जल के लिये जंग नहीं, प्यार की जरूरत


भारत के महाराष्ट्र राज्य का काफी हिस्सा आज सूखे की चपेट में है। सरकार सारे देश से रेल के तेल डिब्बों को साफ करके उनमें जल की आपूर्ति महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त हिस्सों को करने का प्रयास कर रही है। गत वर्ष सिंगापुर में जल की कमी होने के कारण विदेश से जल का आयात करना पड़ा था। आज पंजाब और हरियाणा में जल को लेकर राजनीतिक खींचतान अवश्य दिखाई दे रही है, परन्तु बहुत कम लोग जल की मूल समस्या पर चिन्तन करते हुए नजर आ रहे हैं। जल की समस्या राजनीति, अदालतों या आयोगों के गठन से नहीं सुलझेगी। जल को लेकर कई राजनीतिक और सामाजिक विवाद खड़े हो चुके हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल का विवाद लगभग 100 वर्ष से भी अधिक आयु का हो चुका है। अब कृष्णा और गोदावरी जल को लेकर आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में विवाद प्रारम्भ हुआ है। रावी, व्यास और सतलुज नदियों के जल को लेकर विवाद केवल उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मध्य ही सीमित नहीं है अपितु भारत-पाकिस्तान विभाजन के कारण 2 देशों के बीच भी इस विवाद की जड़ें समाई हुई हैं।

सारे विश्व की आबादी 7 अरब से ऊपर हो चुकी है। पर्यावरण परिवर्तन के साथ मौसम के सारे मापदण्ड बदलते जा रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण सारे विश्व में पानी जैसी महत्त्वपूर्ण जीवन औषधि की उपलब्धता का दबाव भी बढ़ता जाएगा।

विश्व राजनीतिक शोधकर्ताओं का अनुमान है कि मध्य पूर्वी और अफ्रीका के लगभग 40 देशों में आगामी 10 वर्षों के अन्दर पानी की भयंकर कमी सामने आ सकती है। सारे विश्व में कृषि कार्यों के लिये जल का 70 प्रतिशत भाग एक महान आवश्यकता है। आने वाले वर्षों में जल की माँग इसकी उपलब्धता से लगभग 40 प्रतिशत अधिक हो जाएगी।

भारत के महाराष्ट्र राज्य का काफी हिस्सा आज सूखे की चपेट में है। सरकार सारे देश से रेल के तेल डिब्बों को साफ करके उनमें जल की आपूर्ति महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त हिस्सों को करने का प्रयास कर रही है। गत वर्ष सिंगापुर में जल की कमी होने के कारण विदेश से जल का आयात करना पड़ा था। आज पंजाब और हरियाणा में जल को लेकर राजनीतिक खींचतान अवश्य दिखाई दे रही है, परन्तु बहुत कम लोग जल की मूल समस्या पर चिन्तन करते हुए नजर आ रहे हैं। जल की समस्या राजनीति, अदालतों या आयोगों के गठन से नहीं सुलझेगी।

वास्तव में जल की समस्या जल के कुप्रबन्धन को दुरुस्त करने से ही हल हो सकती है। सर्वप्रथम भारत में कृषि के उचित प्रबन्धन को लेकर एक राष्ट्रीय योजना की आवश्यकता है जिसमें भूमि के संरक्षण तथा उस भूमि में जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिये ठोस योजनाएँ तैयार करके लक्ष्यबद्ध तरीके से उन्हें लागू करवाया जाये। किसानों को फसलों में बदलाव का पूरा प्रशिक्षण और हर सम्भव सहायता दी जाये। इन कार्यों में धन की कमी का कोई बहाना नहीं किया जाना चाहिए।

राज्य सरकारें और केन्द्र सरकार पूरी सदभावना के साथ इस राष्ट्रीय योजना पर कार्य करे जिससे जल के न्यूनतम प्रयोग से कृषि की क्षमता बढ़ाई जा सके। साथ ही यह ध्यान रखा जाये कि भूजल न तो प्रदूषित हो और न उसकी मात्रा कम हो। ऐसी लक्ष्यबद्ध कृषि योजना से हमारी नदियाें का आकार भी छोटा होने से बच जाएगा।

