जल के लिये समर्पित भारतीय : सफलता की कहानी


जल हमारे ग्रह पृथ्वी पर जल एक अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण संसाधन है। लेकिन दिन-प्रतिदिन इसकी उपलब्धता कम होती जा रही है। भूजल स्तर के लगातर घटते चले जाने के कारण समस्या और भी गम्भीर होती जा रही है। इसके बावजूद जाने-अनजाने पानी का संरक्षण करने के स्थान पर इसको बर्बाद करना ही हमारी आदत बनती जा रही है। हम यह भूल जाते हैं कि हमारे देश में लाखों-करोड़ों लोगों को मुश्किल से ही स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो पाता है। सांद्रा पोस्टल, जो पानी से जुड़े मुद्दों एवं जलीय परितंत्र पर एक विश्व विशेषज्ञ यानी ‘वर्ल्ड एक्सपर्ट’ का स्थान रखती है, ने अपनी पुस्तक ‘लास्ट ओएसिसः फेसिंग वाटर स्कारसिटी’ में साफ शब्दों में लिखा है कि अगर तीसरा विश्व युद्ध होगा तो यह यकीनन जल के लिये ही होगा। ऐसे परिदृश्य में नवाचारी उपायों से जल को प्राप्त करने तथा उसके संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में किया जाने वाला कार्य निश्चित रूप से स्वागत योग्य होगा।

इस दिशा में देश-विदेश के काफी लोग अथक प्रयास कर रहे हैं। हम यहाँ जल के लिये समर्पित कुछ भारतीयों की बात करेंगे।

जल संरक्षण, जल प्रबन्धन तथा परम्परागत वर्षा जल संग्रहण तकनीकों के क्षेत्र में श्री अनुपम मिश्र ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। सन 1970 के दशक में उनका ध्यान जल की समस्याओं की ओर गया और वह इस दिशा में सक्रिय हुए। पारम्परिक जल निकायों, जैसे कि तालाबों के संरक्षण एवं पुनरुद्धार तथा पारम्परिक वर्षाजल संग्रहण की तकनीकों के बारे में लोगों को अवगत कराने के लिये राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश के अनेक गाँवों का उन्होंने भ्रमण किया। परम्परागत जल निकायों के संरक्षण के सन्दर्भ में वह विदेश भी गए। जल संग्रहण पर उन्होंने ‘आज भी खरे हैं तालाब (1993)’ तथा ‘राजस्थान की रजत बूँदें (1995)’ शीर्षक से दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। स्वागत योग्य बात यह है कि ये दोनों ही पुस्तकें काॅपीराइट अधिकारों से मुक्त हैं।

वर्तमान में अनुपम मिश्र गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की त्रौमासिक पत्रिका ‘गाँधी दर्शन’ के सम्पादक हैं। इस पत्रिका के माध्यम से भी जल संरक्षण एवं जल प्रबन्धन से सम्बधित लेख प्रकाशित कर वह लोगों में जागरुकता फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। वह इन्दिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार (1996) तथा जमुनालाल बजाज पुरस्कार (2011) से सम्मानित हो चुके हैं।

जल संग्रहण एवं जल संरक्षण के क्षेत्र में पूर्ण समर्थन से कार्य करने वाले एक और व्यक्ति हैं श्री राजेन्द्र सिंह, जो ‘जल पुरूष’ तथा ‘राजस्थान के डांडी’ के नामों से भी सुविख्यात हैं।

प्रौढ़ शिक्षा से जुड़ी सरकारी नौकरी करते हुए सन 1980 में तरुण भारत संघ नामक एक गैर-सरकारी संगठन के सम्पर्क में वह आये और इसके सदस्य बने। यह संगठन गाँव किशोरी भिकमपुरा, तहसील थानागाजी, जिला अलवर, राजस्थान में कार्यरत था।

सन 1985 में सरकारी नौकरी छोड़कर श्री राजेन्द्र सिंह जिला अलवर के अन्तर्गत आने वाले गोपालपुरा गाँव चले गए। इस गाँव के एक बुजुर्ग मंगू मीणा ने उनसे ‘चोखा काम’ करने के लिये कहा। यह पूछे जाने पर कि ‘चोखा काम’ क्या होता है, मंगू मीणा ने बताया, ‘‘देखो, वर्षा द्वारा प्रकृति जो पानी हमें देती है, सूरज उसे सुखा देता है। इस तरह सूरज हमारे पानी की चोरी कर लेता है। तुम्हें इस चोरी को रोकना है।’’ एक जोहड़ के पास ले जाकर मंगू मीणा ने उन्हें बताया कि इस जोहड़ में पहले वर्षा का पानी जमा होता था जो बाद में कुएँ में चला जाता था।

मंगू मीणा से प्रेरणा लेकर राजेन्द्र सिंह ने तरुण भारत संघ से जुड़े अपने मित्रों के साथ गोपालपुरा और आस-पास के अनेक गाँवों में जल संरक्षण का काम शुरू किया। पहले गाँव के लोगों का उन पर विश्वास नहीं था लेकिन सात साल के कठिन परिश्रम के बाद जब राजेन्द्र सिंह अपने मित्रों के साथ एक तालाब को बनवाने में सफल रहे तब लोगों का अविश्वास विश्वास में बदल गया।

गोपालपुरा से प्रारम्भ करके तरुण भारत संघ द्वारा अब तक अनेक गाँवों में 8,600 जोहड़ों का निर्माण किया जा चुका है। वर्षाजल संचयन में ये जोहड़ ही काम में आते हैं। ये छोटे, गोल तालाबों के आकार में होते हैं जिनमें वर्षाजल का संग्रहण होता है। यह जल फिर भूजल के साथ मिलकर उसका संवर्धन करता है। इस तरह संघ के प्रयास से अब तक करीब 1,000 गाँवों में जल की समस्या का समाधान किया जा चुका है। इसके अलावा राजस्थान की पाँच नदियों, जो मृतप्राय हो गई थी, को जीवनदान देने में भी तरुण भारत संघ ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

