जल संरक्षण हेतु वर्षाजल संचयन


जल विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि सन 2050 के आस-पास भारत के आधा दर्जन राज्यों को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। विशेषज्ञों ने यह चेतावनी भी दी है कि आगामी 50 वर्ष में भारत सहित कई देशों में जल के अभाव से विकास की गतिविधियाँ सीमित होकर रह जाएगी। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार 2050 तक पूरे विश्व की लगभग दो अरब की जनसंख्या को जल के भारी संकट का सामना करना पड़ सकता है। आज चालीस प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले 80 देश पानी की गंभीर समस्या की चपेट में हैं, जो एक भयावह त्रासदी हैस्वतंत्रता के समय जल की प्रतिवर्ष प्रति-व्यक्ति उपलब्धता 5000 घनमीटर थी, जो वर्ष 2000 में 2000 घनमीटर प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति हो गई तथा एक आकलन के अनुसार वर्ष 2025 में 1500 घनमीटर प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति होने की संभावना है। आज एक तरफ तो जल की मात्रा प्रतिव्यक्ति घटकर संकट के कगार पर पहुँच रही है, तो दूसरी ओर नहरी सिंचित क्षेत्रों में दीर्घकालीन व अवैज्ञानिक सिंचाई के कारण विभिन्न प्रकार की जल जनित समस्याएँ अपना विकराल रूप धारण करती जा रही हैं, जैसे- जल पलावनता, लवणीयता एवं क्षारीयता आदि विकसित होकर उपजाऊ भूमि को लीलती जा रही है।

प्रदूषण के प्रत्यक्ष कारण के अलावा जल संकट के कई महत्त्वपूर्ण अप्रत्यक्ष कारण भी हैं। देश के अधिकतर भागों में वर्षा का मौसम मानसून के दो महीनों तक ही सीमित रहता है। अतः वर्ष का अधिकतर भाग सूखा रहता है। इसके परिणामस्वरूप नदियों और झीलों में ताजे पानी की मात्रा बरसात के बाद क्रमशः घटती जाती है। इस कारण नदियों तथा जलाशयों की स्वतः शुद्धिकरण क्षमता कम होती जाती है। हमारे देश में एक आकलन के अनुसार लगभग 4000 घन किलोमीटर प्रतिवर्ष वर्षाजल गिरता है। इस जल का आधे से दो तिहाई भाग व्यर्थ ही बह जाता है।

द्रुत गति से बढ़ रही जनसंख्या की जलापूर्ति हेतु हम भूजल का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं तथा दुखद स्थिति यह है कि प्रतिवर्ष भूजल देश के अधिकांश भागों में एक से तीन मीटर नीचे जा रहा है, जबकि इसका पुनर्भरण उस अनुपात में नहीं हो रहा है। अतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दीर्घकालीन विकास हेतु यह नितान्त आवश्यक है कि हम प्रकृति प्रदत्त वर्षाजल का अधिकाधिक संचयन करें, भूजल का पुनर्भरण करें, कृषि एवं उद्योगों में जल की खपत को कम करें और हमारी जीवन शैली को इस प्रकार बदलें कि हम अपने दैनिक जीवन के क्रियाकलापों में जल उपभोग में मितव्ययता बरत सकें। इस दिशा में जल शिक्षा भी कारगर कदम हो सकता है। हमें किसानों को भी आधुनिक जल संरक्षण की सिंचाई विधियों तथा समुचित फसल चक्र अपनाने हेतु प्रेरित करना होगा।

देश के कई राज्यों में जल संचयन की पुरातन परंपरा रही है, विशेष कर राजस्थान प्रदेश तो इसका ज्वलंत उदाहरण है। वर्तमान में जल का समुचित प्रबंधन ही हमारी सभ्यता को जीवित रख सकता है। जल जैसे ज्वलंत एवं महत्त्वपूर्ण विषय पर जब तक इसके उपभोक्ताओं को यथेष्ट जानकारी अपनी मातृभाषा में नहीं मिलती, तब तक अपेक्षित लाभ की आकांक्षा भी नहीं की जा सकती है। हमारे उपनिषदों में उल्लेख है कि भूमि को जल चाहिए और जल को वन। इससे यह स्पष्ट होता है कि हमारे पूर्वजों ने भी जल की महत्ता को अच्छी तरह पहचाना था। जल संरक्षण का सरल उपाय है वर्षा द्वारा प्राप्त जल का संचय करना। वस्तुतः वर्षाजल को एकत्रित करना एवं उसके भंडारण की तकनीक को जल संचयन कहा जाता है। वर्ष के कुछ ही माहों में वर्षा होती है। अतः वर्षाजल को दीर्घकाल तक उपयोग करने के लिये इसे एकत्रित करना आवश्यक है।

वर्षाजल संचयन की आवश्यकता


इसकी आवश्यकता निम्न कारणों से होती है।

1. भूजल भंडारण में वृद्धि तथा जलस्तर में गिरावट पर नियंत्रण करने के लिये।
2. पानी का सतही, बहाव, जो अन्यथा नालों में भरकर रुक जाता है, को कम करने के लिये।
3. सड़कों पर पानी भरने से रोकने के लिये।
4. जल की उपलब्धता को बढ़ाने के लिये।
5. भूजल प्रदूषण को कम करने के लिये।
6. भूजल के अतिदोहन के कारण खाली हुए जलभृतों में पुनः जल भरने के लिये।
7. पर्याप्त पुनर्भरण की कमी वाले जलभृतों में जलापूर्ति में सुधार करने के लिये।
8. भूजल की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिये।
9. भविष्य में उपयोग के लिये अधिशेष जल को संचित करने के लिये।
10. तूफानी जल प्रवाह को रोकने तथा मृदा कटाव को कम करने के लिये।
11. भूस्खलन को रोकने अथवा बंद करने के लिये हाइड्रोस्टेटिक दबाव बढ़ाने के लिये।
12. तटीय क्षेत्रों में लवणता प्रवेश रोकने के लिये।
13. पुराने कुँओं और बोरवेल के साथ-साथ प्रचलनात्मक कुँओं को भी साफ करके पुनर्भरण संरचनाओं के रूप में प्रयोग करने के लिये।

भूजल स्तर में गिरावट के कारण


भूजलस्तर में गिरावट के निम्न कारण हैंः

1. देश में जनसंख्या की बढ़ी हुई जल की मांग को पूरा करने के लिये स्थानीय स्तर पर/व्यापक स्तर पर जल का अतिदोहन अथवा अत्यधिक जल निकासी।
2. जल के अन्य स्रोतों का उपलब्ध न होना जिसके परिणामस्वरूप भूजल पर पूर्ण निर्भरता।
3. जल की उचित मात्रा एवं निश्चित समय पर उपलब्धता की दृष्टि से अविश्वसनीय जलापूर्ति, जिसके कारण लोगों द्वारा अपनी संसाधनों की व्यवस्था करना।
4. तालाबों, बावड़ियों, टेकों आदि जल संचयन की प्राचीन संरचनाओं का उपयोग न करना।
5. खेती में पाताली पानी का बढ़ता उपयोग।

जल संचयन की विधियाँः


जल संचयन की प्रमुख विधियाँ हैंः 1. ऊपरी छत का जल 2. सतही अपवाह जल 3. भूमि के नीचे के जल का संचयन। ऊपरी छत से वर्षाजल संग्रहण तकनीक गिरते भूजल स्तर को बढ़ाने का कारगर कदम है। इसमें वर्षा के दौरान व्यर्थ बह रहे जल को रोक कर उसका व्यापक प्रबन्धन किया जा सकता है। इमारतों की छतों से बरसाती पानी के संग्रह की व्यवस्था कम खर्चीली एवं अधिक प्रभावशाली है। इससे भूजल की गुणवत्ता तथा पुनर्भरण क्षमता में सुधार होता है।

छत पर प्राप्त वर्षाजल संचयन के लाभ


ऊपरी छत से प्राप्त जल संचयन के अनेकानेक लाभ हैं जिनमें कुछ प्रमुख निम्न हैं।

1. जहाँ जल की अपर्याप्त आपूर्ति होती है या सतही संसाधन का अभाव है वहाँ यह जल समस्या एक आदर्श समाधान है।
2. वर्षाजल जीवाणुओं रहित, खनिज पदार्थ युक्त तथा मृदु होता है।
3. यह बाढ़ जैसी आपदा को कम करता है।
4. भूजल की गुणवत्ता विशेष तौर पर जिसमें फ्लोराइड तथा नाइट्रेट अधिक हों, द्रवीकरण के द्वारा सुधारता है।
5. सीवेज तथा गंदे पानी में उत्पन्न जीवाणु तथा अन्य अशुद्धियों को समाप्त/कम करता है, जिससे जल पुनः उपयोगी बनता है।
6. वर्षाजल का संचयन जरूरत के स्थान पर किया जा सकता है तथा जरूरत के समय इसका प्रयोग कर सकते हैं।
7. वर्षाजल संचयन के लिये यह प्रणाली बहुत सरल, सस्ती एवं पर्यावरण के अनुकूल है।
8. शहरी क्षेत्रों में जहाँ पर शहरी क्रियाकलापों में वृद्धि के कारण भूजल के प्राकृतिक पुनर्भरण में तेजी से कमी आई है तथा कृत्रिम पुनर्भरण उपायों को क्रियान्वित करने के लिये पर्याप्त भूमि उपलब्ध नहीं है, भूजल भंडारण का यह एक उचित विकल्प है।
9. यह सूखे एवं अकाल के प्रभाव को कम करने में भी सहायक है।
10. इससे मृदाक्षरण कम होता है तथा
11. ऊर्जा की बचत होती है। कुँओं में जब एक मीटर जलस्तर बढ़ता है तो लगभग 0.4 के डब्लू.एच. बिजली की बचत होती है।
12. एक सौ वर्ग मीटर क्षेत्रफल वाली ऊपरी छत (Roof top) से लगभग 55,000 लीटर जल का एक वर्ष में भूजल का पुनर्भरण कर सकते हैं जो पाँच सदस्य वाले परिवार के लिये चार महीने तक जलापूर्ति कर सकता है।

हमारे देश की राजधानी दिल्ली का क्षेत्रफल 1485 वर्ग किलोमीटर है। ऊपरी छत या रूफ टॉप से लगभग 76.5 एम.सी.एम. जल उपलब्ध है जिससे भूजल का स्तर 0.5 मीटर बढ़ सकता है एवं बिजली की खपत लगभग 8 लाख रुपये प्रतिदिन बच सकती है।

छत पर प्राप्त वर्षाजल से भूजल पुनर्भरण


ऊपरी छत से प्राप्त वर्षाजल से भूजल का पुनर्भरण निम्नलिखित तरीकों द्वारा किया जाता है।

1. जमीन में पानी उतारने का गड्ढा


एक हजार वर्ग फीट की छत वाले छोटे मकानों के लिये यह सरल तरीका बहुत ही उपयुक्त है। एक बरसाती मौसम में इस छोटी-सी छत से लगभग एक लाख लीटर पानी जमीन में उतारा जा सकता है। यह गड्ढा किसी भी आकार का हो सकता है गोलाकार, वर्गाकार या आयताकार। साधारणतया यह गड्ढा 3 से 5 फीट चौड़ा और 6 से 10 फीट गहरा बनाया जाता है। खुदाई के बाद इसमें कंकड़, रोड़ी और बजरी भर दी जाती है और ऊपर से मोटी रेत डाल दी जाती है।

.छत को अच्छी तरह साफ करके उसका पूरा पानी एक पाइप से नीचे उतारकर उसी पाइप को इस गड्ढे से जोड़ दिया जाता है। इस विधि में यह आवश्यक है कि पहली एक-दो बरसात का पानी जमीन में न उतारा जाए। इसमें कोई ज्यादा खर्च नहीं लगता, लगभग 2 हजार रुपयों में कार्य हो जाता है।

2. खाई बनाकर पुनर्भरण करना


दो से तीन हजार वर्ग फीट की छतें जिन मकानों पर हैं तथा जिनके आस-पास जमीन तथा बाउंड्रीवाल है, उन मकानों के लिये यह तरीका उपयुक्त है। उथली गहराई पर जब पर्याप्त मोटाई की मिट्टी की ऐसी तह उपलब्ध होती है, जिसमें से पानी नीचे उतर सके, तभी यह तरीका कारगर होता है। मकान के आस-पास बाउंड्रीवाल से सटे हुए भाग में चारों तरफ 3 से 5 फुट गहरी एवं लगभग 1 फीट चौड़ी नाली खोदी जाती है, जिसमें कंकड़ और रोड़ी भर दी जाती है। छतों के चारों कोनों या बीच से पाइप लाइन उतारकर इस नाली से उन्हें जोड़ दिया जाता है। इस पद्धति का उपयोग स्कूल, कॉलेजों के खेल मैदान, सड़क के किनारों और बगीचों में भी किया जा सकता है।

3. कुँओं में पानी उतारना


घर के अंदर या बाहर कुँओं के पुनर्भरण करने के लिये इस विधि को काम मे लेना चाहिए। यह तरीका (चित्र-3) सूखे कुँओं को फिर से भरने के लिये भी उपयोगी होता है। पहले कुएँ के तल तथा उसकी दीवारों को पूरी तरह साफ कर लेना चाहिए, उस पर ढक्कन लगाने की व्यवस्था भी कर देना चाहिए। इसके बाद घर की छत से एक पाइप लाइन उतारकर उसे सीधे कुएँ की तली तक ले जाना चाहिए। वर्षा के दौरान सूखा कुआँ जल्दी पानी से भर जाता है और उतनी ही जल्दी उसका पानी प्यासी जमीन के अंदर भी उतरता है जो भविष्य में कुएँ को सदैव पानी देता रहेगा। कुएँ को नियमित साफ करना चाहिए तथा कुएँ में जीवाणुनाशक दवाइयाँ तथा क्लोरीन भी हमेशा डालनी चाहिए। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रारंभिक वर्षा का एक या दो बार का पानी कुएँ में न उतारा जाए।

4. नलकूप द्वारा पुनर्भरण


पंद्रह सौ से पच्चीस सौ वर्गफीट छत वाले मकानों के लिये यह पद्धति उपयुक्त है। छत पर वर्षा में इकट्ठा किया गया पानी हैंडपम्प या नलकूप तक लगभग ढाई इंच (75 एम.एम.) व्यास वाले पाइप द्वारा पहुँचाया जाता है। पाइप को नलकूप से जोड़ने के पहले एक फिल्टर का उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है। फिल्टर पी.पी.सी. पाइप का बना होता है। छत यदि 1500 वर्ग फीट से कम हो तो फिल्टर 6 इंच व्यास का और इससे अधिक हो तो 8 इंच व्यास का होना चाहिए, इसकी लम्बाई 3 से 4 फीट होती है। यह तीन भाग में विभाजित होता है, बीच में पी.वी.सी. की जाली लगी होती है तथा तीनों खंडों में विभिन्न आकार के कंकड़ रहते हैं। इस पद्धति में कोई अधिक खर्च नहीं आता है, दो से तीन हजार के बीच में इसका निर्माण कराया जा सकता है। आजकल कुछ स्वैच्छिक संस्थाएँ भी इस कार्य को करने लगी हैं। हमें ध्यान देना चाहिए कि भूमिगत जल स्तर अब खतरे के निशान को भी पार कर गया है। 200-300 फीट गहराई तो मामूली बात हो गई है, 1,000 फीट गहराई तक नलकूप खुदने लगे हैं और वे भी गर्मियों में सूख जाते हैं। अतएव यह अत्यंत आवश्यक है कि घर या घर के आस-पास के नलकूप इस पद्धति से पुनर्भरित किये जाए। कृपया ध्यान रखें पहली एक-दो वर्षा का पानी नलकूप में डालने के बदले बहा दिया जाना चाहिए

