जल संकट के निदान हेतु जरूरी है जल की निगरानी (World Water Monitoring Day 2017)

विश्व जल निगरानी दिवस, 18 सितम्बर 2017 पर विशेष


पानीपानीबीते दिनों संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुंतारेस ने सुरक्षा परिषद में कहा कि दुनिया में सभी क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता को लेकर तनाव बढ़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से एक चौथाई देश अपने पड़ोसियों के साथ नदियों या झीलों के पानी को साझा करते हैं। इसलिये यह जरूरी है कि राष्ट्र पानी के बँटवारे और दीर्घकालिक इस्तेमाल को सुनिश्चित करने के लिये सहयोग करें।

यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि वर्ष 2050 तक समूची दुनिया में साफ पानी की माँग 40 फीसदी तक और बढ़ जाएगी। उन्होंने चेतावनी दी कि दुनिया की आबादी का एक चौथाई हिस्सा ऐसे देशों में रहेगा जहाँ साफ पानी की बार-बार कमी होगी। जलवायु परिवर्तन से पानी की किल्लत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, यह सबसे बड़ी चिन्ता का विषय है।

दरअसल पृथ्वी पर पानी का होना ही जीवन के उदय का कारण है। जब तक पानी रहेगा, जीवन रहेगा। यह कटु सत्य है कि पानी एक ऐसा अनिवार्य रसायन है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। समस्त पृथ्वी पर यदि विहंगम दृष्टि डालें जो पता चलता है कि पृथ्वी की सतह के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का 20.1 फीसदी प्रायद्वीपीय धरातल है और शेष 70.9 फीसदी सागरों का आधिपत्य है।

पृथ्वी पर कुल जल का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि कुल जल का 97.3 फीसदी खारा जल है और पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का केवल 2.07 फीसदी ही शुद्ध जल है जिसे पीने योग्य माना जा सकता है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो दुनिया के दो अरब लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता जिससे उन्हें हैजा, आंत्रशोध आदि जानलेवा बीमारियों के होने का खतरा रहता है।

जहाँ तक हमारे देश का सवाल है, यहाँ 6.3 करोड़ लोगों जो सुदूर ग्रामीण इलाकों में वास करते हैं, को पीने का साफ पानी भी मयस्सर नहीं है। इसका मुख्य कारण बढ़ती आबादी तो है ही, पानी की माँग में हो रही दिन-ब-दिन बेतहाशा बढ़ोत्तरी, भूजल स्तर में कमी लाने वाली कृषि पद्धतियाँ, उसका प्रदूषित होना और सरकारी योजनाओं के अभाव के चलते पानी की उपलब्धता का प्रभावित होना है। नतीजतन जानलेवा बीमारियों के साथ-साथ कुपोषण के मामलों में भी दिनोंदिन हो रही बढ़ोत्तरी हालात की गम्भीरता के संकेत हैं। यही नहीं देश की 23 करोड़ आबादी पानी में नाइट्रेट की बढ़ी हुई मात्रा के कारण खतरे में है।

सरकार भले इस तथ्य को सिरे से खारिज करे लेकिन असलियत यह है कि इसके चलते लोग पेट के कैंसर, केन्द्रीय स्नायु तंत्र और दिल की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। इसके अलावा नाइट्रेट का जहर बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम जैसी जानलेवा बीमारी को जन्म दे रहा है। इन बीमारियों का प्रकोप अधिकांशतः उन जगहों पर ज्यादा होता है, जहाँ के लोग पीने के पानी हेतु भूजल पर ज्यादा आश्रित हैं। इनमें देश के नौ राज्यों जिनमें बिहार, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश की तकरीबन 13,958 बस्तियाँ शामिल हैं, का भूजल प्रदूषित है और यहाँ अत्यधिक उर्वरकों के इस्तेमाल ने भूजल की तस्वीर बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाई है।

हमारे यहाँ मौसम की बिगड़ी चाल के चलते समय से वर्षाचक्र अत्यधिक प्रभावित हुआ है। इसमें ओजोन परत का क्षय अहम कारण है। इससे जहाँ कृषि क्षेत्र प्रभावित होता है, वहीं सिंचाई सुविधा भी आवश्यकता के हिसाब से परिस्थिति के अनुकूल नहीं हो पाती। नतीजतन खाद्यान्न उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वर्षा की कमी का सीधा प्रभाव हमारे प्राचीन पारम्परिक जलस्रोतों यथा- तालाबों, पोखरों, कुओं, नदियों आदि पर पड़ता है।

