार्थी व्यवहार ने जल स्रोतों को समाप्त कर दिया है। जल संकट गहराता जा रहा है। मानव का अस्तित्व ही खतरे में हो गया है। जनसंख्या विस्फोट, उद्योगीकरण, शहरीकरण, वाहनों की अधिक संख्या भी जल स्रोतों को समाप्त कर रही है। जल स्रोतों के अभाव में जल संकट का उत्पन्न होना और गहरा होना स्वाभाविक है। समस्या अति गम्भीर है। इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।

जल संकट के भयावह रूप से बचने के लिये आवश्यक है कि पुरानी परम्परागत प्रणाली को पुनः जीवित किया जाये। साथ ही जल प्रबन्धन प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। इसके लिये सबका सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। पोखरों, तालाबों, कुओं, सूखी नदियों को पुनः जीवित करने की आवश्यकता है। नये तालाब बनाए जाय। पुराने तालाबों की मरम्मत करानी चाहिए। तली की सफाई भी करनी चाहिए। शहर के नाले साफ कर चेकडैम बनाए जाय। इससे पानी को पृथ्वी में रिसने का समय मिल जायेगा। वर्षा जल को संग्रहित करने के लिए भूमिगत टैंक बनाया जाय। इस वर्षा जल को सूखे टयूब वेल या नये बोरवेल में डाला जाये। इससे भूमिगत जल का स्तर बढ़ेगा। टैंकों में एकत्रित जल को बागों में, पार्कों में सिंचाई के रूप में प्रयोग में ला सकते हैं। इसके अतिरिक्त कपड़े धोने, सफाई के काम में ला सकते है। रेगिस्तान में बड़े कुंडों को बना कर जल संचय करते हैं।राजस्थान में बावड़ी भी जल का संग्रह केन्द्र है। आधुनिक दौर के विकास में औद्योगीकरण, शहरीकरण के कारण पृथ्वी का अधिंकाश भाग कंक्रीट का हो गया है। इससे वर्षा जल स्वतः रिस कर पृथ्वी के अन्दर नहीं जा पाता। साथ ही जल का दोहन बढ़ गया है। रिचार्ज न होने की स्थिति में भूमिगत जल का स्तर कम हो रहा है। भूमिगत जल स्तर बढ़ाने की आवश्यकता है।

वर्षा जल को संचय कर घरेलू आवश्यकताओं और सिंचाई के काम में ला सकते हैं। यह प्रक्रिया रेन वाटर हार्वेस्टिंग (वर्षा जल भण्डारण) कहलाती है। वर्षा जल का भण्डारण दो प्रकार से होता है। (1) सरफेस रन आॅफ हार्वेटिस्टंग-इस विधि में पृथ्वी की सतह पर वर्षा जल को संग्रहीत किया जाता है। जो धीरे-धीरे रिसकर भूमिगत जल में रहता है इसके लिये भूमि पर गड्ढे बनाये जाते है, जिनमें वर्षा जल भरता रहता है बड़े रूप में तालाब बनाये जाते हैं जो वर्षा जल का संचय करते है। (2) रूफ वाटर हार्वेस्टिंग-इस प्रणाली में पहले छत को साफ कर लेते हैं फिर छत के पानी को पाइपों के द्वारा पृथ्वी में बने टैंकों में एकत्रित करते हैं। पाइप के प्रवेश द्वार पर पतली तार की जाली लगा देते हैं। टैंक से इस जल को फिल्टर के माध्यम से गुजारते है। इससाफ जल को फिर एकत्रित कर बगीचों में सिंचाई, कपड़े, फर्श धोने के काम लाते हैं। कुछ जल को खोदे गये गड्ढे में मिलाते हैं। जिसमें बालू, कोयला की पर्त होती है। इस प्रकार शुद्ध जल भूमिगत जल में मिल जाता है और भूमिगत जल का स्तर बढ़ जाता है।

पोखरों, तालाबों, बावड़ियों की संख्या को बढ़ाना होगा। इनके रख रखाव पर ध्यान देना होगा। तब जल का भण्डारण होगा। साथ ही संरक्षण भी होगा। उनके उपयोग पर उचित प्रतिबन्ध होना चाहिए। इसके प्रबन्धन सही रूप में कार्य कर सके। जल की कमी नहीं होगी। अकाल नहीं पड़ेगा। मानव जीवन सुचारू रूप से चलता रहेगा। जल संकट की भीषण भयावहता से बचने के लिए तालाबों का निर्माण करायें, पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार करें। इन तालाबों की उचित देखभाल भी आवश्यक है। यह सबके सहयोग से ही हो पायेगा। तभी जल भण्डारण, संरक्षण और प्रबन्धन का उचित योगदान होगा। जल संग्रहण, जल संरक्षण के प्रमुख स्रोत, वन हैं। वन, जल और मृदा को संरक्षित करते हैं। वनों के विकास पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

नोटः- प्रस्तुत लेख, लेखक के अपने व्यक्तिगत विषय ज्ञान एवं अनुभव पर आधारित है तथा किसी भी अतिरिक्त अध्ययन सामग्री का प्रयोग नहीं किया गया है।

ए. के. चतुर्वेदी
26, कावेरी एन्क्लेव, फेज-2, निकट स्वर्ण जयन्ती नगर, रामघाट रोड, अलीगढ़ (उ.प्र.)-202001, भारत

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