5. बड़े भवनों के नलकूप का पुनर्भरण करना


सरकारी, गैर-सरकारी एवं उद्योगों के बड़े-बड़े भवनों की छतों पर वर्षाकाल में लाखों लीटर पानी एकत्रित होता है, जो नालियों में बह जाता है। इन छतों पर एकत्रित पानी को जमीन के गहरे जलस्तर में उतारना थोड़ा खर्चीला काम है, परन्तु जनहित में सरकार तथा सामाजिक संस्थाओं को इस पद्धति का उपयोग करना ही चाहिए। भवन की छत के अलग-अलग स्थानों से बरसात का पानी पी.वी.सी. पाइपों द्वारा अलग-अलग संग्रहण कक्ष में लाकर एक फिल्टर पिट में डाला जाता है। फिल्टर पिट दो भागों में बंटा होता है पहले भाग में गिट्टी (Pebble), बजरी (Gravel), कोयला (Charcoal) एवं रेत (Sand) भरी होती है, हर एक सतह जाली द्वारा अलग-अलग रखी जाती है। वर्षा का पानी इस फिल्टर से छनकर पिट के दूसरे भाग में चला जाता है, जहाँ से सीधा इसे पाइप द्वारा नलकूप से जोड़ दिया जाता है, पाइपों को ढलान में रखा जाता है ताकि पानी रूके नहीं। ध्यान रखें कि पहली बरसात का एक-दो बार का पानी नलकूप के अंदर उतारने के बदले अन्य कार्यों में उपयोग करना चाहिए। आवश्यक है कि इस पद्धति के उपयोग के लिये विशेषज्ञों की मदद लेना चाहिए।

6. शाफ्ट द्वारा पुनर्भरण


वस्तुतः पुनर्भरण शाफ्ट 2 फीट से 6 फीट व्यास वाला कुआँ ही होता है जिसकी गहराई 30 से 50 फीट तक हो सकती है। इसका व्यास बरसाती पानी के उस स्थान की उपलब्धता पर निर्भर करता है। वैसे चिकनी मिट्टी की सतह के नीचे जहाँ कम गहराई पर जलस्तर होता है, वहाँ इसका निर्माण कराना चाहिए। शाफ्ट हाथ से अथवा मशीन से खोदी जा सकती है, शाफ्ट को कंकड़, बजरी और साफ की हुई रेत (sand) से भरना चाहिए। इस शाफ्ट का निर्माण भवनों से 30 से 50 फीट की दूरी पर करना चाहिए। शाफ्ट के ऊपर की रेत की परत को हटाकर नियमित रूप से साफ कर दोबारा भरना चाहिए।

7. खाई में वर्षाजल भरने की शाफ्ट


.शहरी क्षेत्रों में जहाँ जलोढ़ मिट्टी वाला क्षेत्र हो एवं जमीन के नीचे ऐसी मोटी मिट्टी की परत हो, जिसमें से बरसाती पानी नीचे वहीं उतर सके, वहाँ यह तरीका (चित्र-7) उपयोगी होता है। बरसाती पानी कितना एकत्रित होता है उसके अनुसार 6 से 10 फीट चौड़ी और इतनी ही गहरी खाई खोदी जाती है ताकि पानी को नीचे नहीं उतरने देने वाली मिट्टी की परत निकाल दी जावे तथा नीचे के पानी को भेद सकने वाली परत पर एक नलकूप खोदकर छत का पानी जमीन के नीचे उतारा जाता है, जिससे जमीन के अंदर के जल भंडार का पुनर्भरण होता है। नलकूप की ऊपरी केसिंग छेद वाली पाइप की होती है, खाई को बोल्डर, बजरी और मोटी रेत से भर दिया जाता है। यह पुनर्भरण नलकूप है, जिससे उस स्थान की जमीन का जल भंडार बढ़ता है। आवश्यकता होने पर इस खाई में एक दूसरा पाइप भी लगाया जा सकता है, जिसका केसिंग पाइप जमीन की सतह के ऊपर तक होता है तथा उससे पानी निकाला जा सकता है।

टांका द्वारा संचयन एवं भूजल पुनर्भरण


ऐसे क्षेत्र जहाँ जलोढ़ मृदा की गहराई कम है तथा अधिकतर भागों में चट्टानें 10 से 15 मीटर की गहराई पर आ जाती हो एवं प्राकृतिक रूप से वर्षाजल का जलभृत में रिसाव कम मात्रा में हो, उन स्थानों पर टांका का निर्माण कर वर्षाजल का संचयन किया जा सकता है। इसी प्रकार जिन क्षेत्रों में भूजल की गुणवत्ता पेयजल हेतु अनुपयुक्त है, उन स्थानों पर फिल्टर फिट करने के उपरांत वर्षाजल को टांकों में संचित कर पेयजल हेतु उपयोग में लाया जा सकता है। टांकों का आकार उपलब्ध वर्षाजल एवं क्षेत्र की भौगोलिक एवं भूगर्भीय स्थिति के अनुसार निर्धारित किया जाता है। टैंक के पूर्ण भराव के उपरान्त यदि आवश्यकता हो तो जल को शॉट/पुनर्भरण बोर होल के माध्यम से जलभृत में पुनर्भरित किया जा सकता है।।

अंतःस्रवण टैंक द्वारा भूजल पुनर्भरण


अंतःस्रवण (Percolation) टैंक का निर्माण जल प्रवाह मार्ग पर अथवा प्रवाह के कुछ भाग को मोड़ कर किया जा सकता है, जिससे शेष जल प्रवाह पूर्व की भाँति बना रहे। अंतःस्रवण टैंक की तह में अत्यंत पारगम्य सतह होने से टैंक के जल का रिसाव आसानी से होता है, फलतः भूजल का पुनर्भरण होता है। निर्माण की सतह पर एकत्र जल विभिन्न कार्यों के लिये भी उपलब्ध होता है।

अंतःस्रवण या परकोलेशन टैंक का निर्माण यथासंभव द्वितीय से तृतीय चरण की जलधारा पर किया जाना अधिक उपयुक्त होता है। निर्माण कच्ची चट्टानें, जिनकी दरारें नीचे बहने वाली जलधारा तक फैली हों, पर किया जाना चाहिए। टैंक का आकार तल में आने वाली जलभृत इकाई की रिसाव क्षमता के अनुसार रखा जाता है। सामान्यतः टैंक का आकार 0.1 से 0.5 एमसीएम की भंडारण क्षमता के लिये उपयुक्त होता है। टैंक में जमा जल का कॉलम 2 से 4 मीटर तक रखना उपयुक्त होता है। अंतःस्रवण (परकोलेशन) टैंक के निर्माण का उद्देश्य वर्षाजल का भंडारण एवं पुनर्भरण करना होता है। अतः तल से नीचे रिसाव होने दिया जाता है।

गैबियन संरचना भूजल पुनर्भरण


वस्तुतः यह एक प्रकार का चेक डैम होता है जिसका निर्माण सामान्यतः छोटी जल-धाराओं पर स्थानीय रूप से उपलब्ध बोल्डर्स को लोहे के तारों की जालियों में डालकर उसे जलधारा के प्रवाह के विरुद्ध बाँधकर किया जाता है। कुछ जल ऊपरी क्षेत्र में रुक जाता है तथा शेष संरचना के ऊपर से प्रवाहित हो जाता है। इस प्रकार रुका हुआ जल, भूजल भंडार को पुनर्भरित करता है। ये संरचनाएँ भूमि कटाव रोकने में सहायक होती हैं तथा इनके निर्माण में खर्च भी कम आता है। सामान्यतया संरचना की ऊँचाई 0.5 मीटर तथा चौड़ाई 10 से 15 मीटर होती है

चेक डैम द्वारा भूजल पुनर्भरण


चेक डैम का निर्माण अति सामान्य ढलान वाली छोटी जल धाराओं पर किया जाता है। चयनित स्थान पर पारगम्य स्तर की पर्याप्त मोटाई होनी चाहिए जिससे एकत्रित जल कम समयावधि में पुनर्भरित हो सके। अत्यन्त सामान्य ढलान, छोटी जल धाराओं तथा पर्याप्त मोटाई के पारगम्य स्तर वाले स्थानों पर इसका निर्माण चिकनी मिट्टी से भरे बैग अथवा पत्थर की दो मीटर से कम ऊँची दीवार बनाकर किया जा सकता है। इन संरचनाओं में जल सामान्यतया कम गहराई वाले नालों में ही रहता है।

अत्यधिक जल द्वारा होने वाले कटाव को रोकने के लिये अनुप्रवाह (Downstream) में जल तल्प (Cushion) बनाए जाते हैं। क्षेत्रीय पैमाने पर पुनर्भरण करने के लिये इस प्रकार के कम लागत के चेक डैम की श्रृंखला बनाई जा सकती है।

उप-सतही अवरोध द्वारा भूजल पुनर्भरण


उप-सतही अवरोध या उप-सतही डाईक जलधारा के आर-पार एक प्रकार का अवरोध होता है जो जल बहाव की गति को कम करता है और भू-सतह के नीचे पानी एकत्रित करता है। इस प्रकार यह स्थानीय क्षेत्र में भूजल पुनर्भरण में सहायक होता है।

इसमें नाले के आर-पार अवरोधक का निर्माण किया जाता है जो अंतःबहाव की गति को कम करके बाँध के ऊपरी क्षेत्र में जलभृत को संतृप्त करता है। इनका निर्माण संकरे निकास वाली खाईयों में किया जाता है। इस संरचना में उपयुक्त स्थान पर नाले की पूरी चौड़ाई में 1 से 2 मीटर चौड़ी तथा अभेद्य सतह तक एक खाई खोदकर, उसे चिकनी मिट्टी या पत्थर की कंक्रीट दीवार से जल स्तर के आधे से एक मीटर नीचे तक भर दिया जाता है। इस प्रकार जलभृत में जल का संचयन होता है जिससे जल प्लावन तथा वाष्पीकरण नहीं होता है तथा न ही गाद जमा हो पाती है।

भवनों के क्षेत्रफल अनुसार संरचनाएँ


.जहाँ भवनों का क्षेत्रफल 100 से 500 वर्गमीटर होता है, वहाँ एक सिल्टिंग पिट एवं पुनर्भरण बोरहोल युक्त शाफ्ट का निर्माण किया जाता है। सिल्टिंग पिट का आकार 0.70 मीटर (लम्बाई) ग 70 मीटर (चौड़ाई) ग 1.00 मीटर (गहराई) होता है जिसमें 12 मिमी. व्यास के छिद्र वाली लोहे (एस.एस.) की जाली लगाई जाती है। इस कारण वर्षाजल के साथ आया मोटा कचरा आदि रुक जाता है तथा मात्र स्वच्छ पानी पुनर्भरण शाफ्ट में प्रवेश करता है। शाफ्ट का व्यास 0.75 मीटर तथा गहराई 8 मीटर होती है। शाफ्ट के तल में पुनर्भरण बोरहोल का निर्माण किया जाता है जिसका व्यास 100 मिमी. तथा गहराई जलस्तर के अनुसार रखी जाती है। इस बोरहोल में 8 से 12 मिमी. आकार के कंकड़ भरे जाते हैं। शाफ्ट के तल में 50-50 सेमी. मोटाई के कंकड़ (8 से 12 मिमी.) बारीक कंकड़ (3 से 8 मिमी.) तथा सबसे ऊपर बालू (1 से 3 मिमी.) की परतें बिछाई जाती हैं। इस फिल्टर संरचना द्वारा वर्षाजल छनकर भूजल भंडार को पुनर्भरित करता है। इस प्रकार की संरचना की अनुमानित लागत 12,000/- से 18,000/- तक आती है। यदि भवन का क्षेत्रफल 100 वर्गमीटर से कम हो तो संरचना की अनुमानित लागत 6000/- रु. से 8000/- तक आती है।

सम्पर्क


लेखक परिचय
लेखक अवकाश प्राप्त वरिष्ठ वैज्ञानिक, भूजल विभाग, राजस्थान, जोधपुर एवं वरिष्ठ विज्ञान संचारक हैं। भूजल विषयक विषद शोध कार्य भी किया है। अनेक पुस्तकों के लेखक एवं विज्ञान संचार में विगत 40 वर्षों से सक्रिय हैं। ईमेल : ddozha@gmail.com


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