सबसे बड़ी बात यह कि आज हमारे पारम्परिक जलस्रोतों के मृतप्राय होने के पीछे हमारी उदासीनता कहें या स्वार्थ सबसे बड़ा प्रमुख कारण हैं। हमने उनके रख-रखाव, देखभाल, संरक्षण के दायित्व से मुँह मोड़ लिया। जबकि पहले यह दायित्व समाज का होता था जिसमें राज की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती थी। क्योंकि इनके निर्माण में राज, समाज और भामाशाहों का योगदान अहम था जो उसके स्थायित्व में बराबर सहयोग प्रदान करते थे। लेकिन आज उस भावना का ही लोप हो गया है। उस दशा में उनकी विलुप्ति स्वाभाविक है ही। आज स्थिति यह है कि पारम्परिक जलस्रोत इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं।

औद्योगिक रसायनयुक्त अवशेष और मानवीय स्वार्थ के चलते नदियाँ प्रदूषित हैं। गंगाजल आचमन लायक तक नहीं बचा है। फिर वर्षा के पानी का संग्रहण और संरक्षण कर पाने में हमारी नाकामी जगजाहिर है। जबकि देश के हरेक गाँव में अनुमानतः सालाना 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है। गाँव के लोगों के लिये पीने के पानी, सिंचाई व मवेशियों से जुड़ी जरूरतें इतने पानी से आसानी से पूरी की जा सकती हैं। गौरतलब है कि 1957 में योजना आयोग के अनुसार देश में 232 गाँव बेपानी थे लेकिन आज उनकी तादाद तकरीब दो लाख से भी ज्यादा है। इस बदहाली के लिये कौन जिम्मेवार है।

आज सर्वत्र देश में पानी के लिये हाहाकार है। लोग पानी के लिये तरस रहे हैं। देश के सुदूर ग्रामीण अंचलों में मीलों चलकर आज भी एक घड़ा पानी लाने के लिये महिलाएँ विवश हैं। कहीं लोग प्रदूषित कीचड़युक्त पानी पीने को मजबूर हैं, कहीं पानी के लिये लूट हो रही है तो कहीं लाठी-गोली चलती है। कहीं सत्याग्रह-आन्दोलन हो रहे हैं। विडम्बना यह कि इसके बावजूद पानी के लिये बरसों से राज्य झगड़ रहे हैं। दुख इस बात का है कि यह सब जानते समझते हुए भी पानी की बर्बादी जारी है। और जो कुछ भी पानी बचा हुआ है, उसको भी निहित स्वार्थ के चलते प्रदूषित किये जाने का सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा।

इस बारे में न सरकार और न समाज ही यह सोच रहा है कि आज से 13 साल बाद जब देश की आबादी दो अरब के करीब होगी, तब क्या होगा। आने वाले बरसों में पानी के लिये युद्ध की भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी है। इस आशंका के मद्देनजर इस बारे में बरसों से देश के जलविज्ञानी, भूजल वैज्ञानिक, जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद चिल्ला रहे हैं कि अब बहुत हो गया, अब तो चेतो। अब भी नहीं चेते तो विनाश अवश्यंभावी है। उसे रोक पाना किसी के बस में नहीं होगा।

आज जलवायु परिवर्तन से उपजे जल संकट को समझना और उसका निदान समय की महती आवश्यकता है। शायद यही वह अहम वजह है जिसके चलते देश में आज पर्यावरणीय लेखा द्वारा जल की निगरानी और अंकेक्षण प्रणाली की बेहद जरूरत महसूस की जा रही है। इसमें प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास, उनके आँकड़ों का संकलन, संचयन, नदियों की विलुप्ति के कारणों, उन पर आश्रितों के जीवन पर होने वाले प्रभाव, जल प्रदूषण के कारक और कारण, भूजल शोषण, अतिक्रमण, उनके निवारण, मूल्यांकन व हानि-लाभ के लेखे-जोखे के ब्यौरे की जानकारी अति आवश्यक है।

प्रशंसनीय है अब देश के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने विकास के नाम पर हुए प्राकृतिक विनाश का हिसाब लेने की शुरूआत की हैं। आशा है कि अब वह प्राकृतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक सूचकांकों के आधार पर नदी विनाश को रोकने वाली पर्यावरणीय लेखा प्रणाली को भी लागू करेंगे। यदि ऐसा होता है तो जहाँ पानी की समस्या का हल निकल सकेगा, वहीं असल में यह संवेदनशीलता नदी-जल, भूजल व झीलों के संरक्षण के प्रति एक नए युग का सूत्रपात करने वाली भी होगी। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading