जल, जीवन और गंगा

2 Aug 2014
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भारत में नदियों की पूजा भले की जाती हो, पर उनकी स्वच्छता की चिन्ता नहीं किए जाने से आज देश के 60 हजार गांव प्यासे हैं, और यदि पानी मिलता है तो बीमारियों के साथ। अंधाधुंध विकास की चाहत में भूजल स्तर जिस रफ्तार से कम हो रहा है, उससे भविष्य में पानी के लिये युद्ध होने की आशंकाएं भी कम नहीं हैं। जरूरत है कि हम नदियों से छेड़छाड़ रोककर उनके प्राकृतिक बहाव को महत्त्व दें, नहीं तो हमारी सभ्यता कभी भी तबाह हो सकती है। पेश है भविष्य के संकटों को परखती रिपोर्ट।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर-शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा एक्शन प्लान बना। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह-जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है।केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन-तीन मंत्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। एक बार पहले भी राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर-शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा एक्शन प्लान बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया। मानो पहले यह राष्ट्रीय नदी नहीं रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह-जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल रखने के लिए देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास तथा पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। यह बहुत आसान नहीं होगा।

गंगा को गंदा मत करो

दरअसल, क्लीन गंगा की अवधारणा ही सही नहीं है। सही नारा यह होना चाहिए कि गंगा को गंदा मत करो। गंगा के अंदर स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता है। जहां गंगा का पानी साफ हो, वहां से जल लेकर यदि किसी बोतल में रखें तो सालों साल सड़ता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को इस पानी में डालकर देखा तो पाया कि चार घंटे के बाद वे नष्ट हो गए। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा।

इस समय हमारे सामने मुख्य चुनौती है खरीफ की फसल को बचाना और आने वाली रबी की फसल को ठीक-ठीक तैयारी। दुर्भाग्य से इसका कोई बना-बनाया ढांचा सरकार के हाथ फिलहाल नहीं दिखता। देश के बहुत बड़े हिस्से में कुछ साल पहले तक किसानों को इस बात की खूब समझ थी कि मानसून के आसार अच्छे न दिखें तो पानी की कम मांग करने वाली फसलें बो ली जाएं। इस तरह के बीज पीढ़ियों से सुरक्षित रखे गए थे। कम प्यास वाली फसलें अकाल का दौर पार कर जाती थीं। अकाल के अलावा बाढ़ तक को देखकर बीजों का चयन किया जाता था। पर 30-40 साल के आधुनिक कृषि के विकास ने इस बारीक समझ को आमतौर पर तोड़ डाला है। पीढ़ियों से एक जगह रहकर वहां की मिट्टी, पानी, हवा, बीज, खाद सब कुछ जानने वाला किसान अब छह-आठ महीनों में ट्रांसफर होकर आने-जाने वाले कृषि अधिकारी की सलाह पर निर्भर बना डाला गया है। किसानों को सिंचाई के अपने साधनों से काट देने की भी है। पहले जितना पानी मुहैया होता था, उसके अनुकूल फसल की जाती थी। अब नई योजनाओं का आग्रह रहता है कि राजस्थान में भी गेहूं, धान, गन्ना, मूंगफली जैसी फसलों को बोने का रिवाज बढ़ता जा रहा है। इनमें बहुत पानी लगता है। इसलिए, इस बार हम सब मिलकर सीखें कि बुरा मानसून अकेले नहीं आता है। अगली बार जब ऐसा हो तो उससे पहले अच्छी योजनाओं का अकाल न आने दें। उन इलाकों, लोगों और परम्पराओं से कुछ सीखें, जो बीते अकाल के बीच में भी सुजलां, सुफलां बने हुए थे।
अनुपम मिश्र, पर्यावरणविद्
अगर कोई यह समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्ला करने से या भैसों के नहाने से गंगा या अन्य कोई नदी प्रदूषित होती है तो यह ठीक उसी प्रकार हंसने की बात होगी, जैसे कोई शहरी आदमी जौ के पौधे को गेहूं का पौधा समझ बैठे या बाजरे के पौधे को मक्का या गन्ने का पौधा समझ बैठे। गंगा के सम्बंध में मोदी सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के अफसर और मंत्रिगण जो घोषणाएं कर रहे हैं, उससे तो ऐसा ही लग रहा है।

‘अगर हम देश में बाढ़ की कारक नदियों को नहरों के माध्यम से सूखा प्रभावित क्षेत्र से जोड़ दें तो हमें एक साथ बाढ़ और सूखा दोनों से निजात मिल जाएगी।’
डॉ. अब्दुल कलाम, पूर्व राष्ट्रपति

जहर बहाने वाले को क्यों नहीं निशाना

कुछ साल पहले आगरा में यमुना नदी में तैरकर नहा रही लगभग 35 भैंसों को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले आए थे। और भैंस वालों ने उन्हें छुड़ाने में कई दिन लग गए थे। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्री के मालिक या शहरी मल-जल बहाने वाले म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के अधिकारी पुलिस के निशाने पर कभी नहीं रहे।

‘हमें देश की नदियों को बचाना होगा। जो जमीनें बंजर हैं, वहां कम पानी के इस्तेमाल से उगने वाले पौधों की खेती और पेड़ लगाने को बढ़ावा देना होगा। इससे भू-जल स्तर में सुधार होगा और सूखे की समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी।’
मेधा पाटकर, सामाजिक कार्यकर्ता

जगह-जगह बन गए डेड जोन

गंगा तथा अन्य नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। दूसरे यह कि जब कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता है, तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को भी नष्ट कर देता है।

सरकार अंधाधुंध बांध बनाने की नीति पर पुनर्विचार करे। तीन विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन हो। पहले विकल्प में नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बरकरार रखा जाए। दूसरा विकल्प ऊंचे और स्थायी बांध बनाने की वर्तमान नीति का है। तीसरा विकल्प प्रकृतिप्रस्त बाढ़ के साथ जीने के लिये लोगों को सुविधा मुहैया कराने का है। इसमें फ्लड रूफिंग के लिए ऊंचे सुरक्षित स्थलों का निर्माण, सुरक्षित संचार एवं पीने के पानी इत्यादि व्यवस्था शामिल है, जिससे लोग बाढ़ के साथ जीवित रह सकें। मेरा मानना है कि उत्तराखंड में भागीरथी पर बांध, दिल्ली में यमुना में खेलगांव-मेट्रो आदि निर्माण, उत्तर प्रदेश में गंगा एक्सप्रेस वे तटबंध, बिहार और बंगाल में क्रमश: पहले से बंधी कोसी और हुगली सब नदियों को कैद करने का ही काम है। चूंकि बाढ़ और सूखा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इसलिये इन दोनों का समाधान सामुदायिक जल प्रबंधन ताल-पाल और झल से ही संभव है।
राजेन्द्र सिंह, जल विशेषज्ञ
नदी में बहुत से सूक्ष्म वनस्पति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं, गंदगी को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करते हैं। इसी प्रकार बहुतेरे जीव जन्तु भी सफाई करते रहते हैं, लेकिन उद्योगों के प्रदूषण से नदियों में जगह-जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटर, कहीं एक किलोमीटर तो कहीं दो किलोमीटर के डेड जोन से गुजरने वाला कोई जीव-जन्तु या वनस्पति जीवित नहीं बचती।

क्या उद्योगों, बिजलीघरों का गर्म पानी, जहरीले कचरे को नदी में बहाने पर सख्ती से रोक लगेगी? क्या प्रदूषण के लिए जिम्मेदार उद्योगों के मालिकों, बिजलीघरों के बड़े अधिकारियों को जेल भेजने के लिये सख्त कानून बनेंगे और उसे मुस्तैदी से लागू किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गंगा निर्मल कैसे रहेगी?

गंगा तथा अन्य नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। यह नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को भी नष्ट कर देता है।

जैविक खेती को मिले सीधे सब्सिडी

नदियों के प्रदूषण का बड़ा कारण है खेती में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग। ये रसायन बरसात के समय बहकर नदी में पहुंचकर जीव जन्तुओं तथा वनस्पतियों को नष्ट करके नदी की पारिस्थतिकी को बिगाड़ देते हैं। इसलिये नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के लिये इन रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी को बंद करके पूरी राशि जैविक खाद तथा जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को देनी पड़ेगी। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी। जैविक खेती में उत्पादकता कम नहीं होती, बल्कि अनाज, सब्जी तथा फल भी जहर मुक्त और स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। सिंचाई के लिये पानी की खपत भी बहुत घटती है और लागत घटने से मुनाफा भी बढ़ाता है। अगर इस पर कड़ा फैसला लिया गया, तभी नदियों को साफ रखा जा सकेगा।

आने वाला समय पानी के लिए बहुत बुरा है। गरीबों,किसानों और नदियों का बुरा हाल है। वस्तुस्थिति यह है कि वजीराबाद के बराज पर दिल्ली के लिये यमुना का सारा अच्छा पानी रोक लिया जाता है और सिर्फ गंदा पानी ही आगरा को मिलता है, जिसे स्वच्छ बनाकर सप्लाई कर दिया जाता है। यह गलत नहीं है, परन्तु आगरा के लोगों को यह पता होना चाहिये कि उनके साथ क्या हो रहा है? पानी की सफाई पर जो खर्च आता है, उसके लिये जिम्मेदार दिल्ली है, आगरा के लोग नहीं। इस मुद्दे पर सवाल उठाए जाने चाहिये। पानी का आगरा में जो हश्र है, उससे भी बुरा और शहरों का होने की संभावना है। दिल्ली को दूर-दूर से पानी भेजा जा रहा है, किन्तु दिल्ली में न तो बारिश के पानी का इस्तेमाल किया जाता है, न लोकल वाटर सिस्टम का और न ही बाढ़ के पानी का, जिससे समस्या का समाधान हो सकता है।
हिमांशु ठक्कर, पर्यावरणविद्

शहरी सीवर जल पर भी कसे लगाम

शहरों के सीवर तथा नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करके साफ पानी नदी में गिराने के लिए बहुत बातें हो चुकी हैं। केवल गंगा के बगल के क्लास-1 के 36 शहरों में प्रतिदिन 2,601.3 एमएलडी गंदा पानी निकलता है, मात्र 46 प्रतिशत ही साफ करके नदी में गिराया जाता है। क्लास-2 के 14 शहरों से प्रतिदिन 122 एमएलडी एफ्लूएंट निकलता है, मात्र 13 प्रतिशत ही साफ करके गिराया जाता है। गंगा के किनारे के कस्बों तथा छोटे शहरों के प्रदूषण की तो सरकार चर्चा भी नहीं करती।

सोना बन सकता है शहरी कचरा

शहरी मल, जल तथा कचरा से सोना बनाया जा सकता है। देश के कुछ शहरों में इससे खाद बनती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लगाया जाता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्य नदियों के सभी शहरों-कस्बों में किया जा सकता है।

अब तक यह मामला टलता रहा है। इसमें भी मुस्तैदी की सख्ती से जरूरत है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में शहर की सारी गंदगी के साथ वरुणा नदी गंगा में मिलती है। क्या प्रधानमंत्री का ध्यान इस पर गया है? अगर नहीं तो जाकर देख लें।

रुक गई स्वाभाविक उड़ाही

गंगा या अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ों-करोड़ लोगों की ओर नजर डालना जरूरी है, जिनकी जीविका और जिनका सामाजिक सांस्कृतिक जीवन इनसे जुड़ा है।

गंगा पर विचार के साथ-साथ गंगा में मिलने वाली सहायक नदियों के बारे में विचार करना जरूरी है।

आठ राज्यों की नदियों का पानी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों में होने वाले प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा पर शुरू में ही टिहरी तथा अन्य स्थानों पर बांध और बराज बना दिए गए। इससे जल प्रवाह में भारी कमी आयी है, जो कि प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण है।

बांधों और बराजों के कारण नदी की स्वाभाविक उड़ाही (डी-सिल्टिंग) की प्रक्रिया रुकी है। गाद का जमाव बढ़ने से नदी की गहराई घटती गई है और बाढ़ तथा कटाव का प्रकोप भयावह होता गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा में आने वाले पानी का लगभग आधा नेपाल के हिमालय क्षेत्र की नदियों से आता है।

हिमालय में हर साल लगभग एक हजार भूकंप के झटके रिकॉर्ड किये जाते हैं। इन झटकों के कारण हिमालय में भूस्खलन होता रहता है। बरसात में यह खरबों टन मिट्टी बहकर नदियों के माध्यम से खेतों, मैदानों तथा गंगा में आती है। इसी मिट्टी से गंगा के मैदानों का निर्माण हुआ है। यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी।

(लेखक गंगा मुक्ति आंदोलन के सूत्रधार हैं)


फिर ना सुलग जाए ठंडी आग

गडकरी साहब के गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात से गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। बराजों की श्रृंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझबूझ की बात नहीं है। नहीं तो सरकार को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। गंगा मुक्ति आंदोलन ने ऊपर वर्णित सवालों को लगातार उठाया और लाखों-लाख लोग उसमें सक्रिय हुए थे। आज भी वह आग बुझी नहीं है। आग अंदर से सुलग रही है। गंगा के नाम पर गलत नीतियां अपनाई गईं तो बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में यह ठंडी आग फिर से लपट बन सकती है।


नदियों में हो रही डराने वाली मिलावट

दूषित नदियों के किनारे स्थित गांवों का जीवन खत्म हो रहा है। कृष्णा नदी के तट पर स्थित गांवों में भूजल जहर बन चुका है। काली नदी के किनारे क्रोमियम-लेड से प्रदूषित हैं। हिंडन किनारे बसी कॉलोनी लोहिया नगर-गाजियाबाद की धरती में जहर फैलाने वाली चार फैक्टरियों में ताले मारने पड़े। कानपुर, बनारस, पटना, बोकारो, दिल्ली, हैदराबाद आदि नदी से भूजल में पहुंचे प्रदूषण के उदाहरण कई हैं। उत्तर प्रदेश के जौनपुर, झरखंड के साहेबगंज और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के भूजल में आर्सेनिक की मिलावट डराने वाली है।


फिर भी प्यास बुझा रही गंगा

भले ही गंगा पर सूखे का असर पड़ रहा हो, पर सिंचाई के लिए पानी की कोई किल्लत गंगनहर वाले क्षेत्रों में नहीं है। गंगा के पानी से गंगनहर के जरिये उत्तर भारत की प्यास बुझ रही है। गंगनहर का निर्माण वर्ष 1842-1854 में इसीलिए किया था कि उत्तर भारत की प्यास बुझती रहेगी। जब गंगनहर बनी थी, तब भी ऐसे ही सूखा पड़ रहा था। अब भी गंगा की अविरल धारा बह रही है।


उमा भारती का एजेंडा

1. साल भर गंगा के सतत प्रवाह को बनाए रखना।<br>2. बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए बढ़िया प्रबंधन। नदियों को आपस में जोड़ना।<br>3. दीर्घकालिक कृषि प्रणाली और जल इस्तेमाल कुशलता को बढ़ावा देना।<br>4. जलग्रहण क्षेत्र और मिट्टी के संरक्षण पर ध्यान।<br>5. प्रदूषण के स्तर को कम करना।<br>6. बरसात के जल के संरक्षण पर जोर देना।


क्या समाधान हैं बांध?

बीसवीं सदी गवाह रहा ढेरों बड़े बांधों के निर्माण का। आज विश्व में करीब 48000 बांध हैं, जो बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं। वर्ल्ड कमीशन ऑन डैम्स द्वारा बांधों की लागत और उनसे लाभ के मूल्यांकन पर हुए शोध से यह साबित हुआ कि भले ही फायदे हुए हों, पर बांधों के निर्माण की लागत उनसे होने वाले लाभों से कहीं ज्यादा है। अनुमान है कि भारत में 1950 से बने बांधों के कारण करीब चार करोड़ परिवार विस्थापित हुए हैं। आजकल पश्चिम में पर्यावरण को हुई हानि के चलते बांधों को तोड़ा जा रहा है। बांधों के निर्माण से हजारों ऐसे वनप्राणियों और वृक्षों, जो बाढ़ को रोकने और पानी को जमीन में सोखने में मदद करते, का सफाया हो गया है। प्रसिद्ध भाखड़ा नांगल परियोजना के हाल के विेषण से पता चला है कि इस बांध से मिले पानी से पंजाब की सिंचाई की मांग की केवल 10% पूर्ति हुई, और भूमिगत जल का घटाव राज्य में खतरनाक गति से जारी है।



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