जल को अविरल बहने दो!

आज इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि हिंदुस्तान का पानी उतर गया है- पीने का पानी की किल्लत तो बच्चा-बच्चा महसूस कर रहा है, और आंख का पानी भी नहीं बचा, यह भी किसी से छिपा नहीं है। भौतिक पानी की कमी होने से शायद हमारी पानी की समझ भी कमतर हो गई है। हमारे समस्त शास्त्र और आख्यान प्रमाण हैं कि अभी एक डेढ़ सदी पहले तक हमारी पानी की समझ अत्यंत विस्तृत थी। मध्य काल में लोक भाषाओं का प्रचलन बढ़ने लगा तो हमारे मनीषियों ने जल के शास्त्रीय विवेचन को सरल लोकोक्तियों में प्रस्तुत कर दिया। रहीम का दोहा हैः

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरे, मोती मानस चून।।


कबीर ने भी हमें याद दिलाया है:

माया महा ठगिनी मैं जानी, केशव के कमला बनु बैठी, शिव के भवन भवानी।
पण्डा की मूरत बन बैठी, तीरथ में भई पानी।।


सच है कि कबीर जनवादी दार्शनिक है। उन्होंने दार्शनिक गूढ़ तत्वों को भी सहज कविता में इसलिए कह दिया कि आम आदमी अपने दर्शन से अलग-विलग न हो और उसका जीवन-दर्शन उसकी स्मृति में अंकित होगा तो वह आवश्यकता पड़ने पर अंतःकरण की बात को सहज जान भी लेगा। कबीर की इस बानी से यह सरल बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि सृष्टि में समस्त माया पानी की है, ईश्वर के सभी रूप जल समान हैं और जल की तीर्थ या तारनहार प्रवृति ही ईश्वर रूप में पूजनीय है। ईश्वर जल की तरह अलग-अलग रूपों और रूपकों में हमारे समक्ष प्रत्यक्ष होता रहता है और आदमी ईश्वरीय तत्व जल से निर्मित स्वयं ईश्वर का रूप है।

पानी के महत्व को छोटा मत जानिए। दुनिया में सब रौनक पानी की है- जहां पानी नहीं हैं वहां सून (शून्य) है। जो कौम अपना पानी नहीं बचा सकती, जिस कौम का पानी उतर जाए व चमक खोए मोती की तरह है जिसका एक कौड़ी भी मूल्य नही। पानी की रक्षा मानव धर्म है। हिंदुस्तान के पानी पर पिछले 150 बरस से लगातार हमला हो रहा है, और हम बेखबर हैं। यह अत्यंत अशुभ लक्षण है। सन् 1850 के लगभग दिल्ली में डेढ़ दर्जन छोटी-बड़ी स्थानीय या थोड़ी दूर से बह कर आने वाली बारह मासी नदियां प्रवाहित थीं। आज उन सभी की परिभाषा गंदानाला है। आज दिल्ली हिमालय के पानी पर जिंदा है। लेकिन कब तक?

शायद हमें खबर नहीं हुई कि हिमालय तेजी से सूख रहा है। तब क्या होगा? शायद स्वयं को भागीरथ का अवतार कहलाने के लिए लालायित नेता यूरोप के आल्प्स का पानी हिंदुस्तान ले आने की योजना प्रस्तुत कर देंगे। और इस प्रक्रिया में आल्प्स भी सूख गया या दिल्ली की जमुना की तरह मल-मूत्र का पहाड़ बन गया? तब तक तो सब कुछ बहुत आसान हो चुका होगा - तब तक साइंस की इतनी तरक्की हो चुकी होगी कि आकाश गंगा (अंतरिक्ष) घर तक सीधी पाईप लाईन से जुड़ी होगी? और प्लास्टिक के नल से अमृत प्रवाहित हो रहा होगा। साइंस के गरुर में आदमी शैतानियत की हद लांघने लगा है।

छप्पन खरब रुपए की लागत वाली विशालतम नदी जोड़ों योजना बनाई गई हैं। चाहे जिसने बनाई हो, यह योजना भारत की समस्त नदियों के विनाश की योजना है। इस योजना के माध्यम से समस्त नदी प्रणाली का विनाश हो जाएगा जैसा कि गंगा का हुआ है, और जो पानी विशाल बांधों में नियंत्रित होगा उस पर उन देशों या कंपनियों का कब्जा होगा जो उसके निर्माण की लागत जुटाएगी और भारत के नागरिक और किसान को एक-एक बूंद पानी खरीदना पड़ेगा।पिछले दिनों गंगा की मूल धारा भागीरथी को टिहरी बांध में कैद कर दिया। केवल अलकनंदा और मंदाकिनी का जल ही गंगा में प्रवाहित हो रहा है। यह भी हरिद्वार तक। गंगा जी में तो आज ऋषिकेश और हरिद्वार से निकाली जाने वाली नहरों के लिए पर्याप्त पानी भी उपलब्ध नहीं है। हिमालय से आने वाली बची-खुची गंगा का तो हरिद्वार कनखल में प्रवेश से पहले ही अस्तित्व शून्य हो जाता है। यह कैसी असाधारण घटना है कि 20वीं सदी के पूरा होते-होते गंगा का भागीरथी रूप ही समाप्त हो गया। न कोई प्रतिक्रिया हुई न कोई चिंता, किसी किस्म की सांस्कृतिक धार्मिक पीड़ा का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।

आखिर क्या वजह है कि हम साइंस और नव-साम्राज्यवाद के रिश्तों को देखने या समझने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं है। आखिर पिछले 100-150 बरसों में हमें हुआ क्या है कि हम अपनी समस्याओं को लगातार सीमित दायरों में बांध कर उनके निराकरण के विशेषज्ञ बनते जा रहे हैं। वैश्वीकरण यानी नव साम्राज्यवाद के युग में हमें हमारी समस्याओं के पारस्परिक संबंध दिखाई पड़ने लगातार बंद हो रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे विरोध का स्रोत उसी फोर्ड फाउंडेशन के कार्यालय में हो जहां स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के लिए सामुदायिक विकास और पंचवर्षीय योजना का प्रारूप विकसित किया गया था?

तीन पश्चिमी विशेषज्ञों डॉ. पी बरिंघ, डॉ. एचडी वान हीम्स्ट एवं डॉ. जीजे स्टारिंग ने अलग-अलग यह अनुमान लगाया था कि भारत की उत्पादकता लगभग 300-400 करोड़ टन अन्न के समकक्ष है। यानी अकेला हिदुस्तान पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त एवं उत्तम गुणों के खाद्यान्न की पूर्ति कर सकता है।सन् 1949-50 में मैं दर्जे पांच का छात्र था जब फिरंगी मेमों ने हमें कोका कोला पीना सिखाया। वही समय था जब फोर्ड फाउंडेशन के सौजन्य से अमेरिकी विशेषज्ञों ने हमारी पंचवर्षीय योजनाओं का ढांचा निर्धारित किया। हमें विद्युत ऊर्जा से रेल चलानी सिखाई। दामोदर नदी घाटी की पनबिजली योजना के फेल हो जाने पर वहां भाप-विद्युत उद्योग का रास्ता दिखाया। यह सिद्धान्त प्रतिपादित करके सिखाया कि साइंस द्वारा पैदा की गई समस्याओं का समाधान साइंस ही कर सकता है। इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं कि हमारे देश की बहुतांश सियासी ताकतें और लगभग समूचा शिक्षित वर्ग गोरे फिरंगी की गुलामी में अपने-आप को धन्य समझता है।

हिंदू जाति या हिंदुस्तानी समाज का दुनिया में किसी से भी वैसा कोई वैर नहीं है जैसा कि ईसाइयत और इस्लामियत के बीच आजकल माना जा रहा है। लेकिन फिरंगी सभ्यता हिंदू की कौम से डरती भी है और इसे हजम भी कर लेना चाहती है। हिंदू गांधी की कौम पूरी दुनिया के लिए विशेषतः फिरंगी सभ्यता के लिए एक अजूबा रहस्य है। यह दुनिया की अकेली कौम है जो न तो विस्तारवाद में विश्वास रखती है, न धर्म परिवर्तन में। क्रिस्तानी अथवा टोडी हिंदू की बात थोड़ी दीगर है, क्योंकि वह एक कृत्रिम प्रजाति है। इस सबके बावजूद हिंदू समाज का आदर्श या रामराज्य की कल्पना एक अबूझ रहस्य बना हुआ है।

पिछले पचास बरस से अमेरिकी सभ्यता संगठन या गिरोह हिंदुस्तान के तिलस्म को तहस-नहस कर इसे अपना क्रीत दास बना लेना चाहता है। दासत्व, दासता अमेरिकी सभ्यता का विशेष स्वभाव है। आधुनिक अमेरिका की कुल संरचना दास-व्यवस्था की बुनियाद पर खड़ी है और किसी न किसी रूप में वर्तमान विश्व व्यवस्था की मालिक है। इस परिस्थिति में हिंदुस्तान पर कब्जे की चाहत एक सहज बाल-सुलभ आचरण है। इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं। दो सौ बरस से यह प्रमाणित सत्य है कि जो हिंदुस्तान पर राज करता है वही दुनिया का बादशाह कहलाता है। पता नहीं कि हमारे अपने नेता इस सत्य के तत्व से अनजान क्यों है? चक्रवर्ती सम्राट बनने से क्यों डरते हैं?

भौतिकवादी दृष्टि से एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि हिंदुस्तान वही देश है जिसे विलायती लूट के पहले 18वीं सदी तक सोने की चिडि़या कहा जाता था। पूरी दुनिया के लिए यह बड़ा असमंजस है कि इस भू-भाग में खान तो न सोने की है, न हीरे जवाहरात की और न तेल-कोयले की लेकिन फिर भी इस देश में दुनिया का सर्वाधिक सोना होने का अनुमान है। फिरंगी द्वारा लूट खसोट शुरू हुई उसके पहले तो यह अकूत धन संपदा और विशाल विस्तृत वैभव का देश था ही। एक छोटे से टापू राज को ग्रेट ब्रिटेन का दर्जा हिंदुस्तान को गुलाम बना कर ही मिला था। ब्रिटिश औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात भी हिंदुस्तान की लूट और बाजार के आधार पर ही निर्मित हो सका। आश्चर्य ही है कि मार्क्स भी इस तथ्य को समझ नहीं सकें कि दुनिया में औद्योगिक क्रांति और प्रथम या मौलिक पूंजीवाद का विकास सिर्फ इग्लैंड में ही हुआ। उपनिवेश तो अनेक थे आधी से ज्यादा दुनिया कालोनी ही थी मगर हिंदुस्तान सिर्फ एक था। यह विचारणीय मुद्दा है कि औद्योगिक क्रांति ने स्पेन, पोर्चुगाल, जर्मनी, फ्रांस, हालैंड में से किसी को भी नहीं चुना। इतिहास की समस्त कृपा सिर्फ इग्लैंड पर ही हो गई। हिंदुस्तानी अजूबे के एक पहलू को अमेरिकी कृषि साइंटिस्टों ने किसी हद तक पहचान लिया है। अनेक आधुनिक विशेषज्ञों का मानना है कि हिंदुस्तान की नदी घाटियों में वादियों और चरागाहों में अकूत खाद्य पदार्थ, डेरी उत्पादन, एवं जीवनोपयोगी वस्तुएं जैसे कपड़ा, कागज, लकड़ी, घास, मिट्टी से बनायी उपयोगी वस्तुएं पैदा की जा सकती है। पिछले सदी के छठे-सातवें दशक में तीन पश्चिमी विशेषज्ञों डॉ. पी बरिंघ, डॉ. एचडी वान हीम्स्ट एवं डॉ. जीजे स्टारिंग ने अलग-अलग यह अनुमान लगाया था कि भारत की उत्पादकता लगभग 300-400 करोड़ टन अन्न के समकक्ष है। यानी अकेला हिदुस्तान पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त एवं उत्तम गुणों के खाद्यान्न की पूर्ति कर सकता है।

मध्य एशिया में पाए जाने वाले खनिज तेल आदि का पता और उपयोग तो बीसवीं सदी की खोज है। भारत की उत्पादक क्षमता, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था आदि तो अजस्र स्रोत की तरह अनादि है। अंग्रेजों ने नासमझी और राक्षसी स्वभाव के वशीभूत जो लूटपाट की शोषण व्यवस्था कायम की उसमें स्वदेशी व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हो गईं और दुर्भिक्ष आदि का स्थायित्व दिखाई देने लगा। आजादी के तुरन्त बाद के विकट समय में सन् 1950-60 के दशकों में अमेरिकी नीतिज्ञों को विश्वास था कि हिंदुस्तान की समूची व्यवस्था पर पीएल-480 के माध्यम से काबिज हो जाएंगे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिका के सहयोग से हरित क्रांति का नारा लगाया और पीएल-480 की योजना को ध्वस्त कर दिया। यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं थी। 1500 अमेरिकन नीति विचारकों ने हरित क्रांति को ही अपना औजार बना लिया, तो प्रत्युत्तर में अगले बीस बरसों में हिंदी किसान ने स्वयंमेव भारतीय पारंपरिक कृषि के प्रयोग शुरू कर दिए।

आज देश भर में हजारों-लाखों किसान निजी स्तर पर तरह-तरह के प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन हमारे देश का शहरी शिक्षित तबका, अग्रणी समाज नेता, राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, आधुनिक साईंटिस्ट, टैक्नोक्रैट आदि पश्चिम सभ्यता के गुलाम बन गए हैं। आधुनिकतावादी राष्ट्रप्रेमी है उनका भी विश्वदृष्टिकोण अमेरिकी सहज बुद्धि मानस से कुछ भिन्न नहीं। यही वजह है कि हिंदुस्तान में आईआईटी जैसे संस्थान और सरदार सरोवर और टिहरी बांध जैसी राष्ट्र विरोधी योजनाएं लागू होती रहती है।गंगा जमुना के दोआब में तो अनेक छोटे-बड़े किसानों को यह तथ्य समझ में आ गया है कि गन्ना और चावल की खेती लाभ का धंधा नहीं है। आज देश भर में हजारों-लाखों किसान निजी स्तर पर तरह-तरह के प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन इन पचास बरसों में हमारे देश का शहरी शिक्षित तबका, अग्रणी समाज नेता, राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, आधुनिक साईंटिस्ट, टैक्नोक्रैट आदि पश्चिम सभ्यता के गुलाम बन गए हैं। इनमें जो नेक, ईमानदार और राष्ट्रभक्त आदि हैं वह तो उस खेमे में शामिल रहते ही हैं। लेकिन जो आधुनिकतावादी राष्ट्रप्रेमी है उनका भी विश्वदृष्टिकोण अमेरिकी सहज बुद्धि मानस से कुछ भिन्न नहीं। यही वजह है कि हिंदुस्तान में आईआईटी जैसे संस्थान और सरदार सरोवर और टिहरी बांध जैसी राष्ट्र विरोधी योजनाएं लागू होती रहती है।

आधुनिकतावादी पाठक के लिए आईआईटी संस्थानों के 95 प्रतिशत स्नातक तो अमेरिका की सेवा करने चले जाते हैं, जो पांच प्रतिशत हिंदुस्तान में बच जाते हैं वह या तो साबून बेचते हैं, या मुनीमी या बाबूगिरी करते हैं। प्रतिभा पलायन (ब्रेनड्रेन) पर फैशनेबुल चर्चा तो चार दशक से चल रही है, लेकिन सत्य का सामना करने से हमें काफी डर लगता है। प्रतिभा निर्माण क्या और कैसे हो और किसके लिए हो, इस विषय पर हमारे आधुनिकतावादी नेतृत्व का विचार करना ही नहीं आता।

गौरतलब परिस्थित है कि गंगा जमुना का दोआब दुनिया की सर्वोत्तम जमीन है। इस क्षेत्र का किसान पिछले 30 बरस से दरिद्रता के दुष्चक्र में उलझता जा रहा है। इस क्षेत्र का किसान पिछले पन्द्रह बरस से लगातार गुहार कर रहा है कि उसकी समस्याओं को समझने और निराकरण का प्रयास किया जाए। लेकिन हमारे पास कोई समझ आज उपलब्ध नहीं है कि आधुनिक या सांइटिफिक कृषि के विकास के साथ-साथ अलाभकार जोत का विकास क्यों हो रहा है? किसान की समस्याओं को समझे बिना तो पानी पर कोई संवाद दिखाई नहीं पड़ता। नहर+ट्रैक्टर+ हरितक्रांति के विशिष्ट/संयुक्त प्रभावों का अध्ययन किसानों के अनुभव से सीखना होगा। उनके सुख-दुख से जुड़ कर ही उस सत्य को तलाशना होगा जिसके आधार पर भारत सरकार की सम्मति की राह चलने की सद्बुद्धि जाग्रत की जा सकेगी।

आज उस मानस के सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता है जिसके प्रभाववश हिंद देश की पवित्र गंगा को सहज ही नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा है। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि 18वीं सदी तक हिंदुस्तान सोने की चिडि़या क्यों कहलाता था। लोक विद्याओं की विशद परंपरा तो अपनी जगह है ही लेकिन इस देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कृति और कर्मकांड, मिट्टी, पानी और वनस्पति से जुड़े हुए हैं। भारत देश में समाज, सभ्यता, संस्कृति और अकूत संपदा का निर्माण जल-जंगल-जमीन के वैदिक विज्ञान को विस्तार देकर ही हुआ था। आज भी इसके अतिरिक्त दूसरा रास्ता नहीं। हिंदुस्तान की एक-डेढ़ अरब जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध कराना स्वछन्द नदी की अविरलता के स्थायीकरण से ही संभव होगा। किसी भी अन्य रीति से इतने व्यापक स्तर पर निर्मल जल व्यवस्था असंभव है।

भारतीय धर्म व्यवस्था में सरस, निर्मल, पतित-पावन जल की अजस्र धरा को ही सरस्वती कहा गया है। सरस्वती की वैदिक स्तुति में यह स्पष्ट है कि निर्मल जल समस्त जीवन एवं सृष्टि की स्मृति, विद्या, स्वास्थ्य, स्फूर्ति आदि का कारण स्रोत है। सरस्वती का मूल अर्थ निर्मल जल की अजस्र धारा है। यही अजस्र धारा शास्त्रीय स्मृतिकार एवं समस्त विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भी है। यह अनुभव जन्य सिद्धांत है - निर्मल जल के दर्शन/स्पर्श से स्फूर्ति एवं चेतना स्वतः प्रवृत होती हैं। जलोपचार की पद्धति न आश्चर्य है न चमत्कार, जल की सहज प्रवृत्ति है। जल की किसी भी अजस्र धारा में सरस्वती की अंतरधारा सदैव विद्यमान है - प्रवाहित है। सरस्वती की सगी बहन लक्ष्मी भी जल, जलचर और उसके शब्द से उत्पन्न माया की पर्याय है - उससे किसी भी स्तर पर भिन्न नहीं। लक्ष्मी रूप जल ही माया है। महानदी गंगा ही लक्ष्मी का मूर्त रूप है। हिंदू जो विशुद्ध उच्चारण में सिंधु है वह भी जल की प्रवृत्तियों और चरित्र का पर्याय है। ।

सिंधु की वृहद परिभाषा वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध है। राम जब सीता की खोज में समुद्र के पार वाली लंका में जाना चाहते हैं। तब सिंधु राम संवाद होता है जो अपने आप में पर्यावरण शास्त्र का मौलिक आख्यान है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य जो सर्वदा याद रखना होगा कि हिंदुस्तान की समस्त आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था की संरचना, मिट्टी, पानी और वनस्पति की ईश्वर सदृश पूजा-आराधना में निहित है। जल, मिट्टी और वनस्पति से संबंधित विद्या को तीर्थ विज्ञान भी कहते हैं। इसी तीर्थ विज्ञान का एक महत्वपूर्ण भौतिक पक्ष यह है कि भारत की सजलता और जलवायु की आर्द्रता, अनेक स्थानीय विशिष्टताएं - जिनमें थार मरुस्थल जैसे सूखे पर्यावरण भी सम्मिलित है मिल कर निर्मित करती है।

भारत का मानसून एक ऐसी संपूर्ण जल चक्र की व्यवस्था है जिसमें 100 मिली मीटर वर्षा वाले जैसलमेर से लेकर 12000 मिली मीटर वाला चेरापूंजी सम्मिलित था (आज तो हमने आधुनिक साइंस के गरुर में इस व्यवस्था को नष्ट कर दिया है) लेकिन आधुनिक साइंस में यह क्षमता नहीं है कि वह यह निर्धारित कर सके कि अचानक आषाढ (मध्य मई के लगभग) में क्यों यह समुद्री हवाएं हिंद महासागर में उठती है फिर 2000 मील लम्बे हिमालय, हिंदुकुश तक फैल जाती हैं और फिर 60 से 100 दिन तक कहीं कम कहीं ज्यादा बरसती, छिटपुट बरसात करती, अरब की खाड़ी तक चली जाती है, फिर वहां से एकदम शुष्क होकर लौटती है, लेकिन हिंदुस्तान पहुंचते-पहुंचते इतनी नमी धारण कर लेती कि हिमालय में बर्फ बरसाती, उत्तरी भारत में सर्दी की मावट करती और फिर बंगाल की खाड़ी से प्रचुर मात्रा में जल उठा कर पूर्वी दक्षिण भारत में वर्षा आयोजित करती हैं। प्रकृति की इस अत्यंत गूढ़ एवं रहस्यमयी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए लाखों-करोड़ों बरसों के अनुभव जन्य ज्ञान से जो सामंजस्य भारतीय समाज ने स्थापित किया था उसी समस्त विद्या को इस देश में तीर्थ विज्ञान कहा गया। साइंस के प्रभाववश तीर्थ विज्ञान विस्मृत हो गया है यह बात आसानी से समझ में नहीं आती है।

तीर्थ विज्ञान की मान्यतानुसार जैसे भूलोक समुद्रवसना है ठीक वैसे ही ब्रह्मांड भी जलयुक्त है। इसीलिए हिंदू शास्त्र में ब्रह्मांड को आकाश गंगा कहा गया है। समस्त जल अंतरिक्ष में निर्मित जीवन तत्व है, इसीलिए ईश्वर रूप है। जल की पवित्रता का यही आधार है कि उसकी नियमित आपूर्ति द्युलोक से होती है इसीलिए समस्त जल पूजनीय है और समस्त नदियां गंगारूप है। वैदिक संस्कृति का पालन करने वाले भारत देश में जलयुक्त प्रत्येक स्थान (घर परिवार में घड़ा/कलश रखने के स्थान से लेकर कुंड, कुएं, जोहड़, बावड़ी, तालाब, नदी, नालों और समुद्र के किनारों तक) पवित्र तीर्थ है। अपने देश में एक नही सैकड़ों गंगा है। समस्त पवित्र जल देवलोक से आता है और देवलोक को जाता हैं। लेकिन जहां र्साइंटिस्ट, जल संवाद की शुरुआत इस तथ्य से करते हैं कि कितना पानी समुद्र में व्यर्थ जा रहा है। प्यासी धरती को सजल बनाने के लिए इसका उपयोग तो होना ही चाहिए, वहां के साईंटिफिक टैम्पर को तो ठीक से समझना पड़ेगा।

समस्त संस्कारों और शुभ कार्यों में जल यानी वरुण देव का साक्षी अनिवार्य है, क्योंकि जल की स्मृति दोष रहित है वरुण सृष्टि के आदि स्मृतिकार है। यह सहज स्वभाविक है कि जल को ईश्वर मानने वाले देश में समस्त नदियां गंगा का प्रतिरूप है और महानदी गंगा की तरह आराध्य मातृ-देव रूप में प्रतिष्ठित है। गंगा माता अपनी अनेक विलक्षणताओं के कारण पृथ्वी पर समस्त जल और जल-धाराओं का पूंजीभूत रूप है। वही नर्मदा है, वही कावेरी, वही ब्रह्मपुत्र है, वही गोदावरी। भारतीय धर्म संस्कृति में भौतिक जीवन और अध्यात्म में अभेद है, गंगा इसी अभेद का मूर्तिमान रूप है। गंगा नदी की अवधारणा में अध्यात्म और भौतिकता/एहिकता शिव-पार्वती, राम-सीता, राधा-कृष्ण की तरह अभिन्न है। गंगा एवं समस्त नदियों की भौतिक पवित्रता उनकी तथा समाज की आध्यात्मिक चेतना और पुण्य भावना को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है, ठीक उसी तरह जैसे कि गंगा और समस्त जल धाराओं की आध्यात्मिक शक्ति समाज एवं जल की भौतिक निर्मलता के लिए आवश्यक है। भौतिकता और अध्यात्म की यह अभिन्नता उस त्रिवेणी सभ्यता (गंगा, जमुना, सरस्वती) की प्रतीक है जिसकी अनुपालन के फलस्वरूप भारत भूमि को आज से 300 बरस पूर्व तक सोने की चिडि़या कहा जाता था। हमारी विस्मृति ही हमारे दारिद्रय भाव का कारण और लक्षण है।

आज सिर्फ हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया के प्रत्येक इंसान को यह तथ्य ठीक से समझ लेना होगा कि नव-साम्राज्यवाद की कार्यसूची में हिंदुस्तानी सोने की चिडि़या की गुलामी सर्वोपरि प्राथमिकता है। अकेला हिंदुस्तान दुनिया की भूख का निवारण कर सकता है और शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के लिए भी पर्याप्त सेवाएं उपलब्ध करा सकता है। यानी जब तक हिंदुस्तान की प्राकृतिक क्षमता और आध्यात्मिक चेतना शेष है तब तक समूची दुनिया को एकमुश्त गुलाम बनाना संभव नहीं। इसलिए इस बार हमला हिंदुस्तान के मिट्टी और पानी के खिलाफ है। छप्पन खरब रुपए की लागत वाली विशालतम नदी जोड़ों योजना बनाई गई हैं। चाहे जिसने बनाई हो, यह योजना भारत की समस्त नदियों के विनाश की योजना है। इस योजना के माध्यम से समस्त नदी प्रणाली का विनाश हो जाएगा जैसा कि गंगा का हुआ है, और जो पानी विशाल बांधों में नियंत्रित होगा उस पर उन देशों या कंपनियों का कब्जा होगा जो उसके निर्माण की लागत जुटाएंगी और भारत के नागरिक और किसान को एक-एक बूंद पानी खरीदना पड़ेगा।

भारतीय मानसून में सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म स्थानीय परिस्थितिकी समग्र मानूसन चक्र की सूत्रबद्ध कड़ी है। उपलब्ध आर्द्रता/शुष्कता के यथोचित सदुपयोग का विधान है। उससे अन्यथा छेड़-छाड़ की अनुमति नहीं है। पश्चिमी राजस्थान की कहावत है कि मारवाड़ में बारिश गऊओं के भाग की होती हैं - यानी कम वर्षा के क्षेत्र में कृषि का विस्तार करेंगे तो पर्यावरण की अपूरणीय हानि हो सकती है। किसी भी पर्यावरणीय क्षेत्र में अनियमित छेड़-छाड़ समस्त मानसून प्रणाली के चक्र को बाधित करती है। प्रकृति ने कम-ज्यादा, ठंडा-गर्म, गीला-सूखा आदि की जो व्यवस्थाएं कायम की हैं - इंसान को उन सीमाओं में रह कर ही जीवन प्रणाली आयोजित करनी होगी। प्रकृति से यह मांग नहीं की जा सकती कि वह कन्याकुमारी में भी माउंट एवरेस्ट की हवा चलाए या गोआ में कश्मीर का मौसम उपलब्ध करवाए - इसी तरह यह मांग भी अवैज्ञानिक है कि दिल्ली की प्यास बुझाने के लिए हिमालय का पानी उपलब्ध करवाया जाए।

आधुनिक साइंस की आंतरिक नैतिकता पर चिंतन की शुरुआत अभी हुई नहीं है क्या समचुच हमें यह नहीं मालूम कि समूचे हिंदुस्तान में समान आर्द्रता की इच्छा का स्रोत कौन सी ज्ञान मिमांसा से उपजता है? ऐसी वैचारिक सादगी आधुनिक साइंस में ही संभव है। प्रकृति में विविधता और वैविध्य का विधान-नियम क्यों बना - इस सूत्र पर आधुनिक विमर्श अत्यंत अल्प और अपर्याप्त है। इस नियमावली से परिचय सिर्फ हिंदू कर्म कांड के माध्यम से ही सीखा जा सकता है।

Diversity और Bio-diversity पर चर्चा तो दस बीस बरस से जरूर होने लगी है लेकिन आधुनिक साइंस वैविध्य विज्ञान की पर्याप्त समझ से सदियों दूर है। दरअसल सरल बात ही कठिन पहेली होती है। युगों पूर्व यह सत्य कहा गया था बहता पानी निर्मला यानी पानी का परिशोधन ऑक्सीजनीकरण जल और वायु के गतिशील घर्षण से होता है। इसी सरल अनुभव के आधार पर तीर्थ विज्ञान का यह विधान विकसित हुआ कि नदियों का वेगवती रूप अक्षुण बनाए रखना अनिवार्य है। महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को उपदेश सुनाया है :

इत्येता सरित राजन् समाख्याता यथास्मृति।

हे राजन। भूमि का जन्म नदियों की कोख से होता है। इनके समकक्ष कल्याणदायी दूसरा नहीं है। नदियों की समुचित रक्षा राजा का धर्म है। अंतरिक्ष में उत्पन्न जीवन तत्व सर्वत्र उपलब्ध है - ग्रहण करने के लिए उपयुक्त पात्र की समझ होनी आवश्यक है। उत्तम श्रेणी का गेहूं तो ओस की सिंचाई पर ही निर्भर है। इसी कृषि शास्त्र का नाम हिंदू-धर्म है। नदियां हिंदू धर्म की अंतरधारा है। अरण्य-आधारित ऋषिकृषि धर्मिक कर्मकांड है।

नदी-जोड़ो योजना की प्रस्तावित या अनुमानित लागत 56 खरब आंकी गई थी। वह योजना पूरी होते-होते 300 खरब तक पहुंच जाएगी। यह तथ्य पिछले पचास बरस के अनुभव पर आधारित है। इस कुल व्यय में से पांच-दस खरब रुपया उन राजनेताओं, नौकरशाहों और साईंटिस्टों को मिल जाएगा जो इस योजना को लागू करवाने में सहयोग कर रहे हैं। यह मामूली दलाली नहीं है। यह दलाली दो अरब डालर से उपर बैठती है। किंतु हिंदुस्तान की जमीन और तहजीब को गिरवी रखने के लिए यह रकम सचमुच बहुत छोटी है। यह एक ऐसी योजना है जिस पर र्साइंटिफिक समाजवादी, अन्य इहलोकवादी, तरह-तरह के अनुदारवादी और नव हिंदुत्व वादी एकमत है। कहीं कोई मतभेद नही।

आधुनिक साइंस वादियों में एक तबका सुधार वादियों का है - उनका विश्वास है कि साइंस का दुरुपयोग, व्यक्तिवादी विकृत्ति है और सच्ची साइंस के प्रचार-प्रसार से इसमें सुधार किया जा सकता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि साइंस की समस्याएं साइंस स्वयं दुरूस्त करेगी। यह सहज स्पष्ट है कि इस योजना की विशेषताओं-विशिष्टताओं की सूची हनुमान जी की पूंछ की तरह विशाल है। दलाली की रकम अमेरिका और स्विटजरलैंड आदि में जमा करवा दी जाएगी - सब काम वैसी ही सुरुचिपूर्ण कार्य संस्कृति से होगा जैसा कि दिल्ली मैट्रो का चल रहा है। जो जमीन उपलब्ध करायी गई है वह और उस समस्त मेट्रो संपत्ति पर कब्जा उन विदेशी संस्थाओं का होगा जिसने इस मेट्रो का निर्माण किया है या पैसा उधार दिया है। भारत देश की नदियों पर जो विशाल जलाशय बनेंगे उनकी मलकियत उन्हीं संस्थाओं की होगी जो उनकी लागत का ऋण उपलब्ध करा रही है या कराएंगी।

कृषि के लिए कोई लि़ट कनेल आज तक सफल नही हुई, किन्तु शहरी जलापूर्ति के लिए इस तरह की योजना का छोटा-मोटा उपयोग ही हो जाता है। वही सफलता इस योजना की भी होगी। हिन्दुस्तान में दो-चार नहीं दस-बीस हजार लौकिक विद्वान आज अवश्य मौजूद है जो इस उन्मादी महत्वाकांक्षा के हानि-लाभ की विस्तृत एवं सटीक व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं कर भी रहे हैं। कोसी, नर्मदा, टिहरी, भाखरा-नंगल, दामोदर घाटी, सोन-पम्प नहर और इन सबसे सौ सवा सौ बरस पहले निर्मित केनाल कालोनीज स्यालकोट, मोन्टागोमरी और दूर न जाए गंगा-यमुना के नहरी क्षेत्र का ही अध्ययन देख लें। विश्वभर में सैकड़ों अनुभवों की विस्तृत एवं अधिकृत रपटें उपलब्ध हैं और देखी जा सकती है। जिस टैनिसी वैली विकास परियोजना के आधार पर समस्त विश्व में नहरी आधुनिक पूंजीवादी कृषि, जल, विद्युत उद्योग की पंरपरा का विकास हुआ वह समस्त योजना खारिज की जा चुकी है। एक दशक से तो टैनिसी वैली योजना को उखाड़ने की तकनीकी और योजना पर काम भी हो रहा है।

अलवर जिले में 1992 की बाढ़ का प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल का अध्ययन उपलब्ध है। लेकिन उन्हीं के गुरु डॉ. सिंह का कहना है कोई वैज्ञानिक इंजीनियर बांधों का विरोध कैसे कर सकता है? बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हिमाचल आदि में जो संघर्ष कोशी, गंगा, नर्मदा, टिहरी आदि के विरोध में साथी अनिल प्रकाश, इंजीनियर डीके मिश्र, मेधावी बहन मेधा पाटकर, सुंदरलाल बहुगुणा, पांडुरंग हेगड़े आदि के नेतृत्व में पिछले डेढ़-दो दशक से चल रहे हैं उनकी जानकारी भी पूरे देश को है। विकल्प के संदर्भ में सवाल उठता है तो भाई अनुपम मिश्र की पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब के साथ-साथ मैग्सेसे अवार्डी राजेन्द्र सिंह और उनके संगठन - तरुण भारत संघ द्वारा किया गया राजस्थान के सरिस्का और थाना गाजी क्षेत्र प्रयोग और उसकी सफलता हमारे सामने है। हिमालय में भारती के दूधातोली प्रयोग की सफलता भी असाधारण है। विचारणीय मुद्दा यह है कि इन प्रयोगों और समस्त आंदोलनों की सम्मिलित ऊर्जा आज तक के संदर्भ में आवश्यक सुधार के लिए अपर्याप्त सिद्ध है।

पहला महत्वपूर्ण तथ्य यही है कि हम ठीक से यह जान लें, समझ लें, विचार विमर्श कर लें कि बांध, नहर, जल विद्युत और नहरी खेती की बाढ़ को रोकने के लिए हमारे अभी तक के आधुनिक लौकिकतावादी प्रयास अत्यंत अल्प एवं अपर्याप्त क्यों है? सन् 1850 के आसपास तक दिल्ली क्षेत्र में अरावली श्रृंखला के पूर्व में माल रोड सिरे से तुगलकाबाद छोर तक लगभग डेढ़ दर्जन सरस्वतियां प्रवाहित होती थीं। यह कहां लुप्त हो गई? पश्चिमी ढाल का पानी भी शायद नजफगढ़ धारा से दिल्ली पहुंचता था इस सब पानी का अब क्या होता है? गंगा यमुना का तो अस्तित्व ही नहीं बचा। सवाल यही है कि साइंसनिष्ट सुधार वादियों को इस इतिहास की समझ क्यों नहीं है? इन ऐतिहासिक समस्याओं के कारण-निवारण का सिद्धान्त कैसे और किन मान्यताओं के आधार पर विकसित होगा? इस प्रश्न का उत्तर तो देना ही पड़ेगा कि हिमालय और गंगा के सूखने का आधुनिक साइंस से संबंध है या नही?

साइंस की विकास धारा में सुधार का आंदोलन 100 बरस पुराना तो जरूर है लेकिन यह तथ्य तो सिरे से भूला दिया गया है कि दिल्ली की 18 नदियां और 18000 कुएं, बावड़ियां, ताल-तलैयां कब और कहां लुप्त हो गए? साइंस का विचार शुद्ध ज्ञान की पद्धति है या सपनों की भूल-भुलैया जिसमें गंगा, जमुना जैसी विशाल नदियों के खो जाने की भनक भी सुनाई नहीं पड़ी। भूल का मूल इसी तत्व में निहित है कि साइंस प्रचुरता से बहुत अधिक उत्पादकता के वायदे पर टिकी है। साइंस के इस वायदे का सत्य परखा जाएगा तो साइंस और आधुनिकता का आधार ही खिसक जाएगा, क्योंकि मानवता तो न्याय के सिद्धान्त पर खड़ी होती है और साइंसनिष्ट आधुनिकता का न्याय तो प्रचुरता के वायदे में समाहित है उसकी अन्य कोई नैतिकता नहीं है। एटम बंब का निर्माण इस सत्य का प्रमाण है।

दिल्ली में 25 से 40 इंच; 600 मिमी से 1000 मिमी बरसात होती है। दिल्ली-अरावली का क्षेत्रफल 100 वर्ग किलोमीटर के लगभग है। इस विशाल स्रोत के सूख जाने का कोई वैचारिक धरातल है या नहीं? इसलिए पहला कदम यही है कि लौकिकतावादी साईंटिफिक पंरपरा का व्यापक विस्तार हो। इस सुझाव का गंभीरता से अध्ययन करना होगा कि वैदिक विज्ञानवादी पंरपरा (जिसकी छिटपुट चर्चा इस आलेख की बुनावट में की गई है।) को एक नई स्वदेशी आधुनिकता का आधार बनाया जा सकता है या नही? एक महत्वपूर्ण विचारणीय मुद्दा यह भी है कि क्या हम लोग विवेक आधारित संस्कारनिष्ठ विज्ञान की मान्यताओं (रुढि़ इत्यादि) से जुड़े बिना इस देश की बहुतायात आबादी से संवाद कर सकेंगे?

इससे आगे बढ़ कर इस मुद्दे पर भी विमर्श खड़ा करना होगा कि हिंदी, हिंदू, हिंदुत्व की विशाल, विस्तृत और लंबी पंरपरा में आध्यात्मिक चेतना शक्ति, प्रेम, आध्यात्मिक विद्रोह, सर्वधर्म समान भावना, सत्याग्रह, असहयोग, स्वदेशी आंदोलनों की संस्थाएं जो सदैव से उपलब्ध हैं उनका वर्तमान परिस्थिति में उपयोग और विस्तार संभव है या नहीं? हिंदू या हिंद स्वराज के नाम से महात्मा गांधी द्वारा जारी एक घोषणा-पत्र भी उपलब्ध है। घोषणा-पत्र का जिक्र हुआ तो याद आया कि 1857 में हिंदुस्तान के अनेक राजा महाराजाओं ने शहंशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में भी दो घोषणा-पत्र जारी किए थे और सिख गुरुओं की परंपरा में बरसों चलने वाली लड़ाई का सूत्रपात किया था वह एक असाधारण युद्ध था। उसका स्वाद चख लेने के बाद ही श्वेत फिरंगी ने हिंदी-हिंदू को गोरा जैसा सभ्य बनाने का संकल्प त्याग दिया था और सौ दो सौ बरस में हिंदुस्तान से अपना बोरिया-बिस्तर समेट लेने का मन बना लिया था (पिफलिफ मैसन - दी मैन हु रूल्ड इंडिया)।

जिस समय पूरा बंगाल 19वीं सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम की हवा में बहा जा रहा था तो स्वामी रामकृष्ण परमंहस ने आध्यात्म की शक्ति चेतना का व्यापक प्रयोग किया था। नाना पेशवा, बहादुरशाह जफर, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, गांधी के वंशजों ने इन समृद्ध पंरपराओं का विद्रूपीकरण भी किया है वह भी हमारे सामने है। इसलिए विस्तार से यह समझना होगा कि इस पंरपरा को पुनः समृद्ध करने की क्या प्रक्रिया होगी। संक्षेप में गोरे फिरंगी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लंबी चली पहली लड़ाई ‘1857 से 1947’ का अनुभव हमारे पास है। सन् 1947 में हिंदुस्तान आजाद हुआ तो पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद की शिकस्त हो गई थी। वह शिकस्त आधी-अधूरी सिद्ध हुई क्योंकि हमने महात्मा के घोषणा-पत्र को ही भूला दिया। क्या उस घोषणा-पत्र को लागू किया जा सकता है?

पानी की समस्या जल संरक्षण की नहीं हिन्दुस्तान के ड्रेनेज के समुचित उद्धार की है। ड्रेनेज का संबंध सिर्फ नदियों के प्रवाह से नहीं है बल्कि भूजल के सही/उचित स्तर से भी है। भारत में भूजल प्रबंधन के लिए देश भर में लगभग 25 लाख तालाब, बावड़िया, झील, कुण्ड आदि की व्यवस्था थी। आज यह समस्त व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट है। अधिकांश तालाबों के जमीन पर आम जनता का कब्जा है। उन पर घर या कोई सड़क जैसा लोक उपक्रम निर्मित हो गया है। इनमें से कुछ कब्जे विशिष्ट जन के भी है। किसी को भी सहज भाव से बेघर करना आसान नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी कर सकता है। लेकिन अपने आदेश को लागू नहीं कर सकता। ऐसे न्यायपूर्ण आदेश को जबरिया लागू करवा भी दिया तो समाज में बड़ी टूट हो जाएगी। फिर स्वयं सरकार द्वारा ड्रेनेज को अत्यंत व्यापक स्तर पर अवरुद्ध किए जाने की समस्या भी हमारे सामने है। भाखरा, टिहरी और सरदार सरोवर को तोड़ने के लिए कौन राजी हो जाएगा? इन सबको तोडेंगे नहीं तो हिंदू सभ्यता का क्या होगा? हिंदू की नदी गंगा माता ही नहीं होगी तो हिंदू के लिए स्थान कहां होगा। किसी तरह भी समस्या पर विचार करें आध्यात्मिक चेतना के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता उपलब्ध नहीं है। आध्यात्मिक शक्ति के माध्यम से तो यह प्रयास किया जा सकता है कि गंगा मां सभी को सद्बुद्धि का वरदान दें। व्यक्ति/समूह/संस्था चाहे इधर हो या उधर हों सभी को दुराग्रह से मुक्त करें। जो योद्धा आध्यात्म बल से परिपूर्ण होते हैं, वहीं अंतिम प्राण तक संग्राम में डट पाते हैं। आध्यात्मिक चेतना होगी तो संवाद होगा वर्ना हुज्जत के अलावा और कुछ न होगा।

नव साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई उन्हीं हथियारों से लड़ी जानी है जिनका विकास हिन्दुस्तान में 1857 से 1947 के बीच हुआ है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस और मोहनदास करमचंद गांधी के संयुक्त घोषणा-पत्र और रण-कौशल में वह अनोखी सामर्य्म दिखाई पड़ती है जिसके बलबूते साम्राज्यवादी घोड़े की लगाम पकड़ कर उसका मुख उसके अपने घर की तरफ मोड़ा जा सकता है। इस संग्राम का प्रथम युद्ध क्षेत्र गंगा जमुना का दोआब है। साइंस साम्राज्यवाद ने गंगा जमुना पर गंभीर हमला बोला है। इस हमले का माकूल जवाब देकर ही साइंस साम्राज्यवाद के विरुद्ध मुक्ति संग्राम की शुरुआत की जा सकती है।

पहला कदम आध्यात्म चेतना का है। अपने स्थानीय क्षेत्र की समस्त जल संस्थाओं (तालाब, कुंए, कुंड आदि) का पुनः निर्माण शुरू करें। राष्ट्र संकल्प करें कि गंगा का पुनः अवतरण होगा और विश्व की सभी नदियां अविरल बहेगी। देश ऋषि-कृषि की परंपरा की तरफ लोटेगा। प्रत्येक हिंदी, हिंदू, हिंदुत्ववादी को नकली, ढोंगी या टोढ़ी हिंदुत्व के खिलाफ जंग का ऐलान करना ही होगा। गंगा माता की पवित्रता की लड़ाई जीवन तत्व की लड़ाई है। अध्यात्म और ऐहिक जीवन की एकात्मकता, अभिन्नता को अक्षुण बनाए रखने की लड़ाई है।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हैं।)

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