भारत की कुछ दशक पूर्व लागू हरित क्रान्ति ने भारतीय कृषि में जिस प्रकार रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढ़ाया है उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है जिससे भूमि का प्रदूषण भी न हो, जल का प्रयोग कम हो और कृषि उत्पाद की गुणवत्ता तथा मात्रा में भी वृद्धि हो।

राष्ट्रीय जल एवं कृषि प्रबन्धन योजना के अतिरिक्त सरकारों के अन्य प्रशासनिक मंत्रालयों और विभागों के साथ-साथ प्रत्येक नागरिक को भी जल संरक्षण के लिये पूरी सदभावना के साथ कार्य करना चाहिए।

वित्त मंत्रालय बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं को यह आदेश दे कि जब भी किसी भूखण्ड पर निर्माण के लिये ऋण जारी किया जाता है तो उस निर्माण योजना में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसमें जल को पुनः प्रयोग करने लायक बनाने की क्या व्यवस्था है। जैसे-भूखण्ड की सीमाओं पर कुछ हिस्सा कच्चा छोड़ना जिससे भवन का व्यर्थ जल भूमि के अन्दर भूजल स्तर का सहायक बन सके।

सड़क निर्माण के समय सरकारी विभाग यह ध्यान रखे कि सड़कों के किनारे न्यनतम 2-3 फुट की चौड़ी पट्टी कच्ची भूमि की तरह छोड़ी जाये जिससे वर्षाजल भूमि में प्रविष्ट हो सके।

घरों के अन्दर हम जितने भी कार्य सम्पन्न करते हैं उनमें जल का प्रयोग पूरी किफायत के साथ करना चाहिए। मैं स्वयं कई घरों के अन्दर सफाई में जुटी बहनों को प्रार्थना करता रहता हूँ कि सफाई के कार्यों में जल का न्यूनतम प्रयोग करें और व्यर्थ न बहने दें।

मैंने कई मन्दिरों के प्रबन्धकों को यह निवेदन किया है कि शिवलिंग पर चढ़ाए जाने वाले जल तथा मन्दिर के अन्य कार्यों में प्रयोग होने वाले जल का भी पुनःचक्रण करने के लिये कुछ-न-कुछ व्यवस्था अवश्य करें। कई मन्दिरों में हमने ऐसी व्यवस्था लागू करने में सफलता प्राप्त की। यहाँ तक कि मेरे लेटर पैड पर जब भी किसी परिवार या संस्थाओं को शोक सन्देश जाते हैं तो उनमें मैं मृतक के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में लोगों को जल संरक्षण की अपील करता हूँ।

पंजाब की संस्कृति से जुड़ाव के कारण भी गुरू ग्रंथ साहिब की एक-एक पंक्ति को मैं महान उपदेश मानता हूँ। इन महान उपदेशों में एक उपदेश जल को लेकर भी प्रस्तुत किया गया है- ‘पहिला पाणी जीओ है, जित हरिया सभ कोए।’ इसका भाव यह है कि जल खुद भी एक जीव है, क्योंकि इसी के बल पर हर जीव हरा-भरा अर्थात जीवनयुक्त होता है।

हमारे शरीर को भी 70 प्रतिशत जल की आवश्यकता है। ऋग्वेद का भी निर्देश है- ‘अहं भेषजं अपसुमे’ अर्थात परमपिता परमात्मा ने जल में सारी औषधियाँ डाल दी हैं इसलिये जल में किसी प्रकार के केमिकल्स आदि डालने की कोई आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम जल की प्राकृतिक शुद्धता को बनाए रखें।

प्राकृतिक चिकित्सा अनुसन्धानों के अनुसार शुद्ध जल हमारे शरीर के अनेकों रोग समूल नष्ट करने में लाभकारी हो सकता है। यहाँ तक कि हम जल के सेवन को बढ़ाकर इस धरती के सबसे खरतनाक रोग ‘कैंसर’ की रोकथाम भी कर सकते हैं। कैंसर जनक कैरसीनोंजेन नामक प्रदूषित कण जब हमारे रीशर में प्रवेश करते हैं तो वे जल में घुलनशील बनकर स्वतः ही शरीर से निकल सकते हैं।

