जल - एक संसाधन

उपलब्ध जल के अपरोधन, या संचयन के लिए निर्मित गड्ढों के जल से भर जाने एवं भू-सतह पर वर्षा की तीव्रता, मृदा की अंतःस्यंदन क्षमता से अधिक होने पर पृथ्वी की सतह पर जल प्रवाह होने लगता है। यह सतही प्रवाह के रूप में अपना रास्ता नदियों, झीलों या समुद्र की ओर करता है जो सतही अपवाह के रूप में जाना जाता है। फिर यह अन्य प्रवाह घटकों के साथ मिलकर संपूर्ण अपवाह बनाता है। अपवाह शब्द का उपयोग साधारणतया जब अकेले होता है तो इसे सतही अपवाह ही कहा जाता है।

कल्पना करें एक ऐसी बाल्टी की जिसके पेंदे में एक छेद हो। इस बाल्टी में रखा है पृथ्वी का संपूर्ण जलः सतही जल, भू-जल और वायुमंडल की आर्द्रता। यदि इसे ज्यों का त्यों छोड़ देंगे तो बाल्टी जल्दी ही खाली हो जाएगी। इस बाल्टी में जलस्तर बनाए रखने हेतु आवश्यक है कि जितनी मात्रा में इसका जल रिस रहा है, उतनी ही मात्रा में वह वापस आए। अनेक प्रक्रियाएं साथ-साथ चलते रहकर पृथ्वी के जल चक्र को गतिशील बनाए रखती हैं। यह सतत चक्र जलीय चक्र कहलाता है।

जलीय चक्र


जलीय शास्त्र पृथ्वी के विज्ञान का वह अंग है जो संपूर्ण पृथ्वी के ऊपर और नीचे व्याप्त जल एवं उसके प्रवाह के बारे में जानकारी देता है। संपूर्ण वर्षा पृथ्वी के जलीय चक्र का परिणाम होती है।

जल संसाधन सुविधापूर्वक दो वर्गों में विभक्त किए जा सकते हैं : (i) सतही जल (ii) भू-जल संसाधन। वायुमंडल में जल वाष्प के रूप में और पृथ्वी की सतह पर हिम, बर्फ अथवा प्राकृतिक गड्ढों, तालाब, सरिताओं, नदियों, झीलों और समुद्र में जल के रूप में व्याप्त होता है। पृथ्वी की सतह के नीचे यह मृदाजल और भूजल के रूप में मिलता है। वर्षा, हिम, या ओले - जो पृथ्वी की सतह पर गिरते हैं, वही वास्तव में दोनों प्रकार के जल संसाधनों के स्रोत हैं, पृथ्वी के निरंतर परिभ्रमण संबंधी पद्धति का जलीय चक्र एक हिस्सा है।

जलीय चक्र के घटक


जलीय चक्र के प्रमुख घटक हैं : वर्षण, अंतःस्यंदन, अपवाह, वाष्पीकरण और - वाष्पोत्सर्जन। वर्षण के सिवाय अन्य सभी समकालिक एवं निरंतर घटित होते हैं।

वर्षण


इसमें वायुमंडलीय जल वाष्प के सभी प्रकार के जल शामिल हैं जो भू-सतह द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। वायुमंडलीय जल-वाष्प के जमने के कारण ही वर्षण, वर्षा, ओले, हिम और कोहरे के रूप में होती है। वर्षा, वर्षण का सबसे सामान्य प्रक्रम है और जो कृषि को सर्वाधिक प्रभावित करती है। वर्षण का एक बड़ा हिस्सा वानस्पतिक आच्छादन द्वारा अपरोधित होता है या अस्थाई रूप से रोका जाता है या भूमि पर और सतही गड्ढों में जमा होता है।

अंतः स्यंदन


भू-सतह पर होने वाले वर्षण का एक भाग मृदा की ऊपरी परत में प्रवेश करता है और फिर अंतः स्यंदन द्वारा निचली सतहों तक उतरता जाता है। यह जलीय चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अंतःस्यंदन द्वारा मृदा सतहों में उतरने वाली जल की मात्रा, मृदा गठन, मृदा संरचना, हरियाली, भूमि के ढाल, चट्टानों के प्रकार एवं वर्षण के पूर्व मृदा में उपस्थित नमी पर निर्भर करती है।

अपवाह


उपलब्ध जल के अपरोधन, या संचयन के लिए निर्मित गड्ढों के जल से भर जाने एवं भू-सतह पर वर्षा की तीव्रता, मृदा की अंतःस्यंदन क्षमता से अधिक होने पर पृथ्वी की सतह पर जल प्रवाह होने लगता है। यह सतही प्रवाह के रूप में अपना रास्ता नदियों, झीलों या समुद्र की ओर करता है जो सतही अपवाह के रूप में जाना जाता है। फिर यह अन्य प्रवाह घटकों के साथ मिलकर संपूर्ण अपवाह बनाता है। अपवाह शब्द का उपयोग साधारणतया जब अकेले होता है तो इसे सतही अपवाह ही कहा जाता है। जल का कुछ भाग जो सतही मृदा में उतरता है, उसका कुछ गहराई तक आंतरिक प्रवाह के रूप में संचयन होता है और अंत में नदियों के नालों तक पहुंच जाता है तो उसे अवभूमि अपवाह कहते हैं। अवभूमि अपवाह का एक भाग नदियों के प्रवाह में तत्काल मिल सकता है, जबकि शेष भाग को नदी में प्रवेश के पूर्व काफी समय लग सकता है।

भूमि में उतरने वाले वर्षण का एक भाग जल स्तर के ऊपर ही असंतृप्त बहाव क्षेत्र में रह सकता है। शेष भाग अंतःस्रवण द्वारा बहुत गहराई में भू-जल तक चला जाता है। अंततः इस भू-जल का कुछ भाग नदियों के नालों में पहुंच जाता है और नदियों का अधोभूमि प्रवाह बन जाता है। यह भाग भू-जल अपवाह अथवा भू-जल प्रवाह कहलाता है। इसमें वर्षा का तथा सिंचित क्षेत्रों से भूमि में अवशोषित जल सम्मिलित है।

वाष्पन


वायुमंडल में जल को द्रव्य रूप में वाष्प में परिवर्तित करने की प्रक्रिया को वाष्पन कहते हैं। यह जलीय सतहों के साथ-साथ भू-सतहों से भी होता है, परिणामस्वरूप वर्षण का कुछ भाग नष्ट हो जाता है। वर्षण का वह भाग जो घने जंगल और अन्य पदार्थ द्वारा अपरोधित रहता है तथा भू-सतह तक नहीं पहुंच पाता, वह भी वाष्पीकृत हो जाता है।

वाष्पोत्सर्जन


वर्षण का एक दूसरा भाग जो भूमि में अवशोषित होता है, पौधों की वृद्धि के समय पौधों की जड़ों द्वारा एवं भू-सतह के एकदम नीचे उष्मीय प्रवणता के कारण वाष्पोत्सर्जन में उसका ह्रास हो जाता है। पौधे जड़ों के द्वारा जो जल ग्रहण करते हैं, उसे पत्तियों द्वारा वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया से बाहर निकालते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो प्रदूषण और अन्य गंदगी को हटाकर जल को स्वच्छ कर सकता है।

जलीय चक्र में जल की मात्रा न घटती है और न बढ़ती ही है लेकिन मुख्यतया वर्षण की अनियमितता के कारण पृथ्वी पर जीवन को चलाए रखने के लिए उपलब्ध जल की मात्रा घट या बढ़ जाती है। इसी अनियमितता के कारण ही सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है जो कृषि की एक बड़ी बाधा है, विशेषतया उन क्षेत्रों में जो खेती के लिए वर्षा पर ही आधारित है।

जल ग्रहण क्षेत्र क्या है?


जल ग्रहण क्षेत्र वह क्षेत्र है जिससे कुल वर्षण जैसे वर्षा जल एक ही धारा का हिस्सा बन जाता हो। आवाह (कैचमेंट क्षेत्र) एवं अपवाह थाल इसके समतुल्य शब्द हैं। सरल शब्दों में कहें तो जल ग्रहण क्षेत्र “वह इकाई है जिसमें सारी भूमि एवं जल क्षेत्र शामिल हैं, जो एक सामान्य बिंदु अथवा एक नियत निर्गम स्थल पर अपवाह की निकासी करता है।” यदि इसे एक क्षेत्र के रूप में देखा जाए तो इसका अपवाह एक निर्गम स्थल-नाले अथवा नदी का जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। जल ग्रहण क्षेत्र की सीमाएं जल निकास विभाजक (ड्रेनेज डिवाइड) के रूप में जानी जाती हैं। जल निकास विभाजक के विपरीत छोर पर होने वाली वर्षा भिन्न जल ग्रहण क्षेत्र में गिरती है। स्वभावतः कई जल धाराएं आपस में मिलती हुई सहायक नदी के रूप में बहती है। ठीक इसी प्रकार छोटे नाले पर जल निकास के कई छोटे जल ग्रहण क्षेत्र (माइक्रो या मिनी वाटर शेड) के समूह जो कुछ हेक्टेयर के हो सकते हैं, वहीं बड़े नाले अथवा नदी पर जल निकास करने वाले बड़े जल ग्रहण क्षेत्र के समूह, सैंकड़ों, हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के हो सकते हैं।

अखिल भारतीय मृदा एवं भू-उपयोग सर्वेक्षण ने जल ग्रहण क्षेत्रों का राष्ट्रीय स्तर पर रूपरेखा बनाने एवं उनके वर्गीकरण का प्रयास किया है। यह पांच सोपानों के समूह में वर्गीकृत किया है, जो (i) क्षेत्र (ii) नदी-थाल (iii) आवाह-क्षेत्र (iv) उप-आवाह क्षेत्र (v) जल ग्रहण क्षेत्र हैं। इनकी रूपरेखा दोनों, बड़े स्तर एवं छोटे स्तर पर बनाई गई है (कोष्ठक देखें)।

विकास कार्यों हेतु जल ग्रहण क्षेत्र का उपयुक्त आकार लगभग 500-1000 हेक्टेयर होना चाहिए।

जल विज्ञान संबंधित इकाई का वर्गीकरण


श्रेणी

आकार (लाख हेक्टेयर)

क्षेत्र (रिजन)

300 से ऊपर

नदी-थाला (बेसिन)

30-300

आवाह-क्षेत्र (कैचमेंट)

10-30

उप-आवाह क्षेत्र (सब-कैचमेंट)

2-10

जल ग्रहण क्षेत्र (वाटरशेड)

0.5-2

उप जलागम क्षेत्र (सब-वाटरशेड)

0.1-0.5

सम जलागम (मिली-वाटरशेड)

0.01-0.1

लघु जलागम (माइक्रो-वाटरशेड)

0.001-0.01

अतिलघु जलागम (मिनी-वाटरशेड)

0.0001-0.001

 



जल ग्रहण क्षेत्र में जमा होने वाले पानी का कुछ भाग ही अंततः नाले अथवा नदी में जाता है, जो कि अपवाह कहलाता है। विभिन्न जल ग्रहण क्षेत्रों में उसकी मात्रा भिन्न होती है। प्रत्येक जल ग्रहण क्षेत्र की अपनी कुछ विशिष्ट और स्पष्ट विशेषताएं होती है, जो उसकी संभावनाओं और कठिनाइयों को परिभाषित करती हैं। जल ग्रहण क्षेत्र का आकार, प्रकार, ढाल, जल निकास, भू-गर्भीय तत्व, मृदा जलवायु, सतही दशाएं, भूमि उपयोग, भू-जल एवं सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति इसके अपवाह, तलछट का जमाव, जल संरक्षण के अपनाए जाने योग्य तरीके, उपयुक्त भूमि उपयोग और अन्य विकास (और जल संसाधनों के विकास की संभावना) कार्यक्रमों का निर्धारण करते हैं। मनुष्य एवं पशु भी जल ग्रहण क्षेत्र के अभिन्न अंग हैं। ये सभी जल ग्रहण क्षेत्र पर निर्भर हैं और ये इसके बदले में होने वाली गतिविधियों को जो अच्छी या खराब हो सकती है, प्रभावित करते हैं। छोटे जल ग्रहण क्षेत्र में होने वाली गतिविधियाँ अंततः बड़े जल ग्रहण क्षेत्रों पर भी अपना प्रभाव डालती हैं।

सतह अपवाह पद्धतियां


अपवाह


अपवाह वर्षण की वह मात्रा है जो सतह अथवा थोड़ी निचली सतह या दोनों के द्वारा बहकर नालों, नदी, झील और समुद्र में जाती है। नाले, नदी, निकास-नालियों में जाने वाले अपवाह में बर्फ का पिघला जल, सतह अपवाह, अवभूमि अपवाह, भू-जल अपवाह और नालों, नदियों एवं जल संग्रहण संरचनाओं की जलीय सतहों पर सीधे गिरने वाली वर्षा इन सबका मिला-जुला रूप सतह जल संसाधनों को बनाते हैं। जैसा कि पृथ्वी के जलीय चक्र से स्पष्ट है, अपवाह के रूप में वर्षण की केवल वह मात्रा बहती है जो वाष्पन, अपरोधन, अंतःस्यंदन, पृथ्वी पर संचयन, तथा नाली अवरोधन के बाद शेष रह जाता है। अंतःस्यंदन में होने वाला जल ह्रास अपवाह को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है तथा जलीय चक्र की यह दूसरी सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण इकाई है।

सतही अपवाह/पृष्ठीय बहाव


सतही अपवाह जल का वह भाग है जो भूमि की ऊपरी सतह (मृदा पृष्ठ) पर बहता हुआ क्रम की जल निकास नालियों तक जाता है। ये सामूहिक रूप से जलागम या कैचमेंट या ड्रेनेज बेसिन के संपूर्ण क्षेत्र से जल निकास करती है। सतही अपवाह में वर्षा का वह भाग भी शामिल होता है जो सीधे नालों/नदियों के बहते जल पर होती है, जबकि भू-सतही बहाव में यह भाग नहीं होता है। सतही अपवाह अथवा भू-सतही बहाव तभी होता है; जब वर्षण की तीव्रता मृदा की अंतःस्यंदन दर से अधिक होती है। अंतःस्यंदन की प्रक्रिया हो जाने के पश्चात पृष्ठीय जल निचले स्थानों और गड्ढों में एकत्रित होता है और इन निचले स्थानों के भर जाने के बाद जल बहकर खेत अथवा अन्य प्रकार की भूमि से बाहर जाता है। यह माना है कि अधिकतम निस्सरण में जो एक अच्छी वर्षा से होता है; उसमें सतही अपवाह का बड़ा हिस्सा होता है।

पृष्ठ प्रवाह


यह आवश्यक नहीं कि संपूर्ण जल ग्रहण क्षेत्र से सतही अपवाह अथवा भू-सतही बहाव (चादर)रूप में पृष्ठ प्रवाह प्रायः अभेद्य सतहों जैसे पक्के फर्शों अथवा सामुदायिक स्थानों से होता है। कभी-कभी यह प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्रों में भी हो सकता है, यदि वर्षा की तीव्रता अंतःस्यंदन क्षमता के समरूप बढ़ती हो किंतु यह स्थिति प्रायः व्याप्त नहीं होती है। जल ग्रहण क्षेत्रों में ज़मीन की भिन्नता के कारण प्रायः प्रवाह कम होता है।

आंतरिक प्रवाह


आंतरिक प्रवाह अवभूमि प्रवाह वर्षण का वह अंश है जो निचली सतह में अंतःस्यंदन के बाद सतह के नीचे पिछले सिरे में नाले की ओर चलने लगता है। आंतरिक प्रवाह वन भूमि से भी हो सकता है, जहां भू-सतह पर जंगली कूड़ा-करकट (गले हुए सूखे पत्ते एवं पतली सूखी टहनियां) बहुत बड़े स्पंज के रूप में बिछा रहता है। जैसे ही वर्षा आरंभ होती है, इन सतही पदार्थों में अन्तःस्यंदन द्वारा जल शोषित होता है और इस कूड़े-करकट से उतरकर पार्श्व भाग की सतह पर बहने लगता है। इसी प्रकार ठंडे प्रदेशों में भी बर्फ के पिघलने पर वह जल भी इस सतही कूड़े-करकट से होता हुआ सतह पर बहने लगता है। आंतरिक बहाव उथली मिट्टी भराव वाली मिट्टी पेड़ों की जड़ों से ढीली हुई मिट्टी चट्टानों या खानों के मलबे अथवा अन्य कारणों से भी हो सकता है।

आंतरिक बहाव के समय जल की चाल को सतही अपवाह की अपेक्षा अधिक बहाव वाली अवरोध का सामना करना पड़ता है एवं इसी कारण आंतरिक बहाव सतही बहाव की तरह तेजी से नहीं होता। इसीलिए निकास नाली, नदी और जल ग्रहण क्षेत्र के निकास स्थल तक पहुंचने में समय लगता है और तब तक सतही अपवाह बह चुका होता है। इन अवस्थाओं में आंतरिक बहाव अधिकतम बहाव में योगदान नहीं होता, बल्कि निकास स्थल पर अधिकतम अपवाह बहाव के बाद पहुँचता है। आंतरिक बहाव सतह पर जल के आवागमन के दौरान किसी भी स्तर पर हो सकता है।

सीधा प्रवाह


यह प्रायः सतही अपवाह एवं आंतरिक बहाव का जोड़ होता है। अधिकतर सीधे बहाव को सतही बहाव के बराबर मानते हैं।

अधोभूमि प्रवह


अधोभूमि बहाव उस बहाव का हिस्सा है जो भूजल से नदी नालों को मिलता है। सतही जल के जल तल तक अंतःस्यंदन के कारण भू-जल की प्राप्ति होती है और तब पार्श्व भाग में नाले तक जलदायी स्तर के द्वारा जाता है। सीधे बहाव की अपेक्षा अधोभूमि बहाव में जल बहुत धीमी गति से बहता है और इसी कारण किसी निश्चित वर्षा से होने वाले अधिकतम अपवाह में उसका योगदान नहीं होता। वर्ष भर बहने वाली नदियों में वर्षा के पूर्व जो जल बहता है। वह अधोभूमि प्रवाह के द्वारा होता है। वर्षा होने के समय अधोभूमि प्रभाव में अंतःस्यंदन द्वारा बढ़ोतरी होती है और इसीलिए अधोभूमि बहाव को सीधे बहाव से अलग करते हैं।

जल का आधारभूत स्रोत वर्षा और हिमपात है। वर्षण से होने वाला अपवाह नाले और नदियों द्वारा बहता है या निचली सतहों, गड्ढों और जल संग्रहण स्रोतों में एकत्रित होता है। अपवाह जल का कुछ हिस्सा जलाशयों में अथवा अन्य जल संग्रहण स्रोतों में संचित रहता है, जबकि सीधे वर्षण का कुछ भाग भू-जल पुनःपूरण करता है। नालों अथवा नदियों में पहुंचने वाले अपवाह में बर्फ के पिघलने से प्राप्त जल, सतही अपवाह, अवभूमि अपवाह, भू-जल अपवाह और नालों का जल यानि जो वर्षा सीधे नालों, टैंक, तालाबों और जलाशयों की जलीय सतह पर गिरती है, का समावेश होता है।अधोभूमि बहाव की मात्रा और सीधे बहाव का हिस्सा मृदा के विशिष्ट गुणों पर निर्भर करता है। अधिक नरम और सीधे बहाव का अंश अपेक्षाकृत कम होता है। जल ग्रहण क्षेत्रों में अंतः स्यंदन क्षमता कम होती है क्योंकि वहां मिट्टी सख्त होती है इसलिए अधोभूमि प्रवाह में उसका अंश कम या नगण्य होता है जबकि सीधे बहाव का भाग अधिक। नदियों में अधिकांश अधोभूमि बहाव जो वर्षाकाल के अलावा समय में स्थिर बहाव को बनाए रखता है, भूजल संसाधनों द्वारा प्राप्त होता है। वर्तमान में यह अंशदान जिसका अव्यवस्थित रूप में आंकलन करने पर वह देश के कुल सतही जल संसाधनों का 25 प्रतिशत होता है।

अपवाह को प्रभावित करने वाले कारक


जल ग्रहण क्षेत्र के अपवाह की दर और उसकी मात्रा जलवायवीय, प्राकृतिक अवस्थाओं और भू-गर्भीय कारकों द्वारा प्रभावित होती है।

जलवायवीय कारक


(i) विभिन्न प्रकार के वर्षण (जैसे वर्षा और हिमपात) और उनकी तीव्रता, समयावधि, समय, हवा में विलयन होने की आवृत्ति, वर्षण होने की दिशा और पूर्वगामी वर्षण। (ii) अपरोधन घने जंगलों के प्रकार और वनस्पति के घनत्व पर निर्भर करता है। (iii) वाष्पन एवं वाष्पोत्सर्जन; जो तापक्रम, आर्द्रता, हवा की गति और सूर्य के प्रकाश पर निर्भर करते हैं।

प्राकृतिक और भौगोलिक कारक


(i) जल ग्रहण क्षेत्र की विशिष्टताएं, आकार, ढाल, भूमि उपयोग, मृदा का प्रकार और उस स्थल की आकृति।
(ii) जल निकास मार्गों की विशिष्टताएं आकार; अनुप्रस्थकाट और भ-सतह की रुक्षता।

भू-गर्भीय कारक


(i) शिला विद्या-जिसमें बनावट, गठन, चट्टानों के प्रकार का क्रम और चट्टान रचना की मोटाई का विवरण होता है।
(ii) प्रमुख दोष एवं परतें जो चट्टान की एकरुपता में बाधक होती है, या चट्टानों के अलग-अलग स्तर, सतह, जोड़ और दरारें।
(iii) जलदायी स्तर की जलीय विशिष्टताएं - पारगम्यता, संरध्रता, जल की गमनीयता और संचयन योग्यता।

किसी भी प्रदेश में प्राकृतिक और भौगोलिक लक्षण (भू-गर्भीय कारकों सहित) और विशेष रूप से पर्वतीय भौगोलिक परिस्थितियां न केवल जल संसाधनों की प्राप्ति और उसके वितरण को प्रभावित करते हैं, बल्कि ये वर्षा और अन्य जलवायु संबंधी कारकों पर भी अपना असर डालते हैं। लेकिन एक निर्दिष्ट भौगोलिक दशा और भू-प्राकृतिक ढांचे में विशेष रूप से वर्षा (इसकी तीव्रता, समयावधि एवं वितरण) एवं जलवायवीय कारक जिनसे वाष्पनवाष्पोत्सर्जन प्रभावित होता है, जो किसी भी प्रदेश के कुल जल संसाधनों का निर्धारण करते हैं।

सतही जल संसाधन


जल का आधारभूत स्रोत वर्षा और हिमपात है। वर्षण से होने वाला अपवाह नाले और नदियों द्वारा बहता है या निचली सतहों, गड्ढों और जल संग्रहण स्रोतों में एकत्रित होता है। अपवाह जल का कुछ हिस्सा जलाशयों में अथवा अन्य जल संग्रहण स्रोतों में संचित रहता है, जबकि सीधे वर्षण का कुछ भाग भू-जल पुनःपूरण करता है। नालों अथवा नदियों में पहुंचने वाले अपवाह में बर्फ के पिघलने से प्राप्त जल, सतही अपवाह, अवभूमि अपवाह, भू-जल अपवाह और नालों का जल यानि जो वर्षा सीधे नालों, टैंक, तालाबों और जलाशयों की जलीय सतह पर गिरती है, का समावेश होता है। किसी भी क्षेत्र के सतही जल संसाधनों का निर्माण इसी से होता है।

वर्षण का वह भाग जो अंतःस्यंदन के पश्चात भू-जल तल तक पहुँचता है, साथ ही भू-जल में निकटवर्ती जलग्रहण क्षेत्रों, बहती नदियों, प्राकृतिक झीलों, तालाबों एवं अन्य जल संग्रहण स्रोतों, नहरों और सिंचाई के योगदान से भू-जल संसाधनों का निर्माण होता है।

देश के विभिन्न प्रदेशों में वर्षा का बहुत अधिक अंतर है। उत्तर-पूर्व के खासी पर्वतीय क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 100 सेंटीमीटर से भी अधिक है, वहीं, राजस्थान के मरु प्रदेश के कुछ भागों में औसत वार्षिक वर्षा 15 सेंटीमीटर से भी कम है। यही नहीं, कुल वर्षा की लगभग 75 प्रतिशत वर्षा केवल चार माह (जून से सितंबर के मध्य) में ही हो जाती है। वर्षा के इतने भारी अंतर के कारण कुछ क्षेत्र बराबर आवर्तक सूखे के कारण गंभीर रूप से प्रभावित रहते हैं, तो कुछ क्षेत्र बारंबार आने वाली बाढ़ से ग्रसित रहते हैं।

यथार्थता यही है कि भारत में लज संसाधन सीमित हैं। औसत वार्षिक वर्षा लगभग 120 सेंटीमीटर है। इस वर्षा को देश के संपूर्ण क्षेत्र (328 मिलियन हेक्टेयर) पर फैला दिया जाए तो इस जल की कुल मात्रा 392 मिलियन हेक्टेयर मीटर (मि.हे.मी.) होती है और यदि हिमपात को भी सम्मिलित कर लिया जाए तो यह लगभग 400 मि.हे.मी. हो सकती है। इसका लगभग 70 मि.हे.मी. वाष्पन में ह्रास हो जाता है, 215 मि.हे.मी. भूमि में अंतःस्यंदन से शोषित हो जाता है और शेष 115 मि. हे.मी. जल सतही अपवाह के रूप में बह जाता है।

कुल 215 मि.हे.मि. जल जो वर्ष भर में भूमि में उतरता है, यह अनुमान किया जाता है कि उसका लगभग 165 मि.हे.मी. भूमि की ऊपरी सतहों में मृदा जल के रूप में उपलब्ध रहता है। दूसरी ओर नदियों में अधोभूमि प्रवाह का अधिकांश भाग, जो वर्षा काल के अतिरिक्त समय से स्थिर प्रवाह का प्रतिनिधित्व करता है, वह भू-जल संसाधनों से मिलता है, जो अव्यवस्थित रूप से आंकलन करने पर देश के कुल सतही जल संसाधनों का 25 प्रतिशत होता है।

भारत के सिंचाई आयोग (1972) ने देश में कुल वार्षिक सतही जल प्रवाह को 180 मि.हे.मी. माना है। इसमें लगभग 20 मि.हे.मी. वह भी शामिल है जो देश के बाहर के जल ग्रहण क्षेत्रों से नालों एवं नदियों में आता है। वर्षाकाल के अतिरिक्त महीनों में नदियों में बहने वाले जल का आकलन करने पर पाया गया कि लगभग 45 मि.हे.मी. भूजल द्वारा अभिवृद्धित बहाव होता है। शेष 115 मि.हे.मी. सीधे वर्षण से प्राप्त होता है, जिसमें लगभग 10 मि.हे.मी. हिमपात की भागीदारी है।

एक औसत वर्ष में कुल 180 मि.हे.मी. सतही जल उपलब्ध होता है, उसका लगभग 15 मि.हे.मी. विभिन्न प्रकार की जल संग्रहण स्रोतों में संचित होता है। वृहद एवं मध्यम जलाशयों से लगभग 20 प्रतिशत और टैंक, तालाब एवं नाड़ियों से 40 प्रतिशत जल का ह्रास वाष्पन में होता है।

वर्तमान में लगभग 15 मि.हे.मी. सतही जल का उपयोग सीधे जल उठाकर अथवा अन्य माध्यमों से किया जाता है। नदी के प्रवाह का शेष 150 मि.हे.मी. समुद्र में अथवा अन्य पड़ोसी देशों में चला जाता है। जल संसाधनों के विकास होने पर सीधे जल उठाकर अथवा अन्य तरीके को अपनाकर जल के उपयोग में 45 मि.हे.मी. तक वृद्धि संभव है। शेष 105 मि.हे.मी. जल बहकर समुद्र में और देश के बाहर जाना जारी रहेगा।

कुल वर्षण का लगभग 12.5 प्रतिशत भूजल तल तक उतर जाता है। अतः 215 मि.हे.मी. जो भूमि द्वारा सोख लिया जाता है, उसका 50 मि.हे.मी. भू-जल स्तर तक अंतःस्रवण द्वारा उतर जाता है और शेष मृदा सतह में मृदा नमी के रूप में शोषित रहता है। कुल वर्षण 400 मि.हे.मी. का 70 मि.हे.मी. वाष्पन में ह्रास होता है। कुल मृदा नमी जो लगभग 170 मि.हे.मी. होती है, औसतन प्रतिवर्ष उसकी पुनः पूर्ति हो जाती है, 110 मि.हे.मी. का फसलों, पेड़ों और अन्य वनस्पतियों द्वारा उपयोग कर लिया जाता है, जबकि शेष 60 मि.हे.मी, का वाष्पन हो जाता है।

भौगोलिक क्षेत्र (342 लाख हेक्टेयर) के अनुसार राजस्थान देश का सबसे बड़ा राज्य है। यह भूमि और सूर्य के प्रकाश से तो खूब सम्पन्न है, किंतु उपलब्ध जल संसाधनों के मामले में उतना भाग्यशाली नहीं है। राज्य में 25.6 मि.हे. कृषि योग्य भूमि है, जो देश की कुल कृषि भूमि का 13.89 प्रतिशत है। लगभग 5.2 मि.हे. सिंचित है, जिसमें 65 प्रतिशत उत्खनित अथवा खुले कूपों एवं नलकूपों से होता है।

राज्य में अनुमानित 1.93 मि.हे.मी. संभावित सतही जल अपनी 14 वर्षाधीन नदी बेसिन स्रोतों से प्राप्त होता है, वह देश के संभावित सतही जल का केवल 1.16 प्रतिशत के बराबर है।

राज्य में वर्षण ही एकमात्र वार्षिक नवीकरणीय जल आपूर्ति साधन है। राज्य में एक भी नदी ऐसी नहीं है जिसका उद्गम हिमपात होने वाले क्षेत्र से होता हो। अधिकांश नदियां मौसमी हैं, अतः इसमें बहने वाले जल की मात्रा पूर्णरुपेण वर्षा ऋतु में होने वाले वर्षण के परिणाम पर निर्भर करती है।

यद्यपि राज्य का औसत वर्षण 530 मि.मी. है, लेकिन प्रदेश के एक भाग से दूसरे भाग में स्थान संबंधी और समय संबंधी अंतर बहुत ही स्पष्ट है। राज्य के आधे पूर्वी हिस्से में अपेक्षाकृत काफी अधिक वर्षा होती है, जबकि आधे पश्चिमी क्षेत्र में सामान्य रूप से वार्षिक वर्षण औसतन कम होता है। अधिकांश वर्षा साधारणतया मानसून के चार माह जून से सितंबर के मध्य होती है, किंतु इस अवधि में भी वितरण असामान्य रहता है। प्रायः संपूर्ण राज्य में वर्षण की अत्यधिक मौसमी तथा स्थानीय अस्थिरता रहती है। आधे पश्चिमी क्षेत्र में यह अस्थिरता विशेष रूप से मिलती है। इसके अलावा राज्य के विभिन्न भागों में हर मानसून में एक ही समयावधि में सूखा और बाढ़ का आना एक बड़ा नाटकीय उदाहरण है।

पृथ्वी सतह की अधिकतर चट्टानों में अथवा शैल या मिट्टी में अंतरकणीय रिक्त स्थान होते हैं। भूगर्भीय रचिताओं की प्रकृति के आधार पर इन रिक्त स्थानों की विभिन्न प्रकार की बनावट तथा आकार होते हैं। जब यह रिक्त स्थान ठीक ठाक, बड़े एवं आपस में जुड़े होते हैं तो यह जल के प्रवाह के लिए नालियों के रूप में काम करते हैं। वर्षा जल का एक भाग अथवा सतही जल से रिसाव होने पर यह जल रिक्त स्थानों द्वारा सोख लिया जाता है। इसमें से कुछ भाग जड़ों के क्षेत्र में रुका रहता है जबकि अन्य भाग नाचे और अंतरमध्यीय क्षेत्र में रिसने लगता है।परोक्ष रूप में मौसमी एवं वर्षा की अस्थिरता के कारण जल संग्रहण संरचनाएं, जैसे बांध, टैंक, तालाब और नाड़ियां बनाकर वर्षा के जल के कुछ भाग को पूरे वर्ष की संचाई तथा पीने के जल की आपूर्ति हेतु संचित करने की विवशता है। वर्षा के जल का कुछ भाग अपवाह के रूप में नालों और नदियों के द्वारा बह जाता है और भूजल का पुनः पूरण करता है, जो कि पूरे वर्ष जल का एक मुख्य स्रोत है। इसके अतिरिक्त अंतरराज्यीय समझौतों के तहत अपने उपयोग हेतु कुछ जल अंतरराज्यीय नदी बेसिन से प्राप्त होता है। चंबल नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में सर्वाधिक अपवाह जल है और माही, बनास, लूनी के जल ग्रहण क्षेत्र इसके पीछे रहते हैं। वर्षण का एक बहुत बड़ा अंश अपवाह के रूप में बेकार जाता है, जिसे जलदायी स्तरों के पुनःपूरण हेतु भी रोका नहीं जा रहा है।

सतही जल स्रोतों की स्वल्पता के कारण राजस्थान भूजल संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर है। लेकिन पीने के जल, सिंचाई और उद्योगों के उपयोग में अत्यधिक दोहन और साथ-साथ ही अपर्याप्त पुनःपूरण के कारण यहां जलस्तर 1-1.5 मी. प्रतिवर्ष की बहुत ही भयानक दर से लगातार गिरता जा रहा है। यह एक गंभीर चेतावनी है। समाज की ज़रूरतों की प्रधानता के बीच वर्षा के जल का प्रबंधन शोचनीय बन जाता है, जिसमें जल संरक्षण, जल संग्रहण, जलदायी स्तरों का पुनःपूरण और उपलब्ध जल संसाधनों का प्रभावी उपयोग समाहित है।

भू-जल तंत्र : तकनीकी स्वरूप


जमीनी सतह के नीचे पाया जाने वाला जल अर्द्धसतही अथवा भूमिगत जल कहा जाता है। यद्यपि सभी प्रकार का भूमिगत जल भूजल नहीं होता। जब एक कुआं खोदा जाता है अथवा एक छिद्र बनाया जाता है तो उसके अंदर वास्तविक भूजल तक तभी पहुंचा जाता है जबकि अर्द्धसतही जल उस कुएं के अंदर प्रवाहित होने लगता है।

पृथ्वी सतह की अधिकतर चट्टानों में अथवा शैल या मिट्टी में अंतरकणीय रिक्त स्थान होते हैं। भूगर्भीय रचिताओं की प्रकृति के आधार पर इन रिक्त स्थानों की विभिन्न प्रकार की बनावट तथा आकार होते हैं। जब यह रिक्त स्थान ठीक ठाक, बड़े एवं आपस में जुड़े होते हैं तो यह जल के प्रवाह के लिए नालियों के रूप में काम करते हैं। वर्षा जल का एक भाग अथवा सतही जल से रिसाव होने पर यह जल रिक्त स्थानों द्वारा सोख लिया जाता है। इसमें से कुछ भाग जड़ों के क्षेत्र में रुका रहता है जबकि अन्य भाग नाचे और अंतरमध्यीय क्षेत्र में रिसने लगता है। इस क्षेत्र में कुछ भाग में जल तथा शेष में वायु विद्यमान रहती है। शेष जल का भाग और नीचे रिस कर संतृप्त क्षेत्र में मिल जाता है। यह क्षेत्र गहराई में ठोस और सघन चट्टानों के उस भाग तक विस्तृत होता है, जिसके आगे अंतरकणीय रिक्त स्थान उपलब्ध नहीं होते। संतृप्त क्षेत्र के सभी रिक्त स्थान जल से भरे होते हैं और यही भूजल कहलाता है। इस क्षेत्र की ऊपरी सतह भू-जल पटल अथवा जल पटल (वाटर टेबल) कहलाती है। लेकिन जल पटल को भूजल स्तर नहीं माना जाना चाहिए। जल स्तर का आशय कुएं के जल स्तर को ऊपरी सतह से नापी गई गहराई से होता है। जबकि जल पटल के उठाव का माप समुद्र की सतह के संदर्भ से किया जाता है। ऐसी भूगर्भीय रचिताएं जिनमें काफी अधिक संख्या में रिक्त स्थान होते हों तथा वे आपस में जुड़े एवं उनके माध्यम से भू-जल प्रभावित होता हो - अतिवेध्य रचिताएं कहलाती हैं। एक ठोस चट्टान जिसमें रिक्त स्थान न हो अथवा दूर-दूर हो, अनतिवेध्य रचिताएं कहलाती हैं। चिकनी मिट्टी शैल इत्यादि ऐसी रचिताएं हैं, जिनके अंतरकणीय रिक्त स्थान इतने छोटे होते हैं कि इनके द्वारा भूजल प्रवाह संभव नहीं होता। इसलिए यह अनतिवेध्य रचिताएं कहलाती हैं।

अतिवेध्य रचिताएं जब जल से संतृप्त होती हैं तो वे जल भर कहलाती है। यह एक जल भर रचिता दो उद्देश्यों की पूर्ति करती है- एक तो जल का संग्रह करती है तथा दूसरा जल प्रवाह के लिए पाइपों की तरह कार्य करती है। किसी जल भर रचिता में यदि जल कुछ ही भाग में भरा हो तथा जल पटल चढ़ने उतरने में स्वतंत्र हो तो वह असीमित जल भर कहलाती है। यदि जल भर रचिता के ऊपर अनतिवेध्य रचिता स्थित हो तो वह सीमित जल भर रचिता कहलाती है। सीमित जल भर पूर्णतया जल से भरे होते हैं तथा इनका जल पटल स्वतंत्र नहीं होता है। एक सीमित जल भर रचिता में, जल का दबाव उसके ऊपर स्थित अनतिवेध्य रचिता के कारण, वायुमंडल के दबाव से अधिक होता है। इसलिए जब ऊपरी अनतिवेध्य रचिता को तोड़ा जाता है तो जल स्तर बढ़कर जल भर रचिता के ऊपर तक पहुंच जाता है। कई बार भूगर्भीय संरचनाओं के कारण ऊपरी अनतिवेध्य रचिता तथा नीचे जल भर रचिता की स्थिति इस प्रकार बन जाती है कि जल पटल जमीनी सतह के बाहर निकल आता है तथा स्वतंत्र रूप से बिना किसी पंप अथवा मशीनी उपकरण की सहायता के ही भूजल सतह पर बहने लगता है।

भूजल प्रवाह


भूजल उच्च उत्थान (एलिवेशन) से निम्न उत्थान की ओर बहता है, अतः जल भर रचिताओं की प्रकृति एवं जमीनी सतही की भू-आकृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। प्राकृतिक अवस्था में भूजल प्रवाह की दर जमीनी सतह पर बहने वाले पानी से बहुत कम होती है। कई लोगों की भूजल प्रवाह के बारे में ऐसी धारणा होती है कि यह अधिक वेग से, चट्टानों की दरारों के बीच, नदी नालों की तरह प्रवाहित होता है, लेकिन प्रकृति में भूजल प्रवाह केवल कुछ मीटर प्रतिदिन होता है।

भूजल दोहन


भूजल का दोहन प्राचीन काल से चला आ रहा है हमारे देश में कई शताब्दियों पूर्व से ही कुएं द्वारा जल पीने के लिए तथा खेती के लिए उपयोग लेने का प्रचलन है (चित्र 1.4)। मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों में व्यक्तिगत एवं जन स्नानागारों तक सिरेमिक पाइप लाइनों एवं ईटों द्वारा निर्मित नालियों-गलियों में मिली हैं। आधुनिक तरीकों से भूजल दोहन की प्रक्रिया 20वीं शताब्दी के प्रारंभ से अपनाई गई। भारतवर्ष में नलकूप वेधन सन् 1930 में प्रारंभ हुआ। सन् 1960 से ए.आर.डी.सी. ने जो कि अब नाबार्ड कहलाता है, कृषकों को पर्याप्त वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई, जिसके कारण भी भू-जल दोहन कई गुना बढ़ गया है। ग्रामीण विद्युतीकरण योजनाओं के क्रियान्वयन के फलस्वरूप बिजली उपलब्धता अनेक गाँवों तक सहज हो गई, इस कारण भी भूजल दोहन से बहुत बढ़ोतरी हुई है। भूजल के अविवेकपूर्ण एवं अनियंत्रित दोहन के कारण राजस्थान के कई क्षेत्र आज अत्यधिक दोहन की श्रेणी में आ गए हैं। कृषि का विकर्ष (ड्राफ्ट) 1980 में केवल 3,322 मिलियन घनमीटर था जो कि 1990 में बढ़कर 5,821 मिलियन घनमीटर हो गया तथा 1988 तक यह 11,035 मिलियन घनमीटर तक हो गया। इसके फलस्वरूप 100 से अधिक पंचायत समितियां अर्द्धकाष्ठा से अत्यधिक दोहन की श्रेणी में आ पहुंची है। 1997 के बाद कम वर्षा द्वारा भूजल पुनर्भरण में कमी तथा निरंतर पंपिंग के कारण भूजल के अत्यधिक दोहन की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है।

क्षेत्रों का वर्गीकरण


केंद्रीय शासन द्वारा एक राष्ट्रीय स्तर की समिति का गठन किया गया था। इसे भूजल अनुमान समिति कहा गया। इस समिति ने भूजल अनुमान विधि (1997) को तैयार किया। इस समिति को मुख्य रूप से उस समय की भूजल अनुमान विधियों में आवश्यक परिवर्तन एवं संशोधन करने का कार्य दिया गया था। इस समिति द्वारा भूजल उपलब्धता के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों के वर्गीकरण एवं नाम पद्धति के मानदंडों को भी संशोधित किया गया है। इस संशोधन के अनुसार भूजल निर्धारण इकाइयों का निम्न प्रकार वर्गीकरण किया गया है:

1. सुरक्षित
2. अर्द्धकाष्ठा
3. काष्ठा
4. अतिशोषित

यह वर्गीकरण किसी भी क्षेत्र के भूजल विकास की अवस्था तथा मानसून पूर्व एवं मानसून उपरांत के जल स्तरों के आंकड़ों, वहां के भूजल विकर्ष का तथा पुनर्भरण का अनुमान होता है तथा यह प्रतिशत में दर्शाया जाता है।

अत्यधिक दोहन से क्षति


भूजल एक पुनर्नवीनीकरण होने वाला स्रोत है। वर्षा द्वारा समयानुसार जल भर रचिताओं में पुनर्भरण होता है जिनके द्वारा कुएं में से पानी प्राप्त होता है। प्राकृतिक रूप से भूजल प्रदाय समय और स्थान के अनुसार बहुत सीमित है। आबादी में बढ़ोतरी के फलस्वरूप पानी की मांग अच्छे जीवन स्तर के लिए अधिकाधिक बढ़ गई है। इसके कारण भू-जल स्रोतों पर बहुत अधिक जोर पड़ता है। इस बढ़ती हुई मांग की आपूर्ति के लिए भूजल का बहुत अधिक मात्रा में दोहन होने लगा है। इसके कारण भूजल पुनर्भरण एवं भूजल पंपिंग का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया है। फलस्वरूप प्रदेश के कई भाग अत्यधिक दोहन वाले क्षेत्रों में आ गए हैं। इसी कारण जल पटल की गहराई भी निरंतर बढ़ती जा रही है। जल उद्धहन शीर्ष (लिफ्टिंग हेड) बढ़ जाने से पंपिंग की लागत भी बढ़ गई है। यदि जल भर रचिताओं से अधिकाधिक पानी निकाला जाता रहा तो कणीय जल भर रचिताओं में कठोरपन आ सकता है। इसके कारण जमीन धंसने की समस्या तथा जल भर रचिताओं की जलग्रहण क्षमता भी कम हो सकती है।

भूजल की गुणवत्ता की जल पटल के अधिकाधिक गहरे होते रहने से बिगड़ सकती है। ऐसी स्थिति में अलवण (ब्रेकिश) तथा लवण जल असंभावित क्षेत्रों की ओर से जल भर की बहने लगता है। इन समस्याओं का निदान पंपिंग को नियमन करके तथा पुनर्भरण एवं विकर्ष में उचित प्रबंधन की विधियां अपनाकर सामंजस्य स्थापित करके किया जा सकता है।

'जल संग्रहण एवं प्रबंध' पुस्तक से साभार

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