जल के विभिन्न स्रोतों का चिकित्सीय स्वरूप

16 Apr 2013
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जिस स्थान पर कम मात्रा में पानी तथा वृक्षादि हो वहां का मानव पित्त व रक्त संबंधी रोगों से मुख्यत: ग्रसित होता है। तथा इस प्रकार के स्थान को जांगल कहते हैं व इन स्थानों पर प्राप्त होने वाली जल को जांगल जल कहते हैं। इसके विपरीत जिस देश में पानी बहुतायत मात्रा में पाया जाता है तथा वृक्षों की संख्या जहां अधिकाधिक होती है उस स्थान को अनूप कहते हैं एवं वहां मिलने वाली पानी को अनूप जल कहते हैं। अग्नि से तपे हुए लौह पर पड़ने वाले जल का कोई नाम नहीं जानता, क्योंकि तप्त लौह पर पड़ते ही वायु में मिल जाता है, लेकिन वह जल कमल के पत्तों पर मोती के समान विराजमान हो जाता हैं और वही जल जब स्वाति नक्षत्र में समुद्री सीप के मुख में गिरता है तो मोती बन जाता है। अतः अधम, मध्यम, उत्तम गुण स्रोत संसर्ग से उत्पन्न हुआ यह जल अपनी संगति के अनुसार पानी, जल और कारका आदि अनेक प्रकार के स्रोतों वाला हो जाता है तथा इस जल का स्वास्थ्य के ऊपर भी इसके गुणों के अनुसार ही असर पड़ता है जैसा कि नीतिशतक में भतृहरि ने भी कहा है-

सन्तप्तयसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते
मुक्ताकारतया तदैव नलिनोपत्रस्थितं राजते।
स्वात्या सागरशुक्तिमध्यपतितं तग्मौक्तिं जायते
प्रायेणाध्ममध्यमोत्तमगुणः संगर्गतो जायते।।


हमारे पौराणिक ग्रंथों मुख्य रूप से पानी का विभाजन ‘‘दिव्य तथा भौम‘‘ इन दो भागों में किया गया है। दिव्य जल के धाराजल , कारकाजल, तोषारजल तथा हेमजल यें चार भेद किए गए हैं। धारा जल सभी जलों से गुणकारी व लाभदायक होता हैं। इसकी जांच करने के लिए चांदी, स्टील अथवा मिट्टी आदि के पात्र में चावल डालकर पानी भर दे यदि उन चावलों का रंग परिवर्तित नहीं होता है तो उसे पवित्र जल समझें और यदि इन चावलों का रंग परिवर्तित हो जाए अथवा सड़ जाए तो वह समुद्र के समान जल होता है। इस प्रकार से धारा जल को भी हम समुद्र जल तथा गंगा जल इस प्रकार से दो भागों में बांट सकते हैं। गंगा जल गुणकारी होता हैं। यह हल्का, शीतल, पाचक, बुद्धिवर्धक तो होता ही है साथ ही साथ मूर्छा, तन्द्रा, दाह, थकान और तृष्णा आदि को नष्ट करने वाला भी होता है। जबकि समुद्र जल अनेक दोषों को देने वाला होता है। यह खारा नमकीन दृष्टि, बुद्धि बल आदि सभी को नष्ट करने वाला स्वास्थ्य के लिए अलाभकारी होता है।

हवा तथा बिजली के संयोग से पीड़ित हुआ जो पानी ओलो के रूप में आसमान से गिरता है। वह कारका नामक जल होता है। इस जल का पेड़-पौधों-फ़सलों व पशु पक्षियों मानव आदि सभी के उपर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। यह अत्यंत ठंडा रूखा व वातपित्त आदि को उत्पन्न करने वाला होता है। पीने योग्य पानी को तोषार जल कहते है। यह हल्का शीतल, कफ व पित्त संबंधी रोगों को दूर करने वाला शरीर में उत्पन्न होने वाले अन्य रोगों को दूर करने वाला है जैसे मकड़ी का विष,पारा, सर्पदन्त रोग। यह पानी क्षीण-क्षति रोगियों के लिए अत्यंत हितकारी है। जो पानी पर्वतो पर जमी हुई बर्फ से पिघलकर नदियों में बहता है। वह हिम जल कहलाता है। इस प्रकार का पानी हल्का अत्यंत मीठा विशुद्ध होने के साथ-साथ अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति दिलाता है। विशेष रूप से चर्म रोग,रक्तपित्त ,भ्रम अवसाद ,रूधिर संबंधी रोग ,क्षय रोग आदि को नष्ट करता हैं।

इसके पश्चात भौम जल के विषय में चर्चा करते है। भौम जल को हम तीन भागों में बांट सकते हैं- 1- जांगल 2- अनूप 3- साधारण।

जिस स्थान पर कम मात्रा में पानी तथा वृक्षादि हो वहां का मानव पित्त व रक्त संबंधी रोगों से मुख्यत: ग्रसित होता है। तथा इस प्रकार के स्थान को जांगल कहते हैं व इन स्थानों पर प्राप्त होने वाली जल को जांगल जल कहते हैं। इसके विपरीत जिस देश में पानी बहुतायत मात्रा में पाया जाता है तथा वृक्षों की संख्या जहां अधिकाधिक होती है उस स्थान को अनूप कहते हैं एवं वहां मिलने वाली पानी को अनूप जल कहते हैं। जांगल जल रूखा, नमकीन, हल्का होता हैं। यह जठराग्नि को बल देने वाला एवं पेट संबंधी बिमारियों को खत्म करने वाला होता है इसके विपरीत अनूप जल पीने में स्वादिष्ट होता है भारी होता हैं। जठराग्नि के खत्म करने वाला होता है। शरीर में अनेक रोगों तथा पथरी आदि को पैदा करने वाला होता हैं। साधारणतः सरलता से प्राप्त होने वाले पानी को साधारण जल कहते हैं। यह प्यास ,दाह, मद्य, भ्रम, मूर्छा, उल्टी, त्रिदोष (वात ,पित्त, कफ) को खत्म करने वाला होता हैं।

मानव शरीर में 70 प्रतिशत जल ही है। शरीर में इसकी प्रचुर मात्रा होने पर व्यक्ति स्वस्थ रह सकता हैं। जल शरीर के ताप संतुलन को संतुलित करता है। यदि यह संतुलन बिगड़ जाए तो व्यक्ति की मृत्यु तक हो जाती हैं। अतः जीवन को सुरक्षित रखने के लिए जल का प्रचुर मात्रा में सेवन करना चाहिए। प्रतिदिन प्रयोग होने वाले भोजन का 70 प्रतिशत भाग जल ही होना चाहिए। इसके अभाव में शरीर अनेक रोगों से ग्रसित हो जाता हैं। हमारे यहां प्राचीन काल से ही जलीय चिकित्सा का विशेष महत्व रहा है। उदाहरणस्वरूप हम भवभूति के उत्तमरामचरित नाटक को ले सकते हैं। इस नाटक में भवभूति ने जलीय चिकित्सा के माध्यम से ही माता सीता को होने वाली प्रसव वेदना को कम करने के लिए तमसा और मूरला नामक दो नदियों की गोद में दिखाया है। जो कि माता सीता की वेदना को अपनी वेदना समझकर उनका इलाज करती है। आधुनिक जलीय चिकित्सा के उदाहरण के रूप में हम कृषक विंसेज प्रिंसेज को देख सकते हैं। उन्होंने 1789 में फ्रेनवर्ग में एक जलीय चिकित्सालय की स्थापना की जिसमें वह जल के द्वारा ही लोगों के रोगों का निदान करते थें। प्रस्तुत लेख को लिखने के लिए प्राचीन वैदिक व लौकिक दोनों ही साहित्य का सहारा लिया गया है।

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