आवश्यकता केवल इतनी है कि हमारे शरीर में 70 प्रतिशत जल की मात्रा हर हालत में सुनिश्चित रहनी चाहिए। यह तभी सम्भव है जब हम बाहर भी जल को व्यर्थ करने के स्थान पर जल के संरक्षण के हर कार्य में अपनी भागीदारी करें।

एक तरफ सारे विश्व में जल को लेकर हाहाकार मचा हुआ है, परन्तु विडम्बना है कि सारे विश्व की सरकारें जिस प्रकार मिलकर उग्रवाद से लड़ने का संकल्प करती दिखाई देती हैं, जल संरक्षण करने के लिये उससे भी बड़े संकल्प की आवश्यकता है। हाल ही में अपने संसदीय दौरे पर जब मैं जापान गया तो वहाँ के होटल में जल संरक्षण का एक विशेष उपाय मुझे देखने को मिला।

यदि आप अपने कमरे की चादरें और तकिए के कवर प्रतिदिन धुलवाना नहीं चाहते तो आपको होटल की तरफ से विशेष धन्यवाद कार्ड प्रदान किया जाता है। मैंने 2 दिन लगातार जब होटल स्टाफ को चादरें और तकिए के कवर न धुलवाने का निर्देश दिया तो होटल प्रबन्धन ने मुझे प्रतिदिन के हिसाब से 2 कार्ड दिये जिनमें जल के माध्यम से भूमि को बचाने में सहायता का उल्लेख था। ऐसी छोटी-छोटी बातों से हम जल संरक्षण के महान लक्ष्य को प्राप्त कर पाएँगे।

शताब्दी तथा राजधानी रेलों में प्रत्येक यात्री को एक लीटर की पानी की बोतल दी जाती है। अधिकांश यात्री इस पूरे पानी का प्रयोग नहीं करते। रेल प्रबन्धन इसके स्थान पर यात्रियों को जग में भरकर एक-एक गिलास जल की सेवा कर सकती है। इस प्रकार जल व्यर्थ नहीं होगा। इसी तरह चाय और कॉफी के लिये पानी के थर्मस दिये जाते हैं जिनमें अनुमानतः 300 मि.ली. अधिक पानी होता है, जबकि एक प्याला चाय या कॉफी के लिये लगभग 100 मि.ली. जल का ही प्रयोग हो पाता है। इसके स्थान पर यदि रेल प्रबन्धन यात्रियों को बनी बनाई, चाय, कॉफी भेंट करना प्रारम्भ कर दे तो जल व्यर्थ होने से बचेगा और पानी के थर्मस बार-बार धोने में भी जल व्यर्थ होने से बचेगा

हमारी सरकारें गंगा और यमुना के प्रदूषण पर बहुत-सी योजनाएँ बनाकर धन खर्चने के लिये तैयार रहती हैं। इन उपायों में यदि हम प्रत्येक नदी के किनारों पर बहुत सुन्दर फूल-पौधों से युक्त बगीचे लगाने प्रारम्भ कर दें तो नदियों के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ सकती है। प्रत्येक शहर, ग्राम और उद्योगों से निकलने वाले जल को नदियों में जाने से पूर्व उन्हें शुद्ध करने के संयंत्र लगाने में केन्द्र सरकार अनुदान भी दे और पूरे अनुशासन के साथ इसका पालन सुनिश्चित किया जाये।

जल के बारे में सूत्र रूप से इतना ही कहना पर्याप्त है कि जल के बिना हमारा जीवन असम्भव है। मैंने हाल ही में अपनी भावनाओं और विचारों को कलमबद्ध करते हुए एक लघु पुस्तक की रचना भी की थी जिसमें जल संरक्षण तथा जल को व्यर्थ गँवाने से रोकने के अनेकों सुझावों का उल्लेख किया गया है।

सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य गैर-सरकारी संगठनों, को इन सुझावों का प्रचार-प्रसार जन-जन तक करना चाहिए। हमारे देश के लगभग 125 करोड़ नागरिक यदि प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति एक लीटर जल बचाने का प्रयास करें तो हम पूरे देश में प्रतिदिन 125 करोड़ लीटर जल बचा सकेंगे। इसलिये मेरा आह्वान है प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक सरकार से कि जल के लिये युद्ध नहीं प्रेम बरसाओ क्योंकि जल पहला जीव, जिससे जीवित है हर जीव।

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