जल संरक्षण जल संग्रहण एवं जल संरक्षण के क्षेत्र में किये गए कार्यों के लिये राजेन्द्र सिंह रेमन मैगसेसे पुरस्कार (2001) तथा जमुनालाल बजाज पुरस्कार (2005) से सम्मानित हो चुके हैं।

वर्षाजल संग्रहण यानी वाटर हार्वेस्टिंग से आप भली-भाँति परिचित हैं। लेकिन क्या आपने ओस की बूँदों के संग्रहण यानी ड्यू हार्वेस्टिंग के बारे में भी सुना है? यह एक नवाचारी तकनीक है जिसका प्रयोग फिलहाल अलास्का, लैटिन अमेरिका तथा खाड़ी के देशों में किया जा रहा है। इसके लिये प्लास्टिक धातु से बने कंडेंसरों का इस्तेमाल किया जाता है।

ओस की बूँदों के अतिरिक्त पेरू के बुजामा गाँव में नम हवा से पानी को प्राप्त किया जा रहा है। इस पानी को फिल्टर करने के बाद टंकियों में संग्रहित किया जाता है। फिर नलों द्वारा इसे घरों में पहुँचाया जाता है। इस तकनीक के प्रयोग से बुजामा गाँव को कुछ महीनों के अन्दर ही 9,000 लीटर से अधिक पेयजल को प्राप्त करने में सफलता मिली है।

नम हवा के स्थान पर ओस की बूँदों से जल संग्रहण की तकनीक को अलास्का में प्रयोग में लाया जा रहा है। इसके लिये फ्रेमों में टिकाए गए प्लास्टिक के कंडेंसरों का इस्तेमाल किया जाता है। रात के समय इन कंडेंसरों के ताप में तेजी से गिरावट आती है जिसके कारण इनकी सतह पर ओस की बूँदें आकर जमा हो जाती हैं। इन बूँदों को बोतल में इकट्ठा कर लिया जाता है। फिर उचित शोधन करने के बाद बूँदों से प्राप्त जल को पीने के काम में लाया जाता है।

श्री गिरजाशरण, जो भारतीय प्रबन्धन संस्थान, अहमदाबाद के पूर्व प्राध्यापक हैं, अलास्का, लैटिन अमेरिका तथा खाड़ी के देशों में प्रयुक्त होने वाली ड्यू हार्वेस्टिंग तकनीक से परिचित थे। एक बार उन्हें कच्छ जाने का अवसर मिला। सुबह के वक्त पेड़-पौधों की पत्तियों पर पड़ी ओस की बूँदों को देखकर वह हैरत में पड़ गए। उन्हें हैरानी इसलिये हुई क्योंकि महीना अप्रैल का था और साधरणतया जाड़ों में ही ओस गिरती है। कच्छ जैसे तटीय अंचलों में वैसे भी पानी की बड़ी समस्या रहती है।

भारत में साधारणतया जाड़ों के कुछ महीनों में ही ओस गिरती है। लेकिन तटीय क्षेत्रों जैसे कि गुजरात के कच्छ में अक्टूबर से लेकर मई तक के आठ महीनों में ओस गिरती है। ऐसा पाया गया है कि गर्मियों के महीनों में ओस काफी अधिक मात्रा में गिरती है।

श्री गिरजा शरण ने चार वर्षीय अनुसन्धान एवं विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत कच्छ में छतों के ऊपर ओस को इकट्ठा करने के लिये ड्यू हार्वेस्टिंग सिस्टम का निर्माण करवाया। इस प्रणाली में ओस की बूँदों को रात भर प्लास्टिक के कंडेंसरों में जमा होेने के लिये छतों पर छोड़ दिया जाता है। प्लास्टिक के अलावा धातु के कंडेंसरों का इस्तेमाल भी इस काम के लिये किया जा सकता है।

इन प्लास्टिक या धातु के कंडेंसरों पर जमी ओस की बूँदों को विशेष तकनीक द्वारा बोतलों में इकट्ठा किया जाता है। इस तकनीक के द्वारा श्री गिरजा शरण को 300 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की छत से ओस को इकट्ठा कर 30 लीटर जल रोजाना प्राप्त करने में सफलता मिली। बिना बिजली के खर्च के प्राप्त होने वाले इस जल को फिल्टर कर तथा उबाल कर या पराबैंगनी प्रकाश द्वारा संशोधित कर पीने के काम में लाया जा सकता है।

बिना बिजली के ओस की बूँदों से जल प्राप्त करने की यह तकनीक सचमुच नवाचारी है जिसका उपयोग अन्य तटीय क्षेत्रों में भी किया जा सकता है।

दरअसल, तटीय क्षेत्र ही ड्यू हार्वेस्टिंग के लिये आदर्श स्थल हैं। इस तकनीक द्वारा जल प्राप्त करने को प्रथम दृष्टया कमतर आँका जा सकता है क्योंकि इससे निम्न मात्रा में ही जल की प्राप्ति होती है। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जो भी जल प्राप्त होता है वह उच्च गुणवत्ता वाला होता है। यह न भूलिये कि पानी की हर बूँद कीमती है।

सम्पर्क - डाॅ. प्रदीप कुमार मुखर्जी, 43, देशबन्धु सोसाइटी 15, पटपड़गज, दिल्ली - 